ओ3म् द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।1
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥ (ऋग्वेद 1.164.20, अथर्ववेद 9.9.20)
अन्वय- दौ सयुजौ सखायौ सुपर्णौ समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयो: द्वयो: अन्य: (एक:) पिप्पलं स्वादु अत्ति। अन्य: (अपर:) अनश्नन् अभि चाकशीति।
अर्थ- (द्वौ सुपर्णौ) दो सुन्दर पक्षी (सयुजौ) जो सहयोगी हैं (सखायौ) और परस्पर मित्र हैं (समानम् वृक्षम्) एक ही वृक्ष के ऊपर (परि षस्वजाते)* एक-दूसरे से लिपटे हुए स्थित हैं। (तयो:) इन दोनों में (अन्य:) एक (पिप्पलम्) इस वृक्ष के फल को (स्वादु अत्ति) मजे से खाता है, (अन्य:) और दूसरा पक्षी (अन्-अश्नन्) न खाता हुआ (अभि चाकशीति) अध्यक्षता का काम करता है।
व्याख्या- देखने में यह एक पहेली सी प्रतीत होती है परन्तु इसमें उपमा द्वारा वैदिक धर्म के इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन अनादि और अनन्त अर्थात् नित्य पदार्थ हैं, इनकी न कभी उत्पत्ति होती है न विनाश। महर्षि स्वामी दयानन्द ने तो ऐसा अर्थ किया ही है, परन्तु अन्य विद्वानों की भी इस विषय में पूर्णतया सहमति है। सायणाचार्य ने लिखा है- अत्र लौकिकपक्षिद्वयदृष्टान्तेन जीवपरमात्मानौ स्तूयेते। अर्थात् इसमें दो लौकिक चिड़ियों का दृष्टान्त देकर जीव और परमात्मा इन दोनों की स्तुति की गई है। निरुक्तकार यास्काचार्य ने भी ऐसा ही लिखा है- द्वौ द्वौ प्रतिष्ठितौ सुकृतौ धर्मकर्त्तारौ। अर्थात् जीव और ब्रह्म दोनों धर्म करने वालों की यहाँ प्रतिष्ठा दिखाई गई है। श्री शंकराचार्य ने मुण्डक-उपनिषद् के भाष्य में तथा वेदान्त-दर्शन के भाष्य में इस मन्त्र को इसी प्रकरण में लिया है।
वेदान्तदर्शन के पहले अध्याय के द्वितीय पाद के 12वें सूत्र ‘विशेषणाच्च‘ के भाष्य में श्रीशंकर स्वामी लिखते हैं- विशेषणं च विज्ञान आत्म- परमात्मनोरेव भवति। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्ति इत्यदन लिङ्गाद् विज्ञानात्मा भवति। अनश्नन्नन्यो ऽभिचाकशीति त्यनशनचेतनत्वाभ्यां परमात्मा। अर्थात् यहाँ विशेषण अलग-अलग दिये गये हैं। ‘अदनलिङ्गात्‘ अर्थात् फल को खानेवाला होने के कारण जीवात्मा का ग्रहण होता है और न खाने तथा चेतनत्व के कारण परमात्मा का ग्रहण होता है। यहाँ जीवात्मा और परमात्मा दोनों को सहयोगी बताते हुए उनकी दो सत्ताओं का प्रतिपादन किया गया है। परन्तु इतने स्पष्ट मन्त्र की साक्षी होते हुए भी वेदान्तियों के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों जैसे शंकर-सम्प्रदाय तथा भास्कर-सम्प्रदायों ने अद्वैत-सिद्धि के पक्ष में क्लिष्ट कल्पनाएँ की हैं। सायण ने इस भय से कि कहीं कोई उसके भाष्य को प्रचलित दार्शनिकों से विरुद्ध न कहे, इन मतों की कुछ युक्तियाँ दी हैं। परन्तु थोड़े-से विचार से ही स्पष्ट हो जाता है कि वेदमन्त्र से उनके सिद्धान्तों की पुष्टि नहीं होती, अपितु वैदिक त्रैतवाद ही सिद्ध होता है। मूल व्याख्या करने से पूर्व हमको यह प्राक्कथन करना पड़ा, इसका यही कारण है कि इस विषय में अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। इन ग्रन्थों के पूर्वापर-अध्ययन से निश्चय हो जाता है कि वेद के जिन मन्त्रों में जीव, ब्रह्म और प्रकृति के नित्यत्व का स्पष्ट वर्णन है उनके निरस्त करने के लिए कितने हेत्वाभास दिये गये हैं। अब हम मूल व्याख्या पर आते हैं।
इस मन्त्र में उपमा अलंकार है, लुप्तोपमा अलंकार। साधारण उपमा में उपमा और उपमेय को अलग करके दिखाते हैं और उपमा के साथ इव, न, वत् (समान, ऐसा, जैसा) आदि साधर्म्य-सूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु ‘लुप्तोपमा‘ में इन शब्दों का लोप कर कर देते हैं। केवल उपमा ही उपमेय का भी बोधक होती है। लुप्तोपमा का महत्त्व यह है कि साधर्म्य अधिक अनुभूत हो और जो कुछ थोड़ा-बहुत वैधर्म्य है वह दृष्टि से ओझल हो जाए। जहाँ साधर्म्य है वहाँ वैधर्म्य तो रहेगा ही। इव, वत् आदि उपमा-बोधक शब्द साधर्म्य के साथ-साथ वैधर्म्य का भी अवबोधन कराते रहते हैं। जैसे कहा जाए कि राणा सांगा शेर के समान बहादुर था। इस वाक्य में ‘समान‘ शब्द दो बातों का बोधक है। सांगा और शेर में निर्भयता का साधर्म्य अवश्य था, फिर भी सांगा शेर नहीं था, मनुष्य था। परन्तु यदि सांगा को देखकर कोई कहे ‘‘देखो! यह शेर आ रहा है‘‘ तो यहाँ ‘समान‘ शब्द का लोप कर दिया गया जिससे साधर्म्य अधिक चमक उठे और वैधर्म्य आँखों से तिरोहित हो जाए। लुप्तोपमा अलंकार का यह विशेष महत्त्व है और यह बात दृष्टि में रखने से मन्त्र की गम्भीरता का अधिक भान हो सकेगा।
वृक्ष का अर्थ है भौतिक जड़ जगत् या भौतिक शरीर। इस पर दो पक्षी बैठे हैं- जीव और ब्रह्म। इनमें साधर्म्य भी है और वैधर्म्य भी। सबसे पहला साधर्म्य यह है कि दोनों का वृक्ष पर आवास है। परन्तु सबसे मुख्य वैधर्म्य यह है कि एक फल खाता है, दूसरा नहीं खाता। यह भेद थोड़े से ही विचार से स्पष्ट हो जाता है। आप स्वयं अपने शरीर पर दृष्टि डालें। आप आँख से देखते हैं। सुन्दर वस्तुओं को देखकर आनन्द मनाते हैं। भयानक दृश्यों को देखकर खेद का अनुभव करते हैं। दोनों अवस्थाओं में आप शरीररूपी वृक्ष के फल को चखते हैं- मीठे फल को भी और कड़वे फल को भी। आप इसके भोक्ता हुए। आँख आपकी है, आपके अधीन है। आप चाहें तो आँख को बन्द रक्खें, फल न चख सकेंगे। न सुन्दर दृश्य देखकर हर्ष होगा, न कुरुप को देखकर दु:ख। परन्तु आप यत्न करने पर भी इसमें देर तक सफल नहीं होंगे । क्योंकि आपकी आन्तरिक भूख आपको बाधित करेगी कि आप आँखें खोलकर उनका उपभोग करें। यदि यह आन्तरिक भूख न होती तो अन्धे कभी आँखों के लिए न तरसते। कहने के लिए तो कुछ कवियों ने भी कह मारा कि-
आँखे ही बला लाती हैं इनसान पै अक्सर,
अंधे ही यहाँ अच्छे हैं बीना नहीं अच्छा।
परन्तु यह तो कवि का व्यंग था। यदि वह आँखों से वंचित हो जाता तो उसे सब आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता। अत: यह सिद्ध है कि आँख के आप उपभोक्ता हैं और नैसर्गिक रीति से हैं। यह आपका प्राकृतिक स्वभाव है। आप सदैव भोक्ता रहे हैं और रहेंगे।
परन्तु ‘आँख‘ आपकी होते हुए भी आपकी नहीं है। आप उसका भोग कर सकते हैं, योग नहीं कर सकते। अर्थात् आप संयोजक नहीं हैं। आँख न तो आपने बनाई और न आप सर्वथा उसको अपनी आज्ञा में रख सकते हैं। जब आँख में पीड़ा होती है तो आँख आपकी अधीनता को परे फेंक देती है और आपसे विद्रोह कर बैठती है। आँख भौतिक है, जड़ है, चैतन्यशून्य है। यह विरोध क्यों करे जब तक कोई दूसरा प्रेरक न हो! इससे ज्ञात होता है कि आपके अतिरिक्त आप ही के समान चेतनत्व वाली कोई और सत्ता भी है, जो आपके साथ-साथ ही उसी वृक्ष पर बैठी है। यह आँख का स्वयं उपभोग तो नहीं करती, परन्तु ‘अभिचाकशीति‘ अर्थात् अध्यक्षता करती है। ‘अभिचाकशीति‘ का अर्थ केवल देखना (to see) नहीं है। ‘अभि‘ उपसर्ग का विशेष अर्थ है। ‘अभि‘ ने देखने के कार्य को अधिक गौरवशाली बना दिया। (Seer means overseer) द्रष्टा का अर्थ है अध्यक्ष।
यहाँ ‘त्रित‘ स्पष्ट है। एक आप जो आँख से देखते हैं। दूसरा ब्रह्म जो आँख को आपके लिए बनाता और परिस्थिति के अनुसार आँख की देखभाल रखता है और तीसरी आँख जो जड़ है। अर्थात् एक जड़ अर्थात् अचेतन वृक्ष पर दो पक्षी हैं। आँख का अध्यक्ष आँख से देखता नहीं, आँख के फल को चखता नहीं, परन्तु आँख के भोक्ता के लिए सामान इकट्ठा करता है। कल्पना कीजिए इस अध्यक्षता की। इस जड़ सृष्टि में आप आगन्तुक हैं, मेहमान हैं, अतिथि हैं। आतिथ्य करने वाला कोई और है जो भोजन बनाता है, खाता नहीं। इस सृष्टि के असंख्य प्राणी अपने भोग के लिए अपने शरीरों में आँखें रखते हैं। इनमें से कोई आँखों का बनाने वाला नहीं। बहुत-से तो बालक के समान इतने अबोध हैं कि आँख से देखते हुए भी यह नहीं जानते कि उनकी आँखें हैं। बच्चा माता के दूध को पीता है, परन्तु जानता नहीं कि दूध क्या है और कहाँ से आया है। आँख न स्वयं बनती है, न बिगड़ती है। बनने के लिए भी अध्यक्ष की आवश्यकता है और बिगड़ने के लिए भी। क्योंकि बिगाड़ भी तो एक परिवर्तन है, जिसमें चेतन की अपेक्षा होती है। हाँ, एक बात अवश्य है, दोनों पक्षी एक भोक्ता और दूसरा अध्यक्ष एक-दूसरे के साथ ‘षस्वजाते‘ या ऐसे चिपटे हुए हैं कि साधारण दृष्टि से पता नहीं चलता कि किसका कितना क्षेत्र है। शक्कर और दूध जब मिल जाते हैं तो यह जानना कठिन होता है कि कितना अंश दूध का है और कितना शक्कर का। एक और दृष्टान्त लीजिए। कभी-कभी आपने देखा होगा कि एक ही वृक्ष पर दो भिन्न-भिन्न लताएँ चढ जाती हैं। वे एक-दूसरे से इतनी लिपट जाती हैं कि यदि वृक्ष की चोटी पर उन दो लताओं के भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल या पत्ते दिखाई पड़ें तो यह कहना कठिन होगा कि अमुक फूल किस लता का है! क्योंकि दोनों आपस में गुथी हुई हैं। यही अवस्था इन दो पक्षियों की है। प्राय: बड़े-बड़े दार्शनिकों की बुद्धि चकरा जाती है कि अमुक क्रिया जीव के कार्यक्षेत्र की है या ब्रह्म के। जहाँ भोग स्पष्ट है वहाँ तो जीव की सत्ता स्पष्ट दीखती है, जहाँ भोग में बाधा है वहाँ भोक्ता की असमर्थता भी उसकी सत्ता की सीमा की सूचक है। कहावत है कि मनुश्य चाहता है और ईश्वर रोकता है (Man proposes and God disposes)।
एक और दृष्टान्त लीलिए। जब कोई प्राणी मरता है तो उसका जीव उसके शरीर से निकलता है। मरनेवाला अनुभव करता है कि मैं यहाँ से जा रहा हूँ। ब्रैड़ला (Bradlaugh) इंग्लैण्ड का एक प्रसिद्ध अनीश्वरवादी विचारक और प्रचारक था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में उसने एक अनीश्वरवाद प्रचारिणी सभा खोली थी। वह कहा करता था कि यदि मनुष्यों में जीव मानते हो तो कुत्तों में भी जीव मानना पड़ेगा। ईसाई दार्शनिक कुत्तों में जीव नहीं मानते। इस आधार पर ब्रैडला मनुष्यों में भी जीव होने का निषेध करता था। परन्तु सुना जाता है कि जब वह मरने लगा तो उसको अनुभव होता था कि कोई अज्ञात शक्ति मुझे इस शरीर से निकलने के लिए बाधित कर रही है। मृत्यु की यह घटना तो सभी के समक्ष है। भेद केवल घटना की व्याख्या का है। कोई मरना नहीं चाहता। देह जड़ है। देह हमको निकाल नहीं सकती। हम निकलना नहीं चाहते। कोई तीसरी सत्ता जो इस देह की अध्यक्ष है हमको बाधित करती है कि अब भोग भोग चुके, खाना हो चुका, पत्तल पर से उठिए-
भुक्ता बहवो दारा: लब्धा: पुत्रा: पौत्राश्च।
आप्तं कृत्स्नमायु: वद किं मर्तुमस्ति ते मन:॥
अर्थात् अनेक स्त्रियों का उपभोग किया, पुत्र-पौत्र भी प्राप्त किये तथा लम्बी आयु भी प्राप्त की, बता! क्या अब भी तेरा मन मरना चाहता है?
इससे भी वृक्ष और दो पक्षियों की उपमा ठीक समझ में आती है। हमने यहाँ भोक्ता और द्रष्टा के स्थान में भोक्ता और अध्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है । क्योंकि ‘अभिचाकशीति‘ का ठीक अर्थ न समझकर कुछ लोगों की धारणा बन गई है कि जीव को भोक्ता और ब्रह्म को द्रष्टामात्र (Mere spectator)) कहें। यदि वृक्ष के धारण और जीव के पालन में ईश्वर का कोई हाथ नहीं तो द्रष्टामात्र का क्या अर्थ, क्या प्रयोजन और क्या गौरव? निरपेक्ष दर्शक के अस्तित्व का प्रमाण भी क्या? वेद में अन्यत्र कहा भी है- जगृम्भा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तम् (ऋग्वेद 10.47.1) हे प्रभो ! हम आपका दाहिना हाथ पकड़ते हैं अर्थात् हम अपने भोगों के लिए आपकी अध्यक्षता के आश्रित हैं।
जगत् की किसी घटना को लीजिए। आपको ये तीन सत्ताएँ स्पष्ट दिखाई देंगी- जड़ वृक्ष, अल्पज्ञ भोक्ता जीव और सर्वज्ञ अध्यक्ष ब्रह्म। ये परस्पर संयुक्त हैं। कोई जीव न ईश्वर से अलग है न प्रकृति से। न कोई प्रकृति ईश्वर से अलग अथवा ऐसी है जो जीव का भोग न हो। न ईश्वर प्रकृति और जीवों से अलग है। यहाँ योगदर्शन के दो सूत्र द्रष्टव्य हैं-
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा॥
कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्॥ (योगदर्शन 2.21,22)
दृश्य अर्थात् जड़जगत् उसी जीव के भोग के लिए है अर्थात् जिस जगतरूपी वृक्ष का यहाँ उल्लेख है वह है तो जीव के लिए ही, ईश्वर के लिए नहीं। यदि कोई प्रश्न करे कि जब जीव भोग चुका तो शरीर की उपयोगिता नष्ट हो गई। जब मेरी भूख तृप्त हो गई तो मेरे लिए भोजनशाला का होना या न होना बराबर है। यदि जीव का मोक्ष हो गया तो उसके लिए तो जगत् का कोई उपयोग नहीं रहा। पतञ्जलि मुनि इसका उत्तर देते हैं कि भूख तो केवल तुम्हारी ही तृप्त हुई है, दूसरे भी तो अभी भूखे हैं। तुम्हारी भूख की तृप्ति करके होटल तोड़ा नहीं जा सकता। तुम्हारी तरह दूसरों को भी तो इसी वृक्ष के ‘पिप्पल‘ खाकर तृप्ति करनी है। मैं समझता हूँ कि ईश्वर मुझे भोजन देता है। आप समझते हैं कि ईश्वर आपको भोजन देता है, परन्तु ईश्वर के इस विशाल होटल में तो असंख्य प्राणी नित्य ही खाने के लिए उपस्थित रहते हैं और ईश्वर अपनी अध्यक्षता में सभी का आतिथ्य करता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या ये तीन सत्ताएँ वास्तव में एक नहीं, तीन हैं? दर्शन-शास्त्र का यह एक जटिल प्रश्न है। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, भेदाभेदवाद आदि-आदि अनेक वाद हैं और इन विषयों के अध्ययन के लिए सैकड़ों ग्रन्थ मिलेंगे, जिन्होंने अपने मत की पुष्टि में बहुत कुछ प्रतिपादित किया है और उपनिषद् में आये हुए इस स्पष्ट त्रैत के एकीकरण का बहुत-कुछ यत्न किया गया है। परन्तु इन तीन में से दो को एक भाग में कैसे परिणत किया जाए यह कठिन प्रश्न है। जीव और ब्रह्म में साधर्म्य होते हुए भी वैधर्म्य का निराकरण असम्भव है। दु:ख व अज्ञान दो ऐसे धर्म हैं जिनका ईश्वर पर अध्यारोप कर ही नहीं सकते। अल्पज्ञता तथा जड़त्व, भोक्तृत्व और भोग्य पदार्थ, ये दोनों ब्रह्म मेें नहीं पाये जाते। एक में तीन और तीन में एक की कल्पना किसी प्रकार सम्भव प्रतीत नहीं होती। कुछ लोग समझते हैं कि जो कुछ उत्पन्न जगत् है वह सब ईश्वर के लिए है। यह बात कहने में अच्छी अगती है। भक्त भक्ति के भाव में बहकर किसी भाषा का प्रयोग कर सकता है, परन्तु सत्यता तो ऐसी नहीं है। ईश्वर या उसके प्रतिनिधि को खिलाने-पिलाने का बखेड़ा इसी भ्रान्ति का परिणाम है। हम अपने भोक्तृत्व को ईश्वर पर भी आरोपित करते हैं। वस्तुत-
खिलाता है खाता नहीं वह खुदा है।
पिलाता है पीता नहीं वह खुदा है।
चलाता है चलता नहीं वह खुदा है।
हिलाता है हिलता नहीं वह खुदा है।
वेदमन्त्र पुकार-पुकारकर कह रहा है- अनश्नन् अन्यो अभिचाकशीति। ईश्वर खाता नहीं, वह अध्यक्ष मात्र है । अत: मन्दिरों और देवालयों में जो ईश्वर को खिलाने का प्रतिदिन ड्रामा खेला जाया करता है । वह ड्रामा से इतर कुछ नहीं और अविद्यासूचक है। भोक्ता तो जीव है, अत: जीवों को खिलाने का यत्न करना चाहिए, ईश्वर को खिलाने का नहीं। देवी-देवताओं पर बलि चढाना भी इस वेदमन्त्र का ज्ञान न होने के कारण है।
यदि इस मन्त्र का रहस्य लोगों की समझ में आ जाए तो जड़-जगत्, अल्पज्ञ जीव और सर्वज्ञ ईश्वर के परस्पर-सम्बन्ध को समझकर हम बहुत-से निरर्थक कार्यों से बच सकते हैं तथा देश और जाति के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
* ष्वज=संगे=मिलना, लिपटना (धात्वादे: ष: स:) सस्वजाते लिट् लकार अन्य पु. द्विव.। परि+सस्वजाते=परिषस्वजाते। मूर्धन्यादेश:। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- जनवरी 2015)
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