क्रान्तिकारी सोहनलाल पाठक लाहौर के डी. ए.वी. कॉलेज में अध्यापन कार्य करते थे। एक दिन अंग्रेज विद्यालय निरीक्षक मि. क्रास निरीक्षण के लिए कॉलेज आए । श्री पाठक ने उनके समक्ष आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक छात्र से भारतीय शहीद के जीवन से सम्बन्धित कविता सुनवा दी। उन्होंने अंग्रेज अधिकारी के समक्ष जैसे ही कहा कि भारतीयों को अपने धर्म तथा देश की संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान देना आता है, अधिकारी उनसे कुपित हो उठा। श्री पाठक ने अगले ही दिन शिक्षक पद से त्यागपत्र दे दिया।
श्री पाठक ने संकल्प लिया कि वे देश की स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान देकर आदर्श उपस्थित करेंगे। वे थाईलैण्ड तथा हांगकांग होते हुए अमेरिका जा पहुंचे। अमेरिका में उन दिनों भाई परमानन्द जी भारत की स्वाधीनता के लिए सक्रिय थे। भाई जी के क्रान्तिकारी जीवन ने श्री पाठक को प्रभावित किया। भाई जी से प्रेरणा लेकर वे बर्मा पंहुचे। अंग्रेजों की सेना के भारतीय सिपाहियों से गुप्त रूप से भेंट कर उन्हें राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देने में जुट गए। एक दिन एक भेदिए ने उन्हें गिरफ्तार करा दिया। 15 दिसम्बर 1915 को माण्डले के न्यायालय ने उन्हें राजद्रोह के आरोप में फांसी की सजा सुना दी। एक दिन अंग्रेज गवर्नर ने उन्हें बुलाया तथा कहा- ‘‘तुम एक अध्ययनशील प्रतिभावान युवक हो। यदि तुम अपने कृत्यों पर क्षमा मांग लो तो तुम्हारी फांसी रद्द कर दी जायेगी।‘‘
सोहनलाल पाठक ने निर्भीकता से कहा- ‘‘भारत को गुलाम बनाने का अपराध अंग्रेजों ने किया है, माफी वे मांगें, मैं क्यों मांगू?‘‘ और जनवरी 1916 में पाठक जी हंसते-हंसते फांसी के फन्दे पर झूल गए। - कु. भावना पहल (दिव्ययुग- जनवरी 2016)
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