ओ3म् इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम्।
अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो वि नाशय। अथर्ववेद 3.1.5 ॥
ओ3म् असौ या सेना मरुत: परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।
तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात्॥ अथर्ववेद 3.2.6 ॥
शब्दार्थ- (इन्द्र) हे राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) मोहित कर दे, किंकर्तव्यविमूढ बना दे और (अग्ने: ध्राज्या) आग्नेयास्त्र से (वातस्य) वायव्यास्त्र से (तान्) उन सब सैनिकों को (विषूच:) छिन्न-भिन्न करके (विनाशय) नष्ट कर डाल।
इस मन्त्र में आग्नेय और वायव्यास्त्र का स्पष्ट वर्णन है। (मरुत:) हे वीर सैनिको! (या असौ) जो वह (परेषां सेना) शत्रुओं की सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) आक्रमण करती हुई (अस्मान्) हमारी ओर (अभि एति) चली आ रही है (ताम्) उस सेना को (अपव्रतेन तमसा) आच्छादक तमसास्त्र से, धूमास्त्र से (विध्यत) वेध डाल (यथा) जिससे (एषां) इनमें से (अन्य: अन्यम्) एक-दूसरे को, कोई किसी को (न जानात्) न जाने, न पहचान पाए। इस मन्त्र में तमसा अथवा धूमास्त्र का स्पष्ट वर्णन है।
वेद में युद्ध के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है। वेद के आधार पर ही महाभारत-काल में ऐसे-ऐसे अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण किया गया थाकि इक्कीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक भी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। महाभारत में नारायणास्त्र का वर्णन आता है। आज के वैज्ञानिक अभी तक इस प्रकार का आविष्कार करने में असमर्थ रहे हैं। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)
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