शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। यह सूत्रवाक्य आज के समय की मांग है। यह सम-सामयिक ही नहीं, अपितु एक सार्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य है। वीरभोग्या वसुन्धरा। यह धरती कायरों-कमजोरों की नहीं। वीर जातियां ही इतिहास की रक्षा करती हैं, इतिहास रचती भी हैं। का पुरुषों-दुर्बलों को तो समय इतिहास के पृष्ठों में लपेटकर कूड़ा-दान में फेंक देता है। शक्ति द्वारा श्रेयस् की प्राप्ति होती है। शक्ति और श्रेयस् एक दूसरे के पूरक ही नहीं, एक दूसरे पर अवलम्बित भी हैं। शस्त्र में और शास्त्र विभाजक रेखा खींचने वाले लोग व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास में कभी सफल नहीं हो सकते।
कृष्ण शक्ति के साथ अर्जुन शक्ति भी अनिवार्य है। योद्धा अर्जुन के गांडीव के बिना योगेश्वर कृष्ण के कर्मयोग के उपदेश-तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः और युद्धाय युज्यस्व का कोई अर्थ नहीं। अन्याय, अत्याचार, अधर्म, उत्पीड़न का प्रतिरोध करके न्याय और धर्म की विजय के लिए अर्जुन की गांडीव-शक्ति अनिवार्य और अपरिहार्य है। जब-जब इस तथ्य की उपेक्षा हुई हम पराजित हुए, अपमानित हुए, पीड़ित और प्रताड़ित हुए। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ वैदिक धर्म में अभिप्रेत नहीं है। यह तो अन्याय और अत्याचार को प्रश्रय देना है। अहिंसा निरपवाद नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र द्वारा दानव-कुल का हनन करके रामराज्य की स्थापना तथा योगीराज श्रीकृष्ण द्वारा कंस-शिशुपाल-जरासन्ध का वध करके न्याय की स्थापना की संगति अहिंसा से नहीं बैठती और गीता में श्रीकृष्ण का ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ का प्रण भी असंगत हो जाता है। हम ‘सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या’ का जाप करते रहे तथा विदेशी आक्रान्ताओं ने हमारी भूमि पर अधिकार करके हमारी सभ्यता और संस्कृति को ध्वस्त कर दिया। अतीत के गौरव का विस्मरण करके आत्महीनता से ग्रसित होकर हम अपनी ही संस्कृति से घृणा करने लगे। इसी दौर्बल्य के कारण पश्चिमी शक्तियों के नुकीले कदमों ने भारत माँ के वक्षःस्थल को क्षत-विक्षत कर लहुलुहान कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से पराधीन, सामाजिक दृष्टि से अपमानित, सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित, आर्थिक दृष्टि से पीड़ित, शोषित, निःसहाय भारतवासी इसी को अपनी नियति मान बैठे।
समय-समय पर भारत माता के वीर सपूतों ने इस पराधीनता का प्रतिरोध भी किया तथा अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूंका। वीर-पुंगव महाराणा प्रताप, छत्रपति वीर शिवाजी तथा पजाब के रणबाँकुरे बहादुर सिपाहियों ने स्वातन्त्र्य वेदी पर अपने प्राणों की बलि चढ़ाई। 1857 के स्वातन्त्र्य समर के वीर सेनानियों के बलिदान की रोमांचक गौरव-गाथाएँ मुर्दादिलों में भी प्राण फूंकती हैं। यद्यपि इस क्रान्ति को क्रूरता से कुचला गया, तथापि असन्तोष और विरोध के स्वर दबे नहीं, अपितु निरन्तर तीव्र से तीव्रतर होते गए। राष्ट्रीय भावनाओं की आँधी जोर पकड़ती गई। बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र के वीर सपूतों ने स्वातन्त्र्य दीपक की वर्तिका को अपने रक्त रूपी तेल से सिंचित किया। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती की विचारधारा ने ऐसे क्रांतिवीर उत्पन्न किए, जिन्होंने विदेशी शासन की जड़ें उखाड़ने के लिए सिर पर कफन बांध लिए। महाराष्ट्र में चाफेकर बन्धुओं और सावरकर बन्धुओं के बलिदान, त्याग तथा राष्ट्र के प्रति निष्ठा और दृढ़ संकल्प ने स्वातन्त्र्य आन्दोलन में नए प्राण फूंक दिए। अण्डेमान के सैलुलर कारागार में असह्य कष्ट और क्रूरतम यातनाएं सहने वाले विनायक दामोदर सावरकर, उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर, वामनराव जोशी, इन्दुभूषण, उल्हासकर दत्त, नानी गोपाल जैसे क्रांतिवीरों ने राष्ट्रप्रेम और बलिदान के अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किए। सरफरोशी की तमन्ना लिए बसन्ती चोला पहने आजादी के परवानों ने हँसते-हँसते फाँसी के फन्दों को चूमा। स्वातन्त्र्य देवी के दर्शन केवल अहिंसक आन्दोलन के बल पर नहीं हुए हैं, अपितु इसके लिए असंख्य बहुमूल्य प्राणों की बलि दी गई।
आज हम यह सोचने को विवश हैं कि क्या इन दीवानों ने ऐसे स्वतन्त्र भारत की कल्पना की थी? सत्तालोलुप, बेईमानी के रोग से पीड़ित, जनता से कटी इन राजनीतिक पार्टियों ने उन क्रांतिवीरों का कोई मूल्यांकन नहीं किया, बल्कि उनके किए कराए पर पानी फेर दिया।
देशहित के प्रति गाफिल आज की राजनीतिक पैंतरेबाजी ने देश की गरिमा को तो खण्डित किया ही, इसे अन्दर और बाहर से असुरक्षित भी बना दिया। देश की छवि को घूलि धूसरित कर दिया। आज भारत की जनता दुनिया की नजरों में कायर, मजबूर, दब्बू बन गई। सदियों से संसार को प्रेम, शान्ति, सहिष्णुता और सद्भावना के सन्देश देने वाले भारत को आज योरोपीय समुदाय के देश नसीहत देने चले हैं। ‘जीओ और जीने दो’ के मन्त्र को स्वयं सिद्ध करने वाले देश को अब स्वयम्भू दरोगे सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने की हिमाकत कर रहे हैं। कमजोर की जोरू सबकी भाभी। शैतान और शातिर दिमाग वाले फिर से भारत को गुलाम बनाने का साजो-सामान तैयार कर रहे हैं। भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने वाले हिन्दू आज अपने ही घर में असुरक्षित हैं, उपेक्षित हैं, अपमानित और आतंकित हैं। हिन्दुत्व किसी विशेष जाति, मत या सम्प्रदाय का नाम नहीं, बल्कि यह तो एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा है। भारतीयता के बिना हिन्दुत्व नहीं, हिन्दुत्व के बिना भारतीयता नहीं। खेद का विषय है कि हिन्दुत्व की सहिष्णुता और उदारता को दुर्बलता समझा गया। बलात् धर्मान्तरण के दुष्परिणाम राष्ट्र की एकता और अखण्डता को भुगतने पड़ रहे हैं।
गोधरा में क्या हुआ? साबरमती एक्सप्रेस की बोगी में 60 जीवित लोगों को चिताग्नि दी गई। मासूम, मजलूम, निरीह बच्चों, बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों की होली जलाई गई। दयानन्द और गांधी का गुजरात धू-धू करके जल उठा। हिन्दुत्व की, भारत की गरिमा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं तथा देश की छवि धूमिल की जा रही है।
छाज तो बोलें, पर आज छलनियाँ भी चिल्ला रही हैं, जिनमें असंख्य छेद हैं। ‘सिमी’ (प्रतिबन्धित-भूमिगत) संस्था का समर्थन करने वाले तथा आई.एस.आई. से जुड़े तारों वाले दल भी बोलने की हिम्मत कर सकते हैं? देश के दुश्मन इन जयचन्दों और मीर जाफरों को बेनकाब करने का अभियान चलाना होगा। तथाकथित पन्थनिरपेक्षतावादियों का दुमुँहापन देखो। जिन्दा जलाए गए लोगों के प्रति इतने संवेदनहीन कि होंठ भी न खुलें और वोटों के गुलाम तथा तुष्टीकरण करने में इतने विक्षिप्त कि छाती पीटते न थकें। सभी का जीवन कीमती है। खून किसी भी समुदाय का हो, उसका रंग एक होता है। आज हमें संघर्ष करना है, अन्दर से भी और बाहर से भी। आज देश चारों ओर से संकट में घिरा है। उत्तर सुलग रहा है, पूर्व जल रहा है, दक्षिण भड़क रहा है। जेहादी आतंकवाद, उल्फा उग्रवाद, माओवादी नक्सली एम. सी.सी., पी.डब्ल्यू.जी. आदि हिंसा का ताण्डव कर रहे हैं। देश की स्वतन्त्रता खतरे में है। अब तो संग्राम महान भीषण होगा, याचना नहीं अब रण होगा,की तर्ज पर लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। एतदर्थ वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भारतीय छात्रों के सैनिकीकरण पर बल दिया था। देश की सीमाओं की सुरक्षा हेतु देश के नौजवान तैनात हैं उन्हें भरपूर समर्थन, प्रोत्साहन, सहयोग देना होगा। सैन्य शक्ति का दुरुस्त-चुस्त करने के साथ पुलिस प्रशासन को भी चाक चौबन्द करना होगा। आतंकवादी तो ए.के. 47, ऐ.के. 56, राकेट लांचर, बारूदी सुरंगें बिछाने की आधुनिकतम तकनीक से लैस हैं परन्तु हमारी पुलिस के पास पुराने माडल की जंग लगी बन्दूकें हों, तो कैसे मुकाबला होगा।
अब समय आ गया है कि शहीदी रक्त में उबाल आए। ’1857 का स्वातन्त्र्य समर’ जैसे ओजस्वी देशभक्ति साहित्य का फिर से सृजन हो, अनुशीलन हो, जो भारत की नई पौध को राष्ट्र-भक्ति के जज्बे से लबरेज कर दे ।
आज आवश्यकता है स्वामी श्रद्धानन्द और स्वामी दर्शनानन्द जैसे गुरुकुल अधिष्ठाताओं के उत्साह और अध्यवसाय की, जिससे हमारी शिक्षण संस्थाओं में ऐसे शक्तिशाली देशभक्त नौजवान तैयार हों, जिनसे शत्रु थरथरा उठे। आज देश के रंगमंच पर लाला हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भाई परमानन्द, मदनलाल ढींगरा, उधमसिंह, बिस्मिल, भगतसिंह, अशफाक जैसे बलिदानी वीरों को अवतरित करना होगा। आज राजनैतिक शिखण्डियों ने भारत के संविधान रूपी भीष्म पितामह को रक्तरंजित करके शरशैय्या पर लिटा रखा है। इसके लिए गाण्डीवधारी उर्जनों की प्रतीक्षा है। चोर, डकैतों, अपराधियों, तस्करों, माफिया गिरोहों से देश की रक्षा करनी होगी। यह तभी संभव होगा जब देश की नई पीढ़ी सबल होगी, सशक्त होगी, देशभक्ति की भावनाएँ जोर मारेंगी, वैरी से लोहा लेने के लिए भारतीय सपूतों की भुजाएँ फड़क उठेंगी। अन्याय, अत्याचार, जुल्म-ओ-सितम से टक्कर लेने के लिए वैदिक संस्कृति का आदर्श है-
अग्रतः चतुरो वेदान्ः पृष्ठत सशरं धनुः।
इदं शास्त्रमिदं शस्त्रं शापादपि, शरादपि॥
सामने चारों वेदों हों, पीठ पर बाण सहित धनुष हो, यह (इधर) शास्त्र हो, यह (इधर) शस्त्र हो, तर्क से भी, तीर से भी।
ब्राह्म तेज के साथ क्षात्र तेज भी आवश्यक है। राष्ट्र की अस्मिता (संस्कृति, कला, साहित्य, भाषा) की रक्षा हेतु देशवासियों को सर्वतः सन्नद्ध रहना होगा। याद रहे, राष्ट्र-द्रोह से बढ़कर कोई बड़ा पाप या अपराध नहीं। राष्ट्र-रक्षा के संकल्प से बढ़कर कोई संकल्प बड़ा नहीं। कायर-दुर्बल बनकर मानसिक गुलामी से ग्रस्त रहेंगे, तो रगों का खून पानी बन जाएगा। बार-बार उपस्थित होने वाली चुनौतियों का यदि डटकर वीरतापूर्वक सामना नहीं किया जाएगा, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी। जब माँ की आबरू पर अन्दर और बाहर से घात-प्रतिघात किए जा रहे हों, तो माँ के सपूतों का क्या कर्तव्य हो सकता है, यह समझना होगा। कवि ‘नीरज’ के शब्दों में-
दे रहा है आदमी का दर्द अब आवाज दर-दर।
अब न जागे तो कहो सारा जमाना क्या कहेगा?
जब बहारों को खड़ा नीलाम पतझड़ कर रहा है
तुम कहीं फिर भी उठे तो आशियाना क्या कहेगा? - राजरानी अरोड़ा
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