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राष्ट्रीय पर्यावरण-4

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National Enviroment 2

किसी भी समाज का हित राष्ट्रीय हित के साथ जुड़ा है। समाज तथा राष्ट्र परस्पर सम्बद्ध हैं। समाज की उन्नति से राष्ट्र की उन्नति होती है तथा राष्ट्र के अभ्युदय से समाज का अभ्युदय। जयुर्वेद वाङ्मय के अनुसार ‘राष्ट्र‘ का अर्थ है- सर्वांगीण विकास और अभ्युदय। सर्वांगीण राष्ट्रीय उन्नति को ही ‘अश्‍वमेध यज्ञ‘ कहते हैं-
श्रीर्वै राष्ट्रम॥107
श्रीर्वै राष्ट्रमश्‍वमेध:॥108

शोभा या सौन्दर्य जहाँ समग्र विकास की दृष्टि से विद्यमान रहते हैं, वहीं राष्ट्र का स्वरूप निर्मित हो जाता है। सारे राष्ट्र की सुख समृद्धि की स्वीकृति का प्रतीक ही तो अश्‍वमेध है।
उन्नति एवं विकास के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र स्वाधीन हो। परतन्त्र राष्ट्र यथोचित उन्नति नहीं कर सकता है। ऋग्वेद में स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार बतलाया गया है-
यस्य ते नु चिदादिशं न मिनन्ति स्वराज्यम्।
न देवो नाध्रिगुर्जन:॥109

अर्थात् तेरे (परमात्मा के) आदेश रूप स्वराज्य को कोई कभी भी नहीं रोक सकता है, न कोई देवता और न कोई अजेय व्यक्ति।

आशय यह है कि चाहे कोई देवता हो या कोई बलवान् हो- वह स्वराज्य की भावना को नहीं दबा सकता। अर्थात् शासक चाहे शुभ विचारों वाला हो अथवा अत्यन्त शक्तिशाली हो- वह प्रेम से या बल प्रयोग से स्वराज्य की भावना को नष्ट नहीं कर सकता। स्वाधीनता की भावना आन्तरिक प्रेरणा है। यह स्वतन्त्र होने तक मनुष्य को शान्ति से नहीं बैठने देती।

विदेशी राजा सज्जन हो या दुर्जन, न्यायकारी हो या अत्याचारी- उसकी प्रवृत्ति सदा शोषण की ही रहती है। वह स्वार्थसिद्धि के लिए सदा जनसाधारण का शोषण करता रहतो है। अत: मनुष्य चाहे किसी देश या राष्ट्र का हो, उसे स्वतन्त्र रहने में ही उचित सुख मिल सकता है। किसी की स्वाधीनता छीनना बहुत बड़ा अत्याचार है। इसका विरोध करना जनसाधारण का कर्त्तव्य है। इस स्थिति को वेद में राष्ट्रत्व से युक्त नहीं माना गया है।

राष्ट्र में शासन की कौन सी विधि अधिक उपयुक्त है- राजतन्त्र या जनतन्त्र? इस विषय में वेदों में ‘जनराज्य‘ या ‘जनतन्त्र‘ प्रणाली का उल्लेख आता है। यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में महान् जनराज्य की कामना की गई है-
इमं देवा आसपत्नं देवा सुवध्वं महते क्षत्राय।
महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्याय इन्द्रस्येन्द्रियाय॥110

अर्थात् हे देवो ! तुम इस राजा को महान् क्षात्र धर्म के लिए, महान् गौरव के लिए, महान् जनराज्य या जनतन्त्र के लिए तथा आत्मज्ञान के सामर्थ्य के लिए प्रेरित करो तथा इसे शत्रुरहित करो।

इस मन्त्र में महान् जनराज्य का उल्लेख है। जनराज्य को ही गणराज्य, संघराज्य, लोकतन्त्र तथा प्रजातन्त्र कहा जाता है। ‘जनराज्य‘ जनता का राज्य होता है। चुना हुआ जन समूह इसका संचालन करता है। इसमें नियन्त्रण तथा नियमन की शक्ति जनता के हाथ में होती है। अत: जनता अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करती है। इस गौरव से ही आत्म गौरव, ज्येष्ठता एवं श्रेष्ठता प्राप्त होती है। अतएव मन्त्र में इस आत्मगौरव को ‘महते ज्यैष्ठ्याय‘ महान् ज्येष्ठता कहा है। जनराज्य की दूसरी विशेषता ‘महते क्षत्राय‘ महान् क्षात्र बल बताई गई है। इसमें जनता का मनोबल ऊँ चा रहता है। जनराज्य की तीसरी विशेषता ‘इन्द्रस्येन्द्रियाय‘ बताई गई है। इसमें इन्द्र अर्थात् जीवात्मा का आत्मबल प्रबल होता है। राष्ट्र या जनराज्य में वरिष्ठता का आदर, बलशालिता को पुरस्कृत और अनुशासन को सर्वस्वीकृत किया जाय तो नि:शत्रुता और संगठन स्वयं हो ही जाते हैं। इसी से राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षित रहता है।

वेदों के राजनीति विषयक स्थलों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि वैदिक राज्य प्रणाली में राजा या मुख्य शासक चुना हुआ अर्थात् प्रजा के बहुमत से पसन्द किया हुआ होना चाहिए। यजुर्वेद के मन्त्रों में इसका स्पष्ट निर्देश है-
मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या
वैश्‍वानरमृत आ जातमग्निम्।
कविं सम्राजमतिथिं जनानाम्
आसन्ना पात्रं जनयन्त देवा:॥111

अर्थात् विद्वान् पुरुषों ने व्यवहार, ज्ञान तथा आनन्द आदि के मूर्धा स्थानीय पृथिवी के- राष्ट्र के सब प्रदेशों में पहुंच सकने वाले, सब लोगों के हितकारी, सत्य, ज्ञान और यज्ञों- संगठित समारम्भों के निमित्त उत्पन्न हुए क्रान्तदर्शी विद्वान् लोगों के यहाँ आवश्यकता होने पर अचानक पहुंच जाने वाले तथा रक्षा करने वाले इस अग्रणी पुरुष को मिलकर सम्राट् बनाया है। अपने अन्दर उसे मुख के स्थान में रहने वाला ‘प्रधान‘ बनाया है। इस मन्त्र में विद्वान् लोगों द्वारा सम्राट् का चुनाव किए जाने का स्पष्ट वर्णन है। मन्त्र में उसके बनाए जाने की सूचना ‘आ जनयन्त‘ इस क्रिया तथा इसी के ‘आजातम्‘ इस प्रत्ययान्त प्रयोग द्वारा दो बार दी गई है। यदि सम्राट् विद्वज्जनानुमोदित होगा तो राष्ट्रभ्युदय में तत्पर भी रहेगा।

नाभा पृथिव्या: समिधाने अग्नौ
रायस्पोषाय बृहते हवामहे।
इरम्मदं बृहदुक्थं यजत्रं
जेतारमग्निं पृतनासु सासहिम्॥112

पृथिवी के मध्य में अर्थात् राष्ट्र की राजधानी में अग्नि के अच्छी प्रकार प्रदीप्त होने पर अर्थात् राजसूयादि यज्ञ करके बड़े धन और उससे प्राप्त होने वाली पुष्टि के लिए अन्न से हमें आनन्दित करने वाले बड़े प्रशंसनीय, सत्कार करने योग्य, संगति करने योग्य, विजयशील सेनाओं में शत्रुओं का पराभव करने वाले अग्रणी सम्राट् को हम राज्य के लिए बुलाते हैं। इस मन्त्र में सम्राट् के विविध कर्तव्यों और गुणों का संकेत भी दिया गया है।

आ त्वाऽहार्षमन्तरभूर्ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि:।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्॥113

हे (अग्ने) राजन् ! तुझ को हमने बुलाया है। हमारे बीच में स्थिर होकर सिंहासन पर बैठो। कभी विचलित न हो सके- ऐसा होकर राज्य कर। तुझे सारी प्रजाएँ चाहें। तेरे कारण राज्य नष्ट न हो अर्थात् तू राष्ट्र का अच्छी प्रकार पालन कर।

‘विशस्त्वा सर्वावाञ्छन्तु‘- सब प्रजाएँ तुम्हें चाहें, इस वाक्य द्वारा स्पष्ट हो रहा है कि राजा के राज्याधिरोहण में प्रजाओं की सहमति का पूरा स्थान होना चाहिए जिसे प्रजा (जनता) न चाहती हो, उसे राजा (शासक) नहीं बनाया जा सकता। राजा प्रजानुमोदित होकर प्रजारंजक होना चाहिए, यही अभिप्राय है।• (क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
107. शतपथ ब्राह्मण - 6.7.3.7
108. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 3.9.7.1
109. ऋग्वेद संहिता - 8.93.11
110. यजुर्वेद संहिता - 9.40
111. यजुर्वेद संहिता - 7.24
112. यजुर्वेद संहिता - 11.76
113. यजुर्वेद संहिता - 12.11 - आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत (दिव्ययुग- मार्च 2015)

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