सन् 1835 की फरवरी से अभी 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीत चुका है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- “मैंने भारत का हर गांव हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।’’ और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी। हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि ’‘नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।’’ जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी थी, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को ‘टोडी बच्चा हाय-हाय’ कहकर भगा दिया। ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ और ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया। जिन्होंने स्वतन्त्र भारत की कमान संभाली, उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही ‘उन्नत का एकमात्र मार्ग है।’
मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई, तो भारत अगले पाँच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मुझे लगता है कि मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी मैंने महसूस किया कि मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न! 3 नवम्बर 2009 को चंडीगढ़ मे दो दीक्षांत समारोह मैंने देखे। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री उपस्थित थे, पर मञ्च और सभागार में भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमन्त्री, भारत के स्वास्थ्य मन्त्री और राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे, जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोड़ने का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला। मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वन्दना का स्वर दो क्षणों के लिए सुनने को मिला। और यही सब कुछ पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भी हुआ। आखिर इससे नई पीढ़ी को क्या दीक्षा मिली होगी? इससे पिछले वर्ष भी पंजाब विश्वविद्यालय के ऐसे ही समारोह में मुझे उपस्थित रहने का अवसर मिला था। तब भारत के उपराष्ट्रपति मन्च पर थे। वातावरण बिल्कुल वैसा ही था, जिसका चित्रण मैं ऊपर कर चुकी हूँ। मुझे गर्व है कि मंच पर बैठने का जिन्हें सौभाग्य मिला, उनमें से केवल मुझे ही परमात्मा ने यह बल दिया कि मैं काला लबादा ओढ़े बिना बैठी। मंचासीन और पंडाल में बैठे नई और पुरानी पीढ़ी के विद्वज्जन को यह सब बुरा लगा ही नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा-दीक्षा ने नई पीढ़ी को यह साहस ही नहीं दिया कि वह इन दीक्षादायकों से यह पूछ तो सके कि क्यों वे खुद काला ओढ़ते हैं और हमें भी ओढ़ाते हैं? काला रंग तो मृत्यु, शोक और विरोध का प्रतीक है, अज्ञान का दूसरा नाम है। महाकवि सूरदास ने भी कहा है-
सूरदास कारी कामरि पे, चढ़त न दूजो रंग
हमारी शिक्षा पद्धति ने किसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं-
अन्धकार में दौड़ लग रही
मतवाला यह सब समाज है
चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोड़ने का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक ‘एंटी मैकालेवाद औषधि’ या सर्जरी का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की सन्तानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, ऊधमसिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में माँ कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता शहर कह दो तो लाल-पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी माँ को ‘मम्मी’ अथवा ‘मॉम’ बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता, जब भारत माता को हम इण्डिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते, जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं। गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है।
मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को ‘वी.आई.पी.’ मानते हैं, धन सम्पन्न हैं और भारत को ‘इण्डिया’ कहने वालें हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डण्डे के बल पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते, जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है, तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक ‘गुड़ इवनिंग’ कहता है, पर सवा नौ जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में ‘गुड नाइट’ कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही ‘ईवनिंग’ ‘नाईट’ हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वन्देमातरम् का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आन्दोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फन्दे को हंसते-हसंते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही।
मैं न निराश हूँ, न हताश। यह सन्तोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं। अब मैकाले नहीं, भारत माँ मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है, तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षान्त भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा-
जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है,
इसे वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है।
और याद भारतेन्दु को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-
अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश,
जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र सन्देश। - लक्ष्मीकान्ता चावला
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