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वेदों का महत्त्व (2)

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vedदर्शनकारों ने भी मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है । वैशेषिक दर्शन में कहा है-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्। (वैशेषिक 10.1.3) ईश्‍वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वत: प्रमाण हैं।

एक अन्य स्थान पर वेद की महिमा का वर्णन इस प्रकार है-
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। (वैशेषिक 6.1.1) वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अत: वह ईश्‍वरीय ज्ञान है।

सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुत: वे नास्तिक थे नहीं । महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वत: प्रमाण माना है-
न पौरुषेयत्वं तत्कर्तु: पुरुषस्याभावात्। (सांख्य 5,46) वेद पौरुषेय, पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

निजशक्त्यभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सांख्य. 5,51) वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्‍वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वत: प्रमाण हैं।

मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्‍वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है, अत: वेद परम-प्रमाण है।

योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि का कथन है-
स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्। (योगदर्शन1.26) वह ईश्‍वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वजों का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं, परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है।

वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है-
शास्त्रयोनित्वात्। (वेदान्त. 1.1.3) ईश्‍वर शास्त्र=वेद का कारण हैा, अर्थात् वेदज्ञान ईश्‍वर-प्रदत है। इस सूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहाँ उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-
“ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ ब्रह्म ही है । क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है।’’

एक अन्य सूत्र में कहा गया है-
अत एव च नित्यत्वम्। (वेदान्त. 1.3.29) इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं।
मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है-
चोदनालक्षणोंऽर्थो धर्म:। (मीमांसा. 1.1.3) जिसके लिए वेद की आज्ञा हो, वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है।

एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं-
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्। (मीमांसा1.3.18) शब्द नित्य है, नाशरहित है । क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है, वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।

इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वत:प्रमाणता का वर्णन करते हैं।• (क्रमशः) - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती


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