विशेष :

दूर पार

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ओ3म् उत यो द्यामतिसर्पात् परस्तान्न स मुच्यातै वरुणस्य राज्ञः।
दिवः स्पशः प्र चरन्तीदमस्य सहस्त्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम्॥ अथर्ववेद 4.16.4॥
ऋषि: ब्रह्मा ॥ देवता वरूणः ॥ छन्दः त्रिष्टुप् ॥

विनय- एक राष्ट्र (रियासत) के राजद्रोह का अपराधी उसके दण्ड से किसी दूसरे राष्ट्र में भागकर बच सकता है, परन्तु इस संसार के परिपूर्ण राजा, पापनिवारक सच्चे राजा वरुण का अपराध करके, इस संसार के अटल नियमों का भङ्ग करके अर्थात् झूठ, द्रोह, हिंसा आदि करके यदि कोई व्यक्ति चाहे कि वह कहीं भागकर इनके प्राप्तव्य प्रतिफलों से बच जाए तो यह असम्भव है। वरुण राजा के राज्य के बाहर मनुष्य कभी भी नहीं जा सकता। इस विस्तृत, दुर्गम, विशाल भूतल के किसी भी प्रदेश में जा छिपे, उससे हो सके तो चाहे मङ्गल, शुक्र आदि किसी अन्य लोक में भी चला जाए और यदि सम्भव हो तो चाहे वह इस सौरमण्डल (दिवः) से भी परे कहीं जा पहुँचे, तो भी वह वरुण राजा के राज्य के पार नहीं जा सकता। वह चाहे कहीं चला जाये, अपना प्राप्तव्य दण्ड उसे जरूर भोगना पड़ेगा, अपने किये हुए कर्म के बन्धन से वह कहीं भी जाकर नहीं छूट सकता। ये दुनियावी राजाओं (राजा कहलानेवालों) के गुप्तचर तो हमारे-जैसे अज्ञानी मनुष्य ही होते हैं, उन्हें बहुत धोखे दिये जा सकते हैं और वे असंख्यों भ्रमों के भाजन होते हैं, परन्तु उस वरुण राजा के दिव्य गुप्तचरों से मनुष्य कभी नहीं बच सकता। वे सब-कुछ जान लेने में समर्थ होते हैं। वे इस ब्रह्माण्ड-भर में सर्वत्र व्यापक हैं। वे उस स्वयंप्रकाश वरुणदेवरूपी सूर्य की अनन्त किरणें बनकर सब ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं। वे उसकी ज्ञानशक्तियों के रूप में हैं। अतः हम मनुष्य जब किन्हीं ईश्‍वरीय नियमों का उल्लंघन करते हैं, शरीर से, वाणी से या मन के मनन से कोई भी अनिष्ट आचरण करते हैं तो उसी क्षण, उसी स्थान पर ये दिव्य वरुण-दूत इन्हें जान लेते हैं, बल्कि हमें अपने अदृश्य पाशों से तत्काल बाँध भी लेते हैं, पर हमें कुछ मालूम नहीं होता। वरुण के ‘स्पशों‘ (चरों) का यह कमाल देखो! यह परम गुप्तचरता देखो! वे हजारों आँखों वाले, असंख्यों प्रकार से देखने वाले ‘स्पश‘, देश-काल आदि के सब व्यवधानों का अतिक्रमण करके सब ठीक-ठीक देखते हुए ब्रह्माण्ड-भर में विचर रहे हैं।

शब्दार्थ- यः उत= जो भी कोई जीव द्यां अति=द्युलोक को पार करके परस्तात्=उससे भी परे सर्पात्=चला जाए सः=वह भी वरुणस्य राज्ञः=वरुण राजा से न मुच्यातै=मुक्त नहीं हो सकता, बच नहीं सकता। दिवः अस्य=प्रकाश-स्वरूप इस वरुण के स्पशः=गुप्तचर इदम्=इस सब ब्रह्माण्ड में प्र चरन्ति=अच्छी प्रकार घूम रहे हैं जो सहस्त्राक्षाः=हजारों आँखोंवाले होकर भूमिम्=इस भूमि को अति पश्यन्ति=अतिक्रमण करके देख रहे हैं, जिसे अन्य नहीं देख सकते उसे भी देख रहे हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

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