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विवाह और सन्तान भारत की पहचान

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Vivah or Santan Bharat Ki Pahchanउत्तर में अति निकट रामगंगा, दक्षिण में कुछ दूर बड़ी गंगा के दुआब में बसा भारतवर्ष का यह एक बड़ा गाँव है। बड़े-बड़े जमीदार क्षत्रियों ने अन्य सभी वर्ग-जातियों को यहाँ बसाया हैं, उनके जीवन यापन की व्यवस्था भी की है। कहीं से कोई विक्षिप्त महिला यहाँ आ गयी। उसके लिये भोजन, वस्त्र की कमी न रहती। आराम से दिन कट रहे थे। गाँव में दुर्व्यसनी तथा मद्यपायी कम न थे, पर उन पर परिवारों का नियन्त्रण रहता था।

वहाँ यकायक एक अनहोनी घटना घट गयी। वह विक्षिप्त महिला गर्भवती हो गयी। निश्‍चित समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। कुछ महीनों बाद किसी ने उसे गोद ले लिया, उसे बाहर पढ़ने को भेज दिया। पढ़-लिखकर वह सिपाही बना, पदोन्नति पाकर दरोगा बन गया। वर्षों बाद वह गाँव लौटा, सभी लोग उसे देखकर चकित रह गये। अपनी विक्षिप्त बूढ़ी माँ को ले गया। विवाह व परिवार सभी कुछ मिला। वह टूटा नहीं, बृहत समाज का अंग बनकर खिल गया और उसमें मिल गया। गाँव के बड़े जमीदार शौकीन भी कम नहीं थे। कई तो रूपसी वेश्याओं को अपने घर लाते थे। वे घर का काम सम्भाल लेती थीं। घर की महिलायें तो बाहर निकलती नहीं, वे गोबर उठाकर बाहर कण्डे पाथने को निकल पड़ती थीं। कोई उन्हें भाभी, चाची, ताई अथवा दादी कहकर राम-राम करने में झिझकता नहीं। उनकी सन्तानें होती, जो सुन्दर मेधावी निकलती। उनके भी विवाह होते। देर-सवेर वे भी बृहतर समाज में घुल-मिल जातीं।

सफाई-कर्मी वर्ग की एक शोभित सुयोग्य कन्या अपनी माँ को साइकिल पर बैठाकर कार्य के लिए कालोनी में छोड़ जाती, कभी कार्य भी करने लग जाती। नहा-धोकर अपने कालिज चली जाती। इसी क्रम में उसके सम्बन्ध ब्राह्मण परिवार के युवक से बन गये। युवक को जेल जाना पड़ा। लड़की को उसके वर्ग के लोगों ने यह कहकर ठुकरा दिया कि यह तो पण्डित के घर में रह आयी है। अब हम इसे रख नहीं सकते। आर्यसमाज ने प्रकरण को अपने हाथ में लिया और यज्ञवेदी पर विधिवत दोनों का विवाह हो गया। विवाह की दूसरी वर्षगाँठ आते-आते वे एक पुत्र को प्राप्त कर तीन हो गये थे। अब नोएडा में दोनों कम्प्यूटर कर्मी बनकर प्रभूत वेतन तो प्राप्त करते ही हैं, दोनों पक्ष के अभिभावक भी प्रसन्न व सन्तुष्ट हैं।

इनसे मिलिये। यह एक सौम्य सुकोमल स्वभाव के युवा प्रोफेसर हैं। इनके साथ सुमधुर सरल स्वभाव की युवती है, वह इनकी धर्मपत्नी है। वर्षों से हम इन्हें समारोह में देखते आ रहे हैं, मिलते हैं, बोलते हैं और हँसते हैं। पर इनकी हँसी-खुशी में वह उमंग नहीं बसी दिखाई देती है, जो उन दम्पत्तियों में दिखाई देती है, जिनके साथ उनके नन्हें-मुन्ने बच्चे होते हैं। युवा प्रोफेसर प्रोढ़ता की दहलीज पर हैं। कई महीनों से सभा-सम्मेलन व उत्सव में वह एकाकी ही मिलते हैं, उनकी अर्द्धांगिनी नहीं। पूछने पर वह कह देते कि पत्नी का स्वास्थ्य कुछ ऐसा ही ढीलाढाला है। सुनकर लोगों को पत्नी के गर्भवती होने का भ्रम होता है। कुछ महीने और बीतते हैं। अब पूछने पर उनका उत्तर होता है कि बच्चा अभी छोटा है, उसी में लगी रहती है। प्रोफेसर साहब को यह आभास देने में प्रसन्नता का सहज बोध होता था कि लोग जानें कि वे पिता बन रहे हैं, पत्नी गर्भवती हैं, अब वास्तव में बच्चा उनकी गोद में है। पर यह रहस्य रहस्य न रहा, जब उनका गोद लिया बच्चा उस दम्पत्ति के साथ एक समारोह में आ गया। अनमेल थुलथुल बालक प्रौढ़ प्रोफेसर दम्पत्ति से रूपाकार प्रकार से मेल ही नहीं खा रहा है। इस दम्पत्ति की सराहना की जानी चाहिए, जिसने तीन ही वर्ष में उसे थुलथुल ढुलमुल से सुगढ़-सुमोहक बना लिया। अब वे इस जुगाड़ में हैं कि उनके बच्चे का प्रवेश महानगर के सर्वश्रेष्ठ विद्यालय में हो जाये।

एक सत्संग से सुमधुर संगीत की स्वरलहरी सड़क तक आती है। एक क्षत्रिय कुमार भी उसमें नियमित रूप से आता है। वह दौड़कर युवती के गीतों में रम जाता है। युवती की मुखाकृति आकर्षक नहीं है। उसके विवाह में यही बड़ी बाधा है। अनेक सजातीय युवक उसे देखकर ठुकरा चुके हैं। युवती व उसके माता-पिता बड़ी पीड़ा अनुभव कर रहे हैं। युवती केन्द्रीय विद्यालय में संगीत शिक्षिका बन गयी, फिर भी विवाह की समस्या बनी रही। उसी क्षत्रिय कुमार ने जाति-पाति तोड़कर युवती से विवाह कर लिया। पति-पत्नी दोनों शिक्षा व्यवसाय से उत्तम वेतन अर्जित करते हैं। उनकी पुत्री तो सुन्दर-स्वस्थ ठीक है। पुत्र की कामना भी पूर्ण हो गयी। पर वह अपंग हुआ। पति-पत्नी दोनों इस विकलांग पुत्र पर सारा ध्यान देते, विपुल धन व्यय करते। उनकी वह गाने की पंक्ति “दुःख भरे दिन बीते रे भइया, अब सुख आयो रे’’ एकदम पल्टा खाकर “सुख भरे दिन बीते रे भइया, अब दुःख आयो रे’’ में बदल गयी।

इनमें से कोई घटना काल्पनिक नहीं सब वास्तविक हैं। भारत में इनका प्रतिशत अत्यल्प है, जबकि सुनियोजित सुशोभित-सुमोदित विवाह ही सर्वांश में होते हैं और विभिन्न देशों के कतिपय जोड़े अपना विवाह वैदिक रीति-रीवाज से कराने के लिए भारत आते हैं। ऐसा इसलिये है कि एक नहीं अनेक ऋषियों की यथा ऋषिका सूर्या सावित्री (ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 85) की वेदवाणियाँ यहाँ वैदिक काल से अब तक गुञ्जायमान होती चली आ रही हैं और जिन्हें विवाह बन्धन के यज्ञ-संस्कार में वर-वधू ही नहीं, अब भी समाज के उपस्थित स्त्री-पुरुष सुनते चले आ रहे हैं, जिनमें गृहस्थाश्रम में पति-पत्नी सदा साथ रहें, अपनी पूर्ण आयु को प्राप्त करें, कभी विभक्त न हों, नाती-पोतों बाल-बालिकाओं की आंगन में होने वाली क्रीड़ाओं के साथ मोद-मगन प्रसन्न रहें। अब हम पूर्व के सूर्याभिलाषी लोग पश्‍चिम का अन्धानुकरण करते हुए अपने को आधुनिक डी.जे., ड्रिंक, डान्स व डिनर के फेर में पड़कर वैदिक फेरों के सन्देश की अनसुनी करके विकृतियों के विष में घिरते चले जा रहे हैं। इस सब कुछ के होते हुए भी, अब भी यदि हम विवाह की प्रदक्षिणाओं व प्रतिज्ञाओं को सुनने-समझने का अवसर निकाल लेते हैं, तो भी पश्‍चिम की कलुष कालिमा से सन्तानों को बचाये रहने की दिशा उन्हें दे सकते हैं।

भारत विकास परिषद के राष्ट्र स्तरीय अग्रणी नायक गाजियाबाद निवासी श्री सुरेशचन्द्र जी ने अमेरिका यात्रा से लौटकर जो अनुभव बताये, वे आँख खोल देने वाले हैं। वहाँ प्रतिवर्ष जो विवाह होते हैं, उसके आधे से अधिक विवाह विच्छेद हो जाते हैं। ऐसे युवक-युवतियों की वहाँ कमी नहीं, जो बिना विवाह साथ रहते हैं। इनकी सन्तान उत्पत्ति भी जारी रहती है। तनिक से मनमुटाव से दोनों पृथक् हो जाते हैं और सन्तान के पालन-पोषण का बोझ माता को ही उठाना पड़ता है। किञ्चित् समर्थ होने पर माता भी उसे छोड़ देती है और किसी अन्य पुरुष के साथ चली जाती है। करोड़ों बच्चों को यह पता ही नहीं होता कि उनके पिता कौन हैं?
एक बहिन ब्रिटेन से लौट कर आयीं। उन्होंने वहाँ की बहुत सारी बातें बताई। बोली कि वहाँ बलात्कार नहीं होते। मैं वहाँ की इस सच्चरित्रता पर प्रसन्न होता, उससे पहले ही उन्होंने अपने अगले वाक्य से ही उसे भू-लुण्ठित कर दिया। वह बोली कि भारत में तो स्वागतार्थ भी स्त्री-पुरुष हाथ से हाथ नहीं मिलाते हैं, वहाँ वे गात से गात मिलाने में भी संकोच नहीं करते।

हमारी कालोनी में एक कुतिया ने कई बच्चे दिये। वे एक दम काले रंग व सफेद चकत्ते वाले हैं। ठीक वैसे ही रूप का उनका जनक कुत्ता कुछ दिन तो यहाँ दिखाई दिया, फिर लुप्त हो गया। उनकी जननी के स्तनों में जब तक दूध रहा, वह उन्हें पिलाती रही। अब वे जनक-जननी व कई पिल्ले सब इधर-उधर हो गये, उनमें से केवल दो ही यहाँ बड़े होकर स्वान (कुत्ते) बन रहे हैं और पश्‍चिम की खुली भोग लिप्सा का भान करा रहे हैं। मनुष्य जिसे अच्छा समझता है, उसका अनुकरण करने लगता है। वह ऊपरी आकर्षण में उलझकर अपनी संस्कृति को भूल बैठता है।

औपचारिकता से जिन्हें महामहिम कहते हैं, वैचारिक रूप से क्या कहें, यह आप ही सोचिये। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और मॉडल कार्ला ब्रूनी की 2008 में अन्तरराष्ट्रीय सुखियाँ बटोरने वाली शादी ने अभी-अभी अन्तिम साँसें गिनी हैं। वैसे इटली की पूर्व सुपर मॉडल कार्ला ने पहले ही कहा था कि वह बहुत जल्द ‘एक ही आदमी से बोर’ हो जाती है। कार्ला को बेंजामिन बोयले से प्यार हो गया है और राष्ट्रपति का दिल भी जुआनो पर आ गया है। विश्‍व के सर्वाधिक विकसित देश अमेरिका के शक्तिमान वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा के माता-पिता कुछ ही वर्षों तक विवाह-बन्धन में रह पाये थे। अलग होने के बाद पिता वापस केन्या चले गये थे। वहाँ उनकी दूसरी शादी हुई थी। सन्तानें हुई थीं। इधर माँ ने भी इण्डोनेशिया के एक आदमी से शादी कर ली थी। बराक अपनी माँ व सौतेले पिता के साथ इंडोनेशिया में रहे भी थे। बाद में उन्हें नाना-नानी के पास अमेरिका भेज दिया गया था। थोड़े समय बाद उनकी माँ भी दूसरे पति से अलग होकर अमेरिका आ गयी थीं। उनके पिता भी कुछ समय के लिए उनके साथ रहने के लिए केन्या से आये। बराक ओबामा की माँ उनके सौतेले पिता के असर को बचाकर उनके सगे पिता के कर्मठ, ईमानदार, सिद्धान्तप्रियता के गुण ही उन्हें देना चाहती थीं। परिणामतः बराक ओबामा ने ‘ड्रीम्स फ्राम भाई फादर’ (पिता से मिले सपने) नामक पुस्तक लिखी। यहाँ भी जीत भारतीय मूल्यों की दिखाई देती है कि सन्तान अपने मौलिक माता-पिता की ही प्रस्तुति होती है। भारत लौट आएये! मिलिये पूर्व राष्ट्रपति महामहिम डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से जिनकी ’एक नाम सीढ़ी चमकाती चार पीढ़ी’ वैवाहिक संस्कारिता को चरितार्थ करती दिखाई देती हैं। विवाह के तीन उद्देश्य धर्म-सन्तति-रति हैं। वैज्ञानिक धर्म का पालन करने के कारण कन्या के पिता का प्रस्ताव जहाँ तय होना था, वहाँ पहुंचने में उन्हें देर हो गई। बात टल गई तो टल गई, पर उन्हें अटल यशस्वी भारत-रत्न बना गई, जो सर्वत्र बाल संस्कार सृजनार्थ माता-पिता-शिक्षक का महिमामण्डन करते दिखाई देते हैं। - पं. देवनारायण भारद्वाज

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