यो रूमदेशाधिपति शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनी महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोचयत्यहो स विक्रमार्कः समसहयाचिक्रमः॥ (ज्योतिविर्दाभरण - नामक ज्योतिष ग्रन्थ 22/ 17 से)
यह श्लोक स्पष्टतः यह बता रहा है कि रूमदेशाधिपति रोम देश के स्वामी शकराज (विदेशी राजाओं को तत्कालीन भाषा में शक ही कहते थे, तब शकों के आक्रमण से भारत त्रस्त था) को पराजित करके विक्रमादित्य ने बन्दी बना लिया और उसे उज्जैनी नगर में घुमाकर छोड़ दिया था।
यही वह शौर्य है जो पाश्चात्य देशों के ईसाई वर्चस्व वाले इतिहासकारों को असहज कर देता है और इससे बच निकलने के लिए वे एक ही वाक्य का उपयोग करते हैं- ‘यह मिथक है’ या ‘यह सही नहीं है’..। उनके साम्राज्य में पूछे भी कौन कि हमारी सही बातें गलत हैं तो आपकी बातें सही कैसे हैं..? यही कारण है कि आज जो इतिहास हमारे सामने है वह भ्रामक और झूठा होने के साथ-साथ योजनापूर्वक कमजोर किया गया इतिहास है। पाश्चत्य इतिहासकार रोम की इज्जत बचाने और अपने को बहुत बड़ा बताने के लिए चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को भी नकारते हैं। मगर हमारे देश में जो लोक कथाएं, किम्वदन्तियाँ और मौजूदा तत्कालीन साहित्य है वह बताता है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण के बाद कोई सबसे लोकप्रिय चरित्र है तो वह सम्राट विक्रमादित्य का है। वे लोक नायक थे । उनके नाम से ही विक्रम सम्वत हैं। बेताल पच्चीसी और सिंहासन बतीसी का यह नायक, भास्कर पुराण में अपने सम्पूर्ण वंश वृक्ष के साथ उपस्थित है । विक्रमादित्य परमार वंश के राजपूत थे। उनका वर्णन सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में भी है । उनके वंश के कई प्रसिद्ध राजाओं के नाम पर चले आ रहे नगर व क्षेत्र आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं ..!! जैसे देवास, इन्दौर, भोपाल, धार और बुन्देलखण्ड नामों का नामकरण विक्रमादित्य के ही वंशज राजाओं के नाम पर है ।
कई इतिहासकार चन्द्रगुप्त द्वितीय को भी विक्रमादित्य सिद्ध करने कि कोशिश करते हैं, यह भी गलत है। क्योंकि शकों के आक्रमण कई सौ साल तक चले हैं और उनसे अनेकों भारतीय सम्राटों ने युद्ध किये और उन्हें वापस भी खदेड़ा। बाद के कालखण्ड में किसी एक शक शाखा को चन्द्रगुप्त ने भी पराजित किया था। तब उनका सम्मान विक्रमादित्य के अलंकार से किया गया था । क्योंकि उन्होंने मूल विक्रमादित्य जैसा कार्य कर दिखाया था । मूल या आदि विक्रमादित्य की पदवी तो शकारि और साहसांक थी । वे उज्जैनी के राजा थे ।
विक्रम और शालिवाहन सम्वत- वर्तमान भारत में दो सम्वत प्रमुख रूप से प्रचलित हैं, विक्रम सम्वत और शक-शालिवाहन सम्वत । दोनों सम्वतों का सम्बन्ध शकों की पराजय से है । उज्जैन के पंवार वंशीय राजा विक्रमादित्य ने जब शकों को सिन्ध के बाहर धकेलकर महान विजय प्राप्त की थी, तब उन्हें शकारि की उपाधि धारण करवाई गई थी तथा तब से ही विक्रम सम्वत का शुभारम्भ हुआ । विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात शकों के उपद्रव पुनः प्रारम्भ हो गए, तब उन्हीं के प्रपौत्र राजा शालिवाहन ने शकों को पुनः पराजित किया और इस अवसर पर शालिवाहन सम्वत प्रारम्भ हुआ, जिसे हमारी केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय सम्वत माना है, जो कि सौर गणना पर आधारित है ।
सम्राट विक्रमादित्य- उज्जैनी के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के महान साम्राज्य क्षेत्र में वर्तमान भारत, चीन, नेपाल, भूटान, तिब्बत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, कजाकिस्तान, अरब क्षेत्र, इराक, इरान, सीरिया, टर्की, म्यांमार, दोनों कोरिया, श्रीलंका इत्यादि क्षेत्र या तो सम्मिलित थे अथवा सन्धिकृत थे । उनका साम्राज्य सुदूर बालि दीप तक पूर्व में और सऊदी अरब तक पश्चिम में था। Sayar-U -Oknu Makhtal-e-Sultania / Library in Istanbul, Turky के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने अरब देशों पर शासन किया है, अनेकों दुर्जेय युद्ध लडे और सन्धियाँ की।
यह सब इसलिए हुआ कि भारत में किसी भी राजा के सामर्थ्य के अनुसार राज्य विस्तार की परम्परा थी, जो अश्वमेध यज्ञ के नाम से जानी जाती थी । उनसे पूर्व में भी अनेकों राजाओं के द्वारा यह होता रहा है। राम युग में भी इसका वर्णन मिलता है। कई उदाहरण बताते हैं कि विक्रमादित्य की अन्य राज्यों से सन्धियाँ मात्र कर प्राप्ति तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन राज्यों में समाज सुव्यवस्था, शिक्षा का विस्तार, न्याय और लोक कल्याण कार्यों की प्रमुखता को भी सन्धिकृत किया जाता था। अरब देशों में उनकी कीर्ति इसीलिए है कि उन्होंने वहाँ व्याप्त तत्कालीन अनाचार को समाप्त करवाया था । वर्त्तमान ज्ञात इतिहास में विक्रम जितना बड़ा साम्राज्य और इतनी विजय का कोई समसामयिक रिकार्ड सामने नहीं आता है सिवाय ब्रिटेन की विश्व विजय के । सिकन्दर जिसे कथित रूप से विश्व विजेता कहा जाता है, विक्रम के सामने वह बहुत ही बौना था। उसने सिर्फ कई देशों को लूटा, शासन नहीं किया। उसे लुटेरा ही कहा जा सकता है। एक शासक के जो कर्तव्य हैं उनकी पूर्ति का कोई इतिहास सिकन्दर का नहीं है । जनश्रुतियाँ हैं कि विक्रम की सेना के घोड़े एक साथ तीन समुद्रों का पानी पीते थे ।
विक्रमादित्य तो एक उदाहरण मात्र है। भारत का पुराना अतीत इसी तरह के शौर्य से भरा हुआ है। भारत पर विदेशी शासकों के द्वारा लगातार राज्य शासन के बावजूद निरन्तर चले भारतीय संघर्ष के लिए यही शौर्य प्रेरणाएं जिम्मेदार हैं। भारत पर शासन कर रही ईष्ट इण्डिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार ने उनके साथ हुए कई संघर्ष और 1857 में हुई स्वतन्त्रता क्रान्ति के लिए भारतीय शौर्य को ही जिम्मेवार माना और उससे भारतीयों को विस्मृत करने का कार्यक्रम संचालित हुआ, ताकि भारत की सन्तानें पुनः आत्मोत्थान न कर सकें । एक सुनियोजित योजना से भारतवासियों को हतोत्साहित करने के लिए प्रेरणाखण्डों को लुप्त किया गया, उन्हें इतिहास से निकाल दिया गया, उन अध्यायों को मिथक या कभी अस्तित्व में नहीं रहे, इस तरह की भ्रामकता थोपी गई ।
अरबी और यूरोपीयन इतिहासकार श्रीराम, श्रीकृष्ण और विक्रमादित्य को इसी कारण लुप्त करते हैं कि भारत का स्वाभिमान पुनः जाग्रत न हो, उसका शौर्य और श्रेष्ठता पुनः जम्हाई न लेने लगे । इसीलिए एक जर्मन इतिहासकार पाक़ हेमर ने एक बड़ी पुस्तक ‘इण्डिया - रोड टू नेशनहुड’ लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि जब मैं भारत का इतिहास पढ़ रहा हूँ, तो लगता है कि भारत की पिटाई का इतिहास पढ़ रहा हूँ, भारत के लोग पिटे, मरे, पराजित हुए, यही पढ़ रहा हूँ! इससे मुझे यह भी लगता है कि यह भारत का इतिहास नहीं है। पाक हेमर ने आगे उम्मीद की है कि जब कभी भारत का सही इतिहास लिखा जायेगा, तब भारत के लोगों में, भारत के युवकों में, उसकी गरिमा की एक वारगी (उत्प्रेरणा) आयेगी।
अर्थात हमारे इतिहास के लेखन में योजनापूर्वक अंग्रजों ने उसकी यशश्विता को निकाल बाहर किया, उसमें से उसके पुरुषार्थ को निकाल दिया, उसके मर्म को निकाल दिया, उसकी आत्मा को निकाल दिया। महज एक मरे हुए शरीर की तरह मुर्दा कर हमें पारोस दिया गया है । जो कि झूठ का पुलिन्दा मात्र है।
भारत अपने इतिहास को सही करे - वस्तुतः अंग्रेजों के द्वारा लिखा गया या लिखाया गया इतिहास झूठा है तथा इसका पुनः लेखन होना चाहिए। इसमें हजारों वर्षो का इतिहास छूटा हुआ है तथा कई बातें वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं। विश्व के कई देशों ने स्वतन्त्र होने के बाद अपने देश के इतिहास को पुनः लिखवाया है और उसे सही करके व्यवस्थित किया है। भारत को अपना इतिहास भी सही करना चाहिए।
बहुत कम है भारतीय इतिहास - भारत का नई दिल्ली स्थित संसद भवन, विश्व का ख्याति प्राप्त विशाल राजप्रासाद है। जब इसे बनाने की योजना बन रही थी, तब ब्रिटिश सरकार ने एक गुलाम देश में इतने बड़े राज प्रासाद के निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया था । इतने विशाल और भव्य निर्माण की आवश्यकता क्या है? तब ब्रिटिश सरकार को बताया गया कि भारत कोई छोटा-मोटा देश नहीं है, यहाँ सैंकड़ों बड़ी-बड़ी रियासतें हैं और उनके राजप्रासाद भी बहुत बड़े बड़े तथा विशालतम है। उनकी भव्यता और क्षेत्रफल भी असामान्य रूप से विशालतम हैं ! उनको नियन्त्रित करने वाला राजप्रासाद कम से कम इतना बड़ा तो होना चाहिए कि वह उनसे श्रेष्ठ न सही तो कम से कम समकक्ष तो हो। इसी तथ्य के आधार पर भारतीय संसद भवन के निर्माण की स्वीकृति मिली !
अर्थात जिस देश में लगातार हजारों राजाओं का राज्य एक साथ चला हो, उस देश का इतिहास महज चन्द अध्यायों में पूरा हो गया? क्षेत्रफल, जनसंख्या और विगत विशाल अतीत के आधार पर यह इतिहास महज राई भर भी नहीं है! न ही ऐतिहासिक तथ्य हैं, न ही स्वर्णिम अध्याय, न हीं शौर्य गाथाएं । सब कुछ जो भारत के मस्तक को ऊँचा उठाता हो, वह गायब कर दिया गया या नष्ट कर दिया गया।
इस्लाम के आक्रमण ने लिखित इतिहास जलाये - यह एक सच और निर्विवाद तथ्य है कि इस्लाम ने जन्मते ही विश्वविजय की आन्धी चलाई, उससे एक तरफ यूरोप और दूसरी तरफ पूर्व एशिया गम्भीरतम प्रभावित हुआ, जो भी पुराना लिखा था उसे जलाया गया। बड़े बड़े पुस्तकालय नष्ट कर दिए गए । परन्तु जनश्रुतियों में इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा बचा हुआ था। जागा-भाट परम्परा ने भी इतिहास को बचाकर रखा था। मगर इतिहास संकलन में इन पर गौर ही नहीं किया गया ।
राजपूताना का इतिहास लिखते हुए कर्नल टाड कहते हैं कि जब से भारत पर महमूद (गजनी) द्वारा आक्रमण होना प्रारम्भ हुआ, तब से मुस्लिम शासकों ने जो निष्ठुरता, धर्मान्धता दिखाई, उसको दृष्टि में रखने पर बिलकुल आश्चर्य नहीं होता कि भारत में इतिहास के ग्रन्थ बच नहीं पाए। इस पर से यह असम्भवनीय अनुमान निकालना भी गलत है कि हिन्दू लोग इतिहास लिखना जानते नहीं थे। अन्य विकसित देशों में इतिहास लेखन की प्रवृति प्राचीन काल से पाई जाती थी, तो क्या अति विकसित हिन्दू राष्ट्र में वह नहीं होगी ? उन्होंने आगे लिखा है कि जिन्होंने ज्योतिष-गणित आदि श्रम साध्य शास्त्र सूक्ष्मता और परिपूर्णता के साथ अपनाये, वास्तुकला, शिल्प, काव्य, गायन आदि कलाओं को जन्म दिया, इतना ही नहीं उन विद्याओं को नियमबद्ध ढांचे में ढालकर उसके शास्त्र सम्मत अध्ययन की पद्धति सामने रखी, उन्हें क्या राजाओं का चरित्र और उनके शासनकाल में घटित प्रसंगों को लिखने का मामूली काम करना नहीं आता होगा।
हर ओर विक्रमादित्य- भारतीय और तत्सम्बन्धी विदेशी इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर भारतीय सम्वत, लोकप्रिय कथाओं, ब्राह्मण-बौद्ध और जैन साहित्य तथा जनश्रुतियों, अभिलेख (एपिग्राफी), मौद्रिक (न्युमीस्टेटिक्स) तथा मालव और शकों की संघर्ष गाथा आदि में उपलब्ध विभिन्न स्त्रोतों तथा उनमें निहित साक्ष्यों का परीक्षण सिद्ध करता है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व था। वे मालव गणराज्य के प्रमुख थे तथा उनकी राजधानी उज्जैनी थी। उन्होंने मालवा को शकों के अधिपत्य से मुक्त करवाया था और इसी स्मृति में चलाया सम्वत विक्रम सम्वत कहलाता है जो प्रारम्भ में कृत सम्वत, बाद में मालव सम्वत, सहसांक सम्वत और अन्त में विक्रम सम्वत के नाम से स्थायी रूप से विख्यात हुआ ।
धर्म युद्ध जैसा विरोध क्यों- डा. राजबली पाण्डेय जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पुरातत्व विभाग के प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने एक टिप्पणी में कहा है कि पाश्चात्य इतिहासकार और उनके भारतीय अनुचर विक्रमादित्य के नाम को सुनकर इस तरह से भड़क उठते हैं कि जैसे कोई धर्मयुद्ध का विषय हो। वे इतने दृढप्रतिज्ञ हो जाते हैं कि सत्य के प्रकाशमान तथ्यों को भी देखना और सुनना नहीं चाहते । डा. पाण्डेय ने विक्रमादित्य पर अंग्रेजी में कई खोजपरख लेख लिखे, जिन पर उन्हें राष्ट्रीय स्तर के सम्मान से भी पुरस्कृत किया गया तथा एक अनुसन्धानपरक पुस्तक विक्रमादित्य लिखकर यह साबित किया है कि विक्रमादित्य न केवल उज्जैन के सम्राट थे, अपितु वे एशिया महाद्वीप के एक बड़े भूभाग के विजेता और शासक थे ।
भविष्य पुराण में सम्वत प्रवर्तक- भविष्य पुराण में सम्वत प्रवर्तक विक्रमादित्य और सम्वत प्रवर्तक शालिवाहन का जो संक्षिप्त वर्णन मिलता है, वह इस प्रकार से है- अग्निवंश के राजा अम्बावती नामक पुरी (कालान्तर में यही स्थान उज्जैन कहलाया) में राज्य करते थे । उनमें एक राजा प्रमर (परमार) हुए, उनके पुत्र महामद ने तीन वर्षों तक, उनके पुत्र देवासि ने भी तीन वर्षों तक, उनके पुत्र देवदूत ने भी तीन वर्षों तक, उनके पुत्र गंधर्वसेन ने पचास वर्षों तक राज्य कर वानप्रस्थ लिया। वन में उनके पुत्र विक्रमादित्य हुआ उसने सौ वर्षों तक, विक्रमादित्य के पुत्र देवभक्त ने दस वर्षों तक, देव भक्त को शकों ने पराजित कर मार दिया, देवभक्त का पुत्र शालिवाहन हुआ और उसने शकों को फिर से जीत कर सात वर्षों तक राज किया। इसी पुराण में इस वंश के अन्य शासक शालिवर्द्धन, शकहन्ता, सुहोत्र, हविहोत्र, हविहोत्र के पुत्र इन्द्रपाल ने इन्द्रावती के किनारे नया नगर बसाया (जो इन्दौर के नाम से प्रसिद्ध है), माल्यवान ने मलयवती बसाई, शंकादत्त, भौमराज, वत्सराज, भोजराज, शम्भूदत्त, बिन्दुपाल ने बिन्दु खण्ड (बुन्देलखण्ड) का निर्माण किया। उसके वंश में राजपाल, महीनर, सोम वर्मा, काम वर्मा, भूमिपाल, रंगपाल, कल्प सिंह हुआ और उसने कलाप नगर बसाया (कालपी) उसके पुत्र गंगा सिंह कुरुक्षेत्र में निः संतान मर गए ।
400 वर्षों का लुप्त इतिहास- ब्रिटिश इतिहासकार स्मिथ आदि आन्ध्र राजाओं से लेकर हर्षवर्धन के राज्यकाल तक कोई एतिहासिक सूत्र नहीं देखते। प्रायः चार सौ वर्षों के इतिहास को घोर अन्धकारमय मानते हैं। पर भविष्य पुराण में जो वंश वृक्ष निर्दिष्ट हुआ है, यह उन्हीं चार सौ वर्षों के लुप्त काल खण्ड से सम्बद्ध है । इतिहासकारों को इससे लाभ उठाना चाहिए ।
भारत में विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसिद्ध, न्यायप्रिय, दानी, परोपकारी और सर्वांग सदाचारी राजा हुए हैं। स्कन्ध पुराण और भविष्य पुराण, कथा सप्तशती, बृहत्कथा, सिंहासन बत्तीसी, कथा सरितसागर, पुरुष परीक्षा आदि ग्रन्थों में इनका चरित्र आया है। बून्दी के सुप्रसिद्ध इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में परमार वंशीय राजपूतों का सजीव वर्णन मिलता है। इसी में वे लिखते हैं कि परमार वंश में राजा गन्धर्वसेन से भर्तहरि और विक्रमादित्य नामक तेजस्वी पुत्र हुए, जिनमें विक्रमादित्य नें धर्मराज युधिष्ठिर के कन्धे से सम्वत का जूड़ा उतार कर अपने कंधे पर रखा। कलिकाल को अंकित कर समय के सुव्यवस्थित गणितीय विभाजन का सहारा लेकर विक्रम सम्वत चलाया। वीर सावरकर ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि एक इरानी जनश्रुति है कि ईरान का राजा मित्र डोट्स जो तानाशाह हो अत्याचारी हो गया था, का वध विक्रमादित्य ने किया था और उस महान विजय के कारण विक्रम सम्वत प्रारम्भ हुआ ।
सम्वत कौन प्रारम्भ कर सकता है- यूं तो अनेकानेक सम्वतों का जिक्र आता है और हर सम्वत भारत में चैत्र प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है। मगर अपने नाम से सम्वत हर कोई नहीं चला सकता, स्वयं के नाम से सम्वत चलाने के लिए यह जरूरी है कि उस राजा के राज्य में कोई भी व्यक्ति कर्जदार नहीं हो। इसके लिए राजा अपना कर्ज तो माफ़ करता ही था तथा जनता को कर्ज देने वाले साहूकारों का कर्ज भी राजकोष से चुकाकर जनता को वास्तविक कर्ज मुक्ति देता था। अर्थात सम्वत नामकरण को भी लोक कल्याण से जोड़ा गया था, ताकि आम जनता का उपकार करने वाला शासक ही अपना सम्वत चला सके । सुप्रसिद्ध इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण की अभिव्यक्ति से तो यही लगता है कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर के पश्चात विक्रमादित्य ही वे राजा हुए जिन्होंने जनता का कर्ज अपने कन्धे पर लिया। इसी कारण उनके द्वारा प्रवर्तित सम्वत सर्वस्वीकार्य हुआ ।
5000 वर्ष पुरानी उज्जैनी- अवन्तिका के नाम से सुप्रसिद्ध यह नगर श्रीकृष्ण के बाल्यकाल का शिक्षण स्थल रहा है। सन्दीपन आश्रम यहीं है जिसमें श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा का शिक्षण हुआ था। अर्थात आज से कम से कम पांच हजार वर्षों से अधिक पुरानी यह नगरी है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि अग्निवंश के परमार राजाओं की एक शाखा का चन्द्र प्रद्योत नामक सम्राट ईस्वी सन के 600 वर्ष पूर्व सत्तारूढ़ हुआ अर्थात लगभग 2600 वर्ष पूर्व और उसके वंशजों ने तीसरी शताब्दी तक राज्य किया । इसका अर्थ यह हुआ कि 900 वर्षो तक परमार राजाओं का मालवा पर शासन रहा। तीसरी बात यह है कि कार्बन डेटिंग पद्धति से उज्जैन नगर की आयु ईस्वी सन से 2000 वर्ष पुरानी सिद्ध हुई है। इसका अर्थ हुआ कि उज्जैन नगर का अस्तित्व कम से कम 5000 वर्ष पूर्व का है। इन सभी बातों से साबित होता है कि विक्रमादित्य पर सन्देह गलत है ।
नवरत्न- सम्राट विक्रमादित्य की राज सभा में नवरत्न थे। ये नौ व्यक्ति तत्कालीन विषय विशेषज्ञ थे। इनमें संस्कृत काव्य और नाटकों के लिए विश्व प्रसिद्ध कालिदास, शब्दकोष (डिक्शनरी) के निर्माता अमर सिंह, ज्योतिष में सूर्य सिद्धान्त के प्रणेता तथा उस युग के प्रमुख ज्योतिषी वराह मिहिर थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी । इन नवरत्नों में आयुर्वेद के महान वैद्य धन्वन्तरि, घटकर्पर, महान कूटनीतिज्ञ वररुचि, बेताल भट्ट, संकु और क्षपनक जैसी द्विव्य विभूतियाँ थीं। बाद में अनेक राजाओं ने इसका अनुसरण कर विक्रमादित्य पदवी धारण की एवं नवरतनों को राजसभा में स्थान दिया। इसी वंश के राजा भोज से लेकर अकबर तक की राजसभा में नवरतनों का जिक्र है ।
बेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छन्दों की रचना नीति-प्रदीप (Niti-prad+pa सचमुच आचरण का दीया) का श्रेय दिया है।
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंह शंकू वेताळभट्ट घट कर्पर कालिदासाः।
ख्यातो वराह मिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥ - अरविन्द सिसोदिया (दिव्ययुग - अप्रैल 2016)
Vikramaditya is just an example. India's old past is full of similar valor. These heroic inspirations are responsible for the continuous Indian struggle in spite of continued state rule by foreign rulers over India.
Emperor Vikramaditya, the Originator of Vikram Era | Misleading and False | History was Systematically Weakened | Folk Tales | Contemporary Literature | Most Popular Character | Rule Over Arab Countries | Justice and Public Welfare | Bravery Inspirations | Self Respect | History of India | Conqueror and Ruler | Philanthropist and All Round Virtuous | State by Century | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Mandideep - Uthamapalayam - Dineshpur | दिव्ययुग | दिव्य युग