विशेष :

दयानन्द मानवता का संगीत

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Dayanand Humanitys Music

महान् पुरुष किसी उच्च विचार का साकार रूप होते हैं। महाराष्ट्र के लोग समर्थ गुरु रामदास को जिस भावना से पूजते हैं वह भावना छत्रपति शिवाजी से नहीं जोड़ी जा सकती। एक भक्ति का मूर्तरूप है तो दूसरा स्वाभिमान का। समर्थ रामदास को हम भक्ति का संगति कह सकते हैं तो छत्रपति शिवाजी को वीरता का उद्घोष।

बुद्ध वैराग्य की प्रतिमा है। पत्नी पर अन्तिम दृष्टि डालते हैं। जिगर के टुकड़े ने इसी रात ही तो उजाला देखा है। परन्तु भ्रम के इस उजाले पर यदि मोहित हो तो बुद्ध कौन बने?

राम पितृभक्ति की स्वयं आप उपमा है। कर्त्तव्य के मार्ग में तपस्या है। दुखियों की सहायता है, अत्याचारियों पर वज्र है।

कृष्ण नीति है, बुद्धिमत्ता है, व्यवहार कुशलता है और है सफलता का सूत्र। इस प्रकार जिस महापुरुष पर दृष्टि डालें वह गुणी नहीं साक्षात् गुण है। कुछ लोग उन्हें निराकार का अवतार कहते हैं। हम उन्हें निराकार सद्गुणों की साकार मूर्ति।

भक्ति प्रकाश में आना चाहती थी तो समर्थ रामदास बनी। वीरता को रूप रंग की इच्छा हुई तो उसे शिवा का रूप मिल गया। वैराग्य को बुद्ध का रूप मिला। न्याय का आधार श्रीराम बने। नीति का रूप श्रीकृष्ण।

दयानन्द किस विचार का चमत्कार था! कौन-सा सद्गुण स्पन्दित हुआ कि उसे दयानन्द के हृदय में जगह मिली। आहा! दयानन्द किस विशेषता का प्रतिरूप था, किस महत्ता का उत्तराधिकारी और किस उच्चता का द्योतक?

दयानन्द केवल भक्ति नहीं, केवल वीरता नहीं, स्वतन्त्र मान नहीं, पूजापाठ नहीं, न्यायप्रियता और विद्वत्ता नहीं, दयानन्द ये सब कुछ है। दयानन्द मानवता है। दयानन्द की बात को इसलिए न मानो कि यह दयानन्द का वचन है, अपितु इसलिए मानो कि तुम्हारी बुद्धि के अनुकूल है। अशुद्ध तथा अपवित्र बुद्धि के नहीं अपितु स्वच्छ और पैनी बुद्धि के अनुकूल। दयानन्द को इस बात का भय नहीं है कि कोई उससे बढ़ जायेगा। सयाने पिता की तरह उसे इस बात की प्रसन्नता है कि उसकी सन्तान उससे अधिक योग्य बन जाये।

मनुष्य की उन्नति की कोई सीमा नहीं है! उन्नति आध्यात्मिक हो या शारीरिक, असीम है। पूर्ण तो केवल परमेश्‍वर है। उससे नीचे कोई जो जहाँ जिस स्थान पर है, उसके लिए उन्नति का मार्ग खुला है।

परमात्मा और आत्मा- नास्तिकों ने परमात्मा की सत्ता मिटाना चाही। कहा कि हम हैं, परन्तु वो नहीं है। इधर वेदान्त का विषय ही परमात्मा की सत्ता था। परमात्मा न हो तो वेदान्त ही न रहे। उन्हें नास्तिकों की बात खटकी। नास्तिकों के विरोध में उन्होंने घोषणा की कि वह (ईश्‍वर) तो है परन्तु हम नहींहै। आत्मा की सत्ता एक भ्रम है। भ्रम मिट जाना स्वयं भ्रम का ब्रह्म बनना है। दोनों में प्रतियोगिता हुई और जीते भ्रम वाले। परन्तु विजयी होकर भ्रम और पक्का हो गया मिटा नहीं। न मिटा तो परमात्मा भी न हुआ। परिणाम ये निकला कि हम भी भ्रम हो गये और ब्रह्म भी भ्रम रह गया। दयानन्दी मानवता ने ये देखा तो उसका मन्यु जाग उठा, उसने दोनों को ललकारा और कहा कि दोनों का भ्रम मिथ्या है। दोनों की प्रतिज्ञा का स्वीकृति पक्ष सत्य है। मानवता है, इसका प्रमाण तुम्हारी हाँ और ना दोनों देती है। अपनी सत्ता को स्वीकार करो तो जिसको स्वीकार करो वो मानवता है। अपनी सत्ता से निषेध करो तो जिससे तुम्हें निषेध है वही मानवता है। स्वीकृति भी, अस्वीकृति भी, दोनों मानवता की स्वीकृति हैं। मानवता पूर्ण नहीं, उसकी सत्ता उसके अपूर्ण होने की स्वीकृति है। मानवता प्रयास है, प्रयास का फल नहीं। मानवता उन्नति का सोपान है, उन्नति की पराकाष्ठा नहीं। सोपान को पराकाष्ठा चाहिए। प्रयास को परिणाम चाहिए। अन्वेषण को लक्ष्य चाहिए। वो पराकाष्ठा, वो परिणाम, वो लक्ष्य परमात्मा है। यह अमूल्य मोती हाथ आयेगा? नहीं! हाथ बढ़ाते जाओ, पग बढ़ाने में खोज का आनन्द है। यात्रा का आनन्द ध्येय प्राप्ति में नहीं, यात्रा में ही है।

वेद में जीव को क्रतु कहा गया है अर्थात् कर्मशील। सौ वर्ष से भी अधिक जीने का आदेश है। किन्तु साथ ही कहा है, कर्म करता हुआ जीने की इच्छा कर अर्थात् जो क्षण कर्म के बिना व्यतीत होगा वो जीवन नहीं मृत्यु है।

नास्तिकों के सम्मुख कोई लक्ष्य नहीं था, इसलिए वो ठहर गये। जीव को ब्रह्म मानने वाले स्वयं को ही अपना लक्ष्य समझ बैठे थे। अतः बैठ रहे थे। जीव उन्नति की इच्छा रखता था, क्योंकि उसका स्वभाव प्रगति करना ही है। परन्तु उसके पग ठहरे हुए सिपाही का कालचिह्न (मार्कटाइम) थे। मानवता के संगीत ने स्वयं ब्रह्म होने का भ्रम भी मिटा दिया और ब्रह्म से निषेध का अज्ञान भी दूर किया। मानवता को प्रयास बनाया,चरम सीमा की खोज बनाया, न रुकने वाली प्रगति बनाया, सतत प्रयत्न बनाया।

मानवता एक है- मानवता के भी संघ थे। मनुष्य बाल की खाल उतारकर भी सन्तुष्ट न हुआ। अतः ख्याल की खाल उतारने लगा। मानवता गुण थी। मनुष्य ने उसके टुकड़े किए। कोई ब्राह्मण हुआ कोई शूद्र, कोई गोरा हुआ कोई काला, छूत-अछूत, पवित्र-अपवित्र लाखों समुदाय बन गये। मानवता को पीड़ा हुई कि मुझे काटा जा रहा है, स्वस्थ और पूर्ण देह पर शस्त्र चलाये जाते हैं। एक चीत्कार हुआ अत्याचार न करो, स्वयं अपने ऊपर दया करो। रूप चाहे लाख हों परन्तु मानवता एक है। मनुष्य जब तक मनुष्य है अछूत नहीं हो सकता। उसका परमात्मा से सीधा सम्बन्ध है। वो वेद पढ़ सकता है। परमेश्‍वर का अमृत पुत्र कहला सकता है। मानवता ब्राह्मण होकर वेद नहीं पढ़ती, वेद पढ़कर ब्राह्मण बनती है। गोरा वो है जिसका हृदय साफ है, विचार पवित्र हैं, वचन शुद्ध और आचरण पवित्र है। दिल साफ हो, रंग काला है तो क्या? खाक का पुतला है मटियाला है तो क्या? राम और कृष्ण दोनों सांवले थे। परन्तु मानवता का रंग गोरा था, अतः गोरा लक्ष्मण और गोरा बलराम उन दोनों की छाया के समान रहे।

मानवता की स्रोत स्त्री का सम्मान - दयानन्द ने विवाह नहीं किया। गृहस्थ न बना। स्त्रियों से दूर रहता था। मगर पुत्र तो एक स्त्री का ही था। स्त्री उसकी मानवता का एक अंग थी। कर्णवास में एक बुढ़िया उसके चरणों में आई और उपदेश चाहा। दयानन्द ने कहा गायत्री का जाप कियाकर, बुढ़िया चकित रह गई। स्त्रियाँ और मन्त्र? मानवता के पुतले की आँखों में आंसू आ गए। कहा, बलवानों ने अबला की कोमलता को दुर्बलता में बदल दिया। लगे हाथ उसे जीवन के अधिकारों से भी वंचित कर दिया। स्त्री मृदु है, सौम्य है। स्वयं परमात्मा भी मृदु है। ज्ञान भी मृदु है और सौम्य का सौम्य पर अधिकार है। स्त्री संस्कृति की पोषिका है और आज सांस्कृतिक परिवेश में हम उसे बाहर किये बैठे हैं। मानवता की वृद्धा माता! तू प्राचीन मानवता का अधिकार ले। वाक् और श्रद्धा के समान वेदवाणी पर अधिकार कर और उसके माधुर्य की सरिता संसार में बहा। किसी देवी ने समाधि में माथा टेका तो प्रायश्‍चित किया। दो दिन भूखे रहे। छोटी बच्ची को माथा झुकाकर प्रणाम किया। मानवता ने मानवता के स्रोत को पहचाना और उसके महत्व के सम्मान से स्वयं को सम्मानित और महत्वशाली बनाया।

स्वतन्त्रता और अनुशासन- दयानन्द स्वतन्त्रता का देवता है। वो स्वतन्त्रता को मानवता का प्रथम अधिकार मानता है। पशु बन्धन से वश में आता है, मनुष्य उन्मुक्त होने से। उसका बन्धन उसकी स्वतन्त्रता की भूमिका है। बच्चे को उंगली से पकड़ते हैं इसलिए कि उठ सके। सिधाना-सिखाना स्वतन्त्र मानवता का राजपथ है। उच्छृफल होना स्वतन्त्रता नहीं। न ही जंजीरों में बान्धना शिक्षा का साधन है। स्वतन्त्रता में बन्धन है और बन्धन में स्वतन्त्रता है। दयानन्द का परमात्मा अपने नियमों में आबद्ध है। वह किसी उच्छृफल परमात्मा का उपासक नहीं। दुष्टों के लिए नियम बन्धन हैं परन्तु सज्जनों के लिए नियम स्वतन्त्रता हैं। स्वतन्त्र मानवता नियम बनाती है और नियम के अधीन रहती है। उसकी दृष्टि में नियम भंग पतन है। शिक्षित आत्मा स्वभावतः स्वतन्त्र है और नियम पालन उसका स्वभाव है।

तपस्या, विश्राम? - लोग नई सभ्यता पर मोहित हैं। दयानन्द ने प्राचीन सभ्यता को पुकारा, आ! वो पर्वतों से निकली और तपस्या बन गई। संसार ने शारीरिक सुखों को सभ्यता समझा था। उसने तपस्या की पराकाष्ठा प्रस्तुत की और कहा कि वास्तविक सभ्य वनों में रहते हैं। पर्वत जंगलियों के घर नहीं, सभ्य लोगों की कुटिया है।

राजाओं का राजा- स्वामी राजाओं का राजा था। उदयपुर के राणा आते हैं तो धरती पर बैठते हैं। क्योंकि गुरु के सम्मुख शिष्य का आसन धरती ही है। परन्तु गुरु की सरलता देखिये। भ्रमण से लौट रहे हैं। गाड़ीवान की गाड़ी कीचड़ में धंस गई है। निकाले नहीं निकलती। मेरा कुन्दन जैसा स्वामी कीचड़ में उतरता है और बैलों को खोलकर स्वयं गाड़ी खींचता है। इस सभ्यता के न्यौछावर और इस मानवता के बलिहार! सरवरे कायनात ने तो संसार को सताने में अपना बड़प्पन जाना। मेरे मानव संन्यासी ने कहा कि नहीं! बड़प्पन रक्षा करने में है। राष्ट्रीय कार्यों में विद्वानों का गुरु, सामाजिक क्षेत्र में समाज का पथ प्रदर्शक, उद्योग-धन्धों में उद्योगपतियों का मार्गदर्शक, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के सम्बन्ध में गोखले का भी नेता कौन था? वही मानवता का संगीत है, जिसे दयानन्द कहते हैं।

शरीर? आत्मा? - कोई शरीर को सुखाता था, कोई शरीर को जलाता था। शरीर का घटना आत्मा की उन्नति समझा जाता था। उधर कोई-कोई अपनी इन्द्रियों को ही आत्मा बता रहा ता। शारीरिक सुखों को आत्मिक आनन्द का पर्याय बतला रहा था। एक ओर सुख का दर्शन था तो दूसरी ओर दुःख का। पहले को पढ़ा तो प्रसन्न हो गये। दूसरे का अध्ययन किया तो आंसू बहा दिये। मिठास बढ़ते-बढ़ते कड़वी हो गई। दर्द पराकाष्ठा पर पहुंचा तो दवा बन गया। मिठास का इच्छुक मिठास से वंचित रहा और पीड़ा का अभ्यस्त पीड़ा से। शान्ति न यहाँ थी न वहाँ थी। मानवता की तार हिली, उससे तान निकली। शरीर आत्मा का कवच है। इन्द्रियाँ शस्त्र हैं। उनके बिना न शत्रुओं से युद्ध हो सकता है और न व्यक्तित्व की सुरक्षा। शारीरिक कोमलता आत्मा की स्वच्छता नहीं। घटाने का नाम क्यों लेते हो दोनों को बढ़ाओ। भीतर की आँखें बाहर के नेत्रों की अपेक्षा रखती हैं। उपनेत्र लगाना विद्वत्ता का सूचक नहीं। सूखी हड्डियों से तपस्या क्या होगी। मेरे स्वामी ने एक हाथ से बग्घी को रोका और दूसरे से दिल को। पहलवान उसके बलिष्ठ भुजाओं को न झुका सके तो वेश्या उसके मन को न झुका सकी।

व्यष्टि? समष्टि? - लोग संसार से मुख मोड़ते और ईश्‍वर से नाता जोड़ते हैं जैसे ईश्‍वर संसार से दूर है। किसी कुटिया में बन्द है, नगर में नहीं रहता। निवृत्ति रखता है, प्रवृत्ति नहीं। स्वामी ने नदी के तट से मन हटाया, पर्वतों की गुहाओं से आसन उठाया कि यहाँ तरंगें हैं, सर-सर है। मन की एकाग्रता नहीं रहती। अपने मन को कुटी में स्थिर किया, न कोई दूसरा होगा न एकाग्रता मिटेगी। समाधि के आनन्द लिये, आत्मा ने आत्मा को देखा। आनन्द हुआ, शान्ति हुई। परन्तु पूर्णरूपेण परमेश्‍वर के दर्शन न हुए। नगरों से शोर उठा इधर आओ, खेतों से आवाज आई हमें देखो, यहाँ परमात्मा है। व्यवसायी के व्यवसाय, कृषक की खेती, राजाओं का राज, सन्तों की मस्ती किसके कारण से है। आज तक विश्राम करने वाले परमात्मा को देखा है तो काम करने वाले परमात्मा को भी देख। निठल्ले के दर्शन किए हैं तो व्यस्त के भी कर। मौन की समाधि लगाई है तो कोलाहल की समाधि भी लगा। इस कोलाहल में भी एकाग्रता है।

स्वतन्त्र? परतन्त्र? - स्वतन्त्र और परतन्त्र की भी एक पहेली थी जिसे कोई न बुझाता था। एक बुझारत थी जो किसी की समझ न आती थी। यहाँ घोड़े के बिना गाड़ियाँ चलती थी। समुद्र राजमार्ग बन गये थे। लोग हवा में उड़ते थे। आवाजें दौड़ती थीं। अब की बार के पार की वस्तु कन्धार के पार न थी। मनुष्य की दृष्टि पर्वतों को चीर गई थी। सब कहते थे मनुष्य स्वतन्त्र है। प्रकृति सेविका है मनुष्य स्वामी है। परन्तु फोड़ा निकला और अच्छा न हुआ। घाटा पड़ा और पूरा न हो सका। मृत्यु आई और टाले न टली। जब प्रयासों में असफलता देखी तो झट बोले मनुष्य परतन्त्र है और भाग्य के भरोसे निकम्मे हो बैठे। कभी पुरुषार्थ सूझा तो जीतोड़ परिश्रम किया। इस प्रकार जीवन दो विरोधों का संगम हो गया।

मानवता की पहेली का समाधान मानवता रहती है। और कहा कि कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र। सर्वशक्तिमान् परमेश्‍वर के कुछ नियम हैं। उसके अधीन हम हैं तथा अनादि और अनन्त हैं। पुण्य का आदेश भगवान् करते हैं, परन्तु आचरण करने का बोझ हम पर है। कर्म करना जीव का स्वभाव है। पुण्य-पाप का अन्तर परमेश्‍वर की कृपा से पता लगता है। इसके पश्‍चात् हमारी पसन्द है हम जिधर हो लें। बुराई भी भगवान् के पल्ले मढ़ना और भलाई भी, यह सर्वशक्तिमान की महिमा को बढ़ाता नहीं। पुण्य और पाप सदा से थे, क्योंकि जीव सदा था। यदि जीव का आरम्भ हो तो परमात्मा उससे पहले होगा, तब पाप कहाँ से आ गया। जीव की स्वतन्त्रता अनादिकाल से है जैसे उसकी परतन्त्रता अनादिकाल से है। कर्म वह अपनी इच्छा से करता है। परन्तु फल पाने में उसकी इच्छा नहीं पूछी जाती। वर्तमान जीवन के दुःख जीव के पूर्व जीवन के कर्मों के फल हैं। जो हमने बोया है उसका फल हमें हर मूल्य पर काटना होगा। अतः वर्तमान जीवन के दुःखों को प्रसन्नता से सहना और भविष्य के लिये शुभ कर्मों की खेती करना ये जीव की परतन्त्रता और स्वतन्त्रता दोनों हैं। दोनों में वीरता है और दोनों में मानवता।

आवागमन का दर्शन हमें आलसी नहीं बनाता, निराशा नहीं पैदा करता। ये दर्शन हमें साहस और वीरता देता है। भाग्य के आगे हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना और पुरुषार्थ के पांव में जंजीर डाल देना ये मानवता के संगीत के विरूद्ध है। उसने स्वतन्त्रता और परतन्त्रता के स्वर के आरोह-अवरोह को एक किया और राग का सुर मिला दिया।

सरगम
1. दयानन्द परमात्मा न था, ये नीचा सुर था। दयानन्द परमात्मा का प्रतिनिधि था जैसे हम हैं, ये ऊंचा सुर था।
2. दयानन्द पूर्ण न था, ये नीचा सुर था। दयानन्द पूर्णता का प्रयास था, ये ऊंचा सुर था।
3. दयानन्द ने ब्राह्मण को मनुष्य कहा, ये नीचा सुर था। दयानन्द ने शूद्र को ब्राह्मण बनाया, ये ऊंचा सुर था।
4. दयानन्द ने पुरुष को पुरुष कहा, ये नीचा सुर था। दयानन्द ने स्त्री को पुरुष की माता बताया, ये ऊंचा सुर था।
5. दयानन्द ने तपस्या को सभ्यता कहा, ये कठोर सुर था। दयानन्द ने शरीर को आत्मा का कवच कहा, ये कोमल सुर था।
6. दयानन्द व्यक्ति हुआ, ये पतला सुर था। दयानन्द समाज बन गया, ये मोटा सुर था।
7. दयानन्द फल भोगने में परतन्त्र रहा, ये मद्धिम सुर था। दयानन्द कर्म करने में स्वतन्त्र था, ये ऊंचा सुर था।

संगीत क्या था पूरी सरगम थी। दयानन्द ने ये संगीत सुना, गाया और स्वयं संगीत बन गया। हम संगीत विद्या में सिद्धहस्त नहीं हैं। इसलिए पूरा ताल नहीं समझे। इस विद्या में जानकार आएं और संगीत को पहिचानें तथा अपनी समझ के अनुसार मानवता के पुतले दयानन्द का गीत गायें। - पं. चमूपति (दिव्ययुग - मार्च 2010)

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