ओ3म् इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गुरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥ ऋग्वेद 1.164.46॥
ऋषि: दीर्घतमा॥ देवता सूर्य:॥ छन्द: निचृत्त्रिष्टुप्॥
विनय- हे मनुष्यो ! इस संसार में एक ही परमात्मा है। हम सब मनुष्यों का एक ही प्रभु है। हम चाहे किसी सम्प्रदाय, किसी पन्थ, किसी मत के मानने वाले हों, पर संसार-भर के हम सब मनुष्यों का एक ही ईश्वर है। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय वाले उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं, पर वह तो एक ही है। जो जिस देश में व जिस सम्प्रदाय के वायुमण्डल में रहा है, वह वहाँ के प्रचलित प्रभु नाम से उसे पुकारता है। कोई ‘राम‘ कहता है, कोई ‘शिव‘ कहता है, कोई ‘अल्लाह‘ कहता है, कोई ‘लार्ड‘ कहता है। ‘विप्रों‘ ने, ज्ञानी पुरुषों ने, उस प्रभु को जिस रूप में देखा, उसके जिस गुणोत्कर्ष का उन्हें अनुभव हुआ, अपनी भाषा में उसी के वाचक शब्द से उसे वे पुकारने लगे। उन विप्रों द्वारा वही नाम उस समाज व सम्प्रदाय में फैल गया। कोई विप्र गुरु से ग्रहण करके उसे ‘ओ3म्‘ या ‘नारायण‘ नाम से पुकारता है, तो कोई अपने महात्माओं और सद्ग्रन्थों से पाकर उसे ‘खुदा‘ या ‘रहीम‘ कहता है, परन्तु वह प्रभु एक ही है।
हम साम्प्रदायिक लोगों ने संसार में बड़े-बड़े उपद्रव किये हैं और आश्चर्य यह कि ये सब लड़ाई-दंगे अपने प्रभु के नाम पर हुए ! वैष्णवों और शैवों के झगड़े हुए हैं, हिन्दू और मुसलमानों में रक्तपात हुए हैं, यहूदियों और ईसाइयों के युद्ध हुए हैं- यह सब क्यों? यह सब तभी होता है जब हम यह भूल जाते हैं कि ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति‘- वह एक ही है, पर ज्ञानी लोगों ने अपने-अपने अनुभवों के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न नाम दिया है। ईश्वर होने से वही ‘इन्द्र‘ है, मृत्यु से त्राता होने से वही ‘मित्र‘ है, पापनिवारक होने से वही ‘वरुण‘ है, प्रकाशक होने से वही ‘अग्नि‘ है। वेदमन्त्रों में इन नाना नामों से पुकारा जाता हुआ भी वह एक है। इसी प्रकार वेदमन्त्रों ने ‘दिव्य‘, ‘सुपर्ण‘ (शोभन पतनवाला) या ‘गुरुत्मान्‘ (गुरु आत्मा), ‘अग्नि‘, ‘यम‘ (नियन्ता) और ‘मातरिश्वा‘ (अन्तरिक्ष में श्वसन करने वाला) आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा, पर अज्ञानियों ने उसे भिन्न-भिन्न नामों से जुदा-जुदा समझ लिया और जुदा-जुदा कर दिया। वेद की पुकार सुनो वह एक है ! वह एक है ! एकं सत् !
शब्दार्थ- विप्रा:= ज्ञानी पुरुष एकं सत्=एक ही होते हुए को बहुधा वदन्ति=अनेक प्रकार से बोलते हैं। उस एक ही को इन्द्रं, मित्रं, वरुणं, अग्निं आहु:=इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं। अथो स: दिव्य: सुपर्ण: गरुत्मान्=और वही दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान् कहलाता है अग्निं यमं मातरिश्वानम् आहु:=उस एक ही को अग्नि, यम और मातरिश्वा कहते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)
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