विनायक दामोदर सावरकर ने सन् 1911 में अण्डमान (कालापानी) की जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे। तेल पेरने जैसे मशक्कत के कठोर काम से छूट मिलते ही वे कैदियों को हिन्दी सिखाने के काम में लग जाते थे। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकें मंगवाई तथा उन्हें जेल के पुस्तकालय में रखवाया, जिससे कैदी रामायण, गीता तथा अन्य हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन कर सकें।
एक दिन सावरकर जी ने गैर हिन्दी भाषी अपने साथी बन्दियों के बीच कहा- “बंगला, मराठी, तेलगू आदि सभी भाषाएँ प्रान्तीय हैं। उनका विशेष महत्व है। किन्तु तमाम भारत को अटक से लेकर कटक तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की सामर्थ्य केवल हिन्दी भाषा में है। बद्रीनाथ-केदारनाथ तीर्थयात्रा के लिये आने वाले दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी सहजता से समझ लेते हैं। संस्कृत के शब्दों की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में बहुतायत है। संस्कृत हिन्दी तथा अन्य अनेक भाषाओं की जननी है। इसलिए हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा कहलाये जाने की क्षमता रखती है।’’
एक दिन जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट बारी ने कुछ बन्दियों को बरगलाया कि सावरकर हिन्दी की आड़ में बंगाली, पंजाबी आदि को खत्म करना चाहते हैं। सावरकर जी ने उन्हें समझाया कि “मैं स्वयं मराठी भाषी हूँ, फिर भी हिन्दी के महत्व को समझता हूँ। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा।’’ उन्होंने हिन्दी पढ़ानी जारी रखी।
सन् 1915 में सावरकर जी के भाई बाल ने उन्हें कुछ पत्र-पत्रिकाएं व साहित्य भेजा। एक पत्रिका में ’आन्ध्र माता की जय’ शीर्षक देखकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा- “इस प्रकार की प्रान्तीयता की भावना से राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। हम सब मराठियों, बंगालियों, तमिल वासियों सभी को अपने-अपने प्रान्तों पर गर्व करते हुए हिन्दी को एकता का सूत्र मानकर ‘भारत-राष्ट्र’ की भावना पुष्ट करनी चाहिए। हमें ‘बंग आमार’ की जगह ‘हिन्दी आमार’ का गीत गाना चाहिए।’’
‘महाराष्ट्र में केवल ‘मराठी चलेगी’ का दुराग्रह करने वालों को महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर जी के उपरोक्त विचारों से शिक्षा होनी चाहिए। - शिवकुमार गोयल
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