ओ3म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा:।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ऋग्वेद 10.121.2॥
ऋषि: हिरण्यगर्भ: प्राजापत्य:॥ देवता क:॥ छन्द: निचृत्त्रिष्टुप्॥
विनय- आओ, हम अपना सर्वार्पण करके भी उस सुखस्वरूप देव की पूजा करें जो हमारे आत्मस्वरूप का देने वाला है। हम अपने-आप (आत्म) को ही भूलकर भटक रहे हैं। वह हमें इस अपने-आपको प्राप्त करा देता है। वही हमें बल भी देता है। अपने को खोकर आत्मशक्तिहीन हुए हम लोगों को वही अपनी करुणा से शक्ति भी प्रदान करता जाता है और जब हम उस सब शक्ति के भण्डार को कुछ अनुभव करने लगते हैं तो हम देखते हैं कि यह सब विश्व उसके आश्रित है, सब प्राणियों को सब-कुछ देने वाला वही है, सब प्राणी उसी के प्रकृष्ट शासन में रह रहे हैं। जाने या अनजाने सब उसी का आश्रय ग्रहण कर रहे हैं। उसके परिपूर्ण शासन का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। उसके नियम अटल हैं। संसार में जो बड़ी-से-बड़ी शक्तियाँ (देव) काम करती दिखाई दे रही हैं, वे सब उसी की आज्ञा का पालन कर रही हैं। उसी की प्रेरणा से प्रेरित पृथिवी, सूर्य, वायु, अग्नि आदि सब देव अपने-अपने महान् कार्य ठीक-ठीक चला रहे हैं। ऋषि देखते हैं कि मृत्यु भी उसी के भय से उसकी आज्ञा में दौड़ता फिर रहा है। अहो! इस मौत से तो यह सम्पूर्ण ही संसार डरता है। सचमुच इस जगत् में जहाँ सुख-भोग हैं, वहाँ इन्हें क्षणिक बनानेवाला दु:ख-संताप भी जगत् में है और कोई भी ऐसा जन्म पानेवाला नहीं है जो मृत्यु का ग्रास न होता हो। देखो, यह ‘राम की चक्की‘ संसार में ऐसी चल रही है कि इसमें सब पिसते जा रहे हैं, मरते जा रहे हैं। इस मृत्यु के विकराल कालचक्र को चलानेवाला इसका शासक भी वही है। सब संसार दु:ख-पीड़ित और मौत का मारा हुआ पड़ा है। हे मनुष्यो! यदि तुम उसकी इस विकराल भयरूपिणी मृत्युदेवी से घबरा चुके हो तो यह भी आश्चर्य देखो कि जब मनुष्य उस प्रभु की शरण में आ जाता है तो मृत्यु अमृत बन जाती है। उस प्रभु की मंगलमय छाया में कोई सन्ताप नहीं रहता, मृत्यु भी नहीं रहती। आत्मस्वरूप को देकर वह हमें क्षण में अमर कर देता है। आओ, हम उस आत्मस्वरूप को देनेवाले की शरण में आकर अमर बन जाएँ । उसी से बल की याचना करें जिससे कि हम सदा उसकी छाया में ही सुख से रहने में कृतकार्य हो जाएँ।
शब्दार्थ- य: आत्मदा:=जो आत्मस्वरूप को देनेवाला और बलदा:=शक्ति को देनेवाला है, यस्य विश्व उपासते=सब जिसकी उपासना करते हैं और यस्य देवा: प्रशिषं उपासते= देव भी जिसके प्रसासन के आश्रित हैं, जिसकी सर्वोच्च आज्ञा में चलते हैं, यस्य छाया अमृतम्=जिसकी शरण या आश्रय पाना अमर होना है और यस्य मृत्यु:=जिसकी (जिससे दूर होना ही) मृत्यु है कस्मै दैवाय= उस ‘क‘ (सुखस्वरूप) देव का हम हविषा विधेम=आत्मत्याग द्वारा पूजन करते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- जून 2015)
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