ब्राह्मण ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्त्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहाँ केवल तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.11.3) की एक आख्यायिका प्रस्तुत है-
“महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा कि यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे ? भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य -पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा । तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं, इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। ‘अनन्ता वै वेदा:’ । वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।’’
ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है-
या हि न: सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी।
त्वत्कृते सा कृता वत्स वनवासानुसारिणी।
हृदयेष्वेव तिष्ठन्ति वेदा ये न: परं धनम्।
वत्स्यन्त्यपि गृहेष्वेव दाराश्चारित्ररक्षिता:॥ (वाल्मीकि रामायण अयोध्या काण्ड 54.24.25)
जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था- हे वत्स! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पातिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में वेद के गौरव-विषयक विचारों का अवलोकन कीजिए। वेद की गौरव-गरिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वा: प्रवृत्तय:॥ (महाभारत शान्ति.232.24)
सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।
अर्थसहित वेदाध्ययन के महत्व पर बल देते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
यो हि वेदे च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्पर:।
न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा॥
भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थ न वेत्ति य:।
यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा॥ (महाभारत शान्ति. 305.13,14)
जो वेद और शास्त्रों को कण्ठस्थ करने में तत्पर है, परन्तु उनके अर्थ से अनभिज्ञ है, उसका कण्ठ करना व्यर्थ ही है। जो ग्रन्थ के तात्पर्य को नहीं समझता, वह ग्रन्थ को रटकर मानो उसका बोझ ही ढोता है, परन्तु जो अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढता है, उसका पढना ही सार्थक है।
इसी तथ्य को महर्षि यास्क ने इस प्रकार प्रकट किया है-
स्थाणुरयं भारहार: किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्।
योऽर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा॥ (निरुक्त 1.18)
जो मनुष्य वेद पढकर उसके अर्थों को नहीं जानता, वह भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु जो अर्थ को जाननेवाला है, वह उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दु:खरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है। (जारी) - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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