यह एक ध्रुव सत्य है कि आज व्यक्ति भौतिकवाद में इतना अधिक संलिप्त हो चुका है कि वह विवेक पूरी तरह से खो चुका है। अनैतिकता का सहारा लेकर व्यक्ति उन सुख-सुविधाओं को जुटाने में लगा हुआ है जिससे तृप्ति मिलने वाली नहीं है। जो व्यक्ति को तृप्ति तक पहुंचा सकती है, उस आध्यात्मिकता को सब भूलते चले जा रहे हैं। शारीरिक आवश्यकताओं की भूख इतनी अधिक बढ़ गई है कि व्यक्ति इससे आगे कुछ भी सोचने के लिए तैयार नहीं है। भौतिक साधन उसे अन्ततः तृप्ति देने वाले नहीं हैं, इस सत्य का भी उसे पग-पग पर आभास होता रहता है। मगर मृगतृष्णा रूपी भटकाव से यह निरन्तर भटकता चला जा रहा है। ये सांसारिक भोग उसे हर बार चेतावनी देते हैं कि हममें तुम्हें तृप्त करने की सामर्थ्य नहीं है, मगर व्यक्ति बार-बार भोगों में डूबकर और अतृप्त होकर भी वही तृप्ति खोज रहा है जहाँ वह है ही नहीं। वह इस जीवन रूपी चौराहे पर खाली का खाली खड़ा है.....अतृप्त है......रो भी रहा है.....तड़प भी रहा है, मगर पुनः पुनः भौतिक भोगों की आग में स्वयं को झोंकता भी चला जा रहा है। उसकी स्थिति ठीक इस प्रकार की हो गई है मानो कोई अपनी जलन के कारण तड़प रहा हो। वह इतना भी ज्ञान नहीं रखता कि जलन देने वाली अग्नि को तो उसने स्वयं ही पकड़ रखा है। इस त्रासदी से आज अधिकतर लोग रूबरू हो रहे हैं। ऐसे ही लोगों को सम्बोधित करते हुए मानो वेद कहता है-
अन्ति सन्तं न जहाति अन्ति सन्तं न पश्यति।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति॥ (अथर्ववेद 10.9.33)
अर्थात् पास बैठे हुए को छोड़ता नहीं, पास बैठे हुए देखता नहीं। अरे! उस परमपिता परमात्मा के काव्य वेद को देख जो न कभी मरता है और न कभी पुराना होता है।
इस मन्त्र के भावों का यदि हम गहराई से मनन करें तो हमारे जीवन का कांटा ही बदल सकता है। संक्षेप में इसका भाव हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि परमात्मा के काव्य अर्थात् प्रकृति और वेद ज्ञान के सम्यक् अध्ययन से हम इस तथ्य को जान लें कि इस प्रकृति में सुख तो है मगर आनन्द नहीं। यदि वास्तविक आनन्द का पान करता है तो शारीरिक एवं भौतिक सृष्टि में उसकी तलाश छोड़कर उसे आध्यात्मिकता में खोजना होगा। आत्मा को उसकी वास्तविक खुराक मिलने पर ही तृप्ति मिल सकती है। इसलिए वेद मन्त्र हमें चेतावनी देते हुए कह रहा है कि यदि तुम सुख और आनन्द चाहते हो तो परमात्मा के शाश्वत नियमों का अवलोकन करके आत्मा रूपी रथी के इस रथ को परमात्मा की ओर मोड़ना होगा। परमात्मा के सान्निध्य में जाकर ही तुम्हें परम शान्ति और तृप्ति मिल सकती है।
श्रावणी पर्व मनाने का उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि हम जीवन की पगडण्डी पर चलते-चलते अचानक जिन झाड़-झंखाड़ों में उलझ गए हैं उनसे निकलने के लिए वेद ज्ञान को व्यावहारिकता में लाएं। आज समाज, राष्ट्र और समूचा विश्व आतंक तथा भय के वातावरण से गुजर रहा है। कुछ वर्ष पूर्व जो सौहार्द्र और प्रेम का वातावरण था वह लुप्तप्राय ही हो गया है। मानव इतना हृदयहीन हो गया है कि जहाँ उसे दूसरों का उपकार करने से प्रसन्नता होती थी आज वह अपकार करके प्रसन्न होने लगा है। अलगाववाद, मजहबवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के काले बादल हमारे चारों ओर मण्डरा रहे हैं। कब किसके घर पर बिजली गिर जाए कुछ पता नहीं। इन समस्याओं का समाधान खोजा जा रहा है। मगर स्थिति यह है कि मरज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। हम अपने ही देश को लें। यहाँ पर प्रत्येक नेता या दल अपनी-अपनी वोट की राजनीति खेल रहा है। राष्ट्र के सामूहिक विकास की किसी को चिन्ता नहीं है। तुष्टिकरण और वोट की राजनीति ने ऐसी दीवारें खड़ी कर दी हैं, जो दिन-प्रतिदिन और भी अधिक ऊंची होती चली जा रही हैं। चाहे व्यक्तिगत समस्या हो, परिवार, समाज तथा देश की समस्या हो सभी समस्याओं का समाधान हमें वेद में मिल सकता है। क्योंकि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। सत्य एक ऐसी रामबाण औषधि है जिससे सभी रोग समाप्त हो सकते हैं। वेद हमें सत्य की कसौटी पर रहकर जीना सिखाता है। हमारे साथ समस्या यही है कि हमने झूठ का सहारा ले रखा है तथा एक झूठ को सही ठहराने के लिए हम अनेक और झूठों का सहारा ले रहे हैं। इस प्रकार इन झूठों के अम्बार तले हम दब गए हैं। हमें इस बात को गांठ बान्ध लेना चाहिए कि झूठ के सहारे हमारा किसी भी क्षेत्र में उत्थान नहीं हो सकता है। यह ठीक है कि जैसे रोगी को कड़वी औषधि खाने में तो अच्छी नहीं लगती है, मगर उसका परिणाम सुखद होता है। ठीक इसी प्रकार वेद के सत्य पर चलना हमें पहले तो बहुत अटपटा और अव्यावहारिक लग सकता है, क्योंकि हमें अपने-अपने स्वार्थ के दायरों में सिमटकर जीने की आदत पड़ गई है। मगर वास्तविकता यह है कि हमें अपने-अपने संकुचित दायरों से बाहर निकलकर सत्यता को स्वीकार करना होगा, क्योंकि सत्य की सोच ही अन्ततः ठीक होती है। वेद हमें सत्य के साथ जुड़ने की ही प्रेरणा देता है।
सर्वप्रथम हम इस बात पर चिन्तन करते हैं कि मानव-मानव के भीतर दूरियाँ क्यों बढ़ती चली जा रही है। होता यह है कि अपने तप-त्याग और साधना से कोई भी व्यक्ति जब उच्चतम स्तरों को छू लेता है तो उसके बहुत से अनुयायी भी बन जाते हैं मगर ये अनुयायी उन आदर्शों पर तो चल नहीं पाते, मात्र लकीर के फकीर बन जाते हैं। उस महापुरुष ने जिस तप और त्याग से जीवन की ऊँचाइयों को छुआ था, उस प्रक्रिया को नजर अन्दाज करके उस महापुरुष की ही पूजा-अर्चना शुरु कर दी जाती है। आज हमारे समाज में ऐसे पैगम्बरों, अवतारों और गुरुओं की मानो बाढ़ सी आ गई है। गुरु होना तो बुरी बात नहीं मगर गुरुडम ने इस समाज का बहुत अधिक अहित किया है। इससे मानवीय एकता को बहुत बड़ा धक्का लगा है तथा परमात्मा के स्थान पर व्यक्तियों की पूजा होने लगी है। इस व्यक्ति पूजा ने अन्य अनेक प्रकार की कुरीतियों को भी जन्म दिया है। इसी के आधार पर व्यक्तियों द्वारा बनाए गए अलग-अलग ग्रन्थों और उपदेशों को प्रमाण मानने की अज्ञानता का भी जन्म हुआ है। अलग-अलग नामों और पूजा पद्धतियों ने एक मानव धर्म को अनेक सम्पदायों में बांट दिया है। वह एक अटल सत्य है कि कोई भी महापुरुष परमात्मा नहीं बन सकता है और अल्प ज्ञानी होने के कारण न ही उसके द्वारा दिया गया ज्ञान निर्भ्रान्त और पूर्णतया सत्य हो सकता है। आज जैसे मानो अन्धों को अन्धे ही रास्ता दिखा रहे हैं, इसलिए अज्ञानता के गड्ढे में गिरकर चतुर्दिक् विनाश हो रहा है। तथाकथित इन भगवानों की भीड़ में परमात्मा कहीं खो गया लगता है और मत-मजहब एवं सम्प्रदायों की अज्ञानता में मानवीय गुणों का हृास हुआ है। एक सामूहिक सोच जिससे हमारी चतुर्दिक् उन्नति का मार्ग प्रशस्त होना था, विलुप्त हो गई है।
आज इस बात की परम आवश्यकता है कि मानव मूल्यों की पुनः स्थापना करने के लिए एक सामूहिक सोच का विकास किया जाए जो वेद के आधार पर ही हो सकती है। क्योंकि वेद पूर्णतया सार्वभौम और परमात्मा की सत्य वाणी है। जिस परमात्मा को लोगों ने व्यक्तिवाद, देवी-देवतावाद तथा स्थान विशेष की काराओं में कैद कर दिया है उसके बारे में वेद कहता है-
ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥ (यजुर्वेद 40.1)
मन्त्र में आदेश दिया गया है कि हमें उस एक परमपिता की उपासना करनी चाहिए जो सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। वही इस संसार का सृजनकर्त्ता और संचालक हैं। वही समस्त सम्पदाओं का स्वामी भी है। इसलिए उसकी दी हुई वस्तुओं का अनासक्ति अर्थात् त्यागभाव से भोग करना अपेक्षित है। क्योंकि अन्ततः यह सब कुछ उसी पिता का है।
मन्त्र में बहुत ही व्यावहारिक बात कह दी गई है। परमात्मा किसी स्थान विशेष में नहीं है बल्कि वह सर्वव्यापक है और समस्त सम्पदा का मालिक भी वही है। यह सब कुछ तो हमें मात्र प्रयोग करने के लिए दिया गया है, ताकि हम अपने जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकें। मन्त्र के भावों को आत्मसात् करने से जहाँ एक परमात्मा की आराधना का प्रचलन होकर मानवीय एकता को आधार मिलेगा, वहीं दूसरी ओर आज मेरा-मेरी का जो वातावरण बना है उससे भी समाज को मुक्ति मिल सकती है। लोभ के कारण ही व्यक्ति दूसरे की वस्तु को हड़पने का प्रयास करता है। इसी लोभ के कारण वह सांसारिक वस्तुओं के साथ अपनी आसक्ति भी जोड़ लेता है, जो व्यक्ति के दुःख का मुख्य कारण है। जब व्यक्ति मन्त्र के तथ्य को आधार मानकर अनासक्त भाव से समस्त वस्तुओं का प्रयोग करेगा तो वह अनासक्ति ही उसे आनन्द और वास्तविक सुख तक पहुंचा सकेगी। त्याग और अलोभ की वृत्ति पैदा होने पर ही व्यक्ति परोपकारी बन सकता है। जो परोपकारी होगा उसका चिन्तन व्यक्ति से समष्टि की ओर उन्मुख हो जायेगा तथा उसके मारने के लिए नहीं उठेंगे बल्कि सहयोग के लिए ही उसके हाथ आगे बढ़ेंगे। इस प्रकार की समस्त एषणाओं से ऊपर उठकर जब वह एक परमपिता की उपासना करेगा तो उसके भीतर इस सत्य का उदय भी होगा कि परमात्मा के नाम पर मैंने जो दीवारें खड़ी कर दी थी वे वास्तव में कितनी बचकानी और अहितकारी थी। वह इस संकीर्णता से ऊपर उठेगा कि मेरा मजहब मेरी जाति, मेरा सम्प्रदाय या मेरा गुरु ही सबसे बड़ा है। इसके स्थान पर वह वास्तविक आध्यात्म की ऊँचाइयों को छूकर श्रेष्ठ मानव बनकर अपना और समूची मानवता का हित करने की दिशा में स्वाभाविक रूप से अग्रसर हो सकेगा। वह परमात्मा ही वास्तव में सृष्टि का सृजन करने वाला और मालिक है। वेद में ऐसे बहुत से मन्त्र हैं यथा..... भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥ (यजु. 13-4) अर्थात् समस्त प्राणीमात्र का पति (स्वामी) वह परमपिता परमात्मा ही है और वह अनेक नहीं बल्कि एक है और एक ही रहेगा। वेद की यह शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बान्ध सकती है और भगवानों के नाम पर बंटने की कुप्रवृत्ति से मुक्ति दिला सकती है। भगवानों का भगवान और गुरुओं का गुरु वह परमात्मा ही है। एक वही उपास्य है और उसी की उपासना करनी चाहिए। लोक-परलोक की उन्नति का आधार यही है। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की सुख-शान्ति एवं समृद्धि का यही मूल मन्त्र है। हम सभी एक ही जाति अर्थात् मनुष्य जाति के हैं और वही परमात्मा हमारा पिता है।
हम कैसे पुत्र है जो पिता को भी भूलते जा रहे हैं। वेद में बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा गया है-
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो वभूविथ।
अधा ते सुम्नमीमहे॥ (सामवेद 4-2-13-2)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥ (ऋग्वेद 1-1-9)
अर्थात् वह परमात्मा ही हमारा माता-पिता और सुख-शान्ति तथा प्रसन्नता देने वाला है। वह हमारा ऐसा पिता है, जिसकी पावन गोद हमें सहजता से उपलब्ध है। वह निरन्तर अपने स्नेह की हम पर वर्षा कर रहा है। मात्र उसे पहचानकर उसकी गोद में बैठ जाने की जरूरत है। मगर पता नहीं हमारे भीतर कब विवेक पैदा होगा? भौतिकवाद की इस अन्धी दौड़ से मुक्त होकर न जाने कब हम उस आनन्दमयी गोद में बैठकर चिरतृप्ति को प्राप्त करेंगे। ऐसा होने से ही व्यक्ति के भीतर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना पैदा हो सकेगी तथा मानवता की स्थापना होकर प्रेम और सौहार्द की पवित्र गंगा बहेगी। जिस दिन संसार के सभी व्यक्ति अपने उस एक असली परमपिता को पहचान जाएंगे, उसी दिन व्यक्ति मजहबवाद से मुक्त होकर एक वैदिक धर्म की शरण में आकर आनन्दित हो सकेगा। हमारा प्रत्येक पर्व एक दिव्य सन्देश देने वाला होता है तथा हमें वह सन्देश आत्मसात् करने की जरूरत है। अतः श्रावणी पर्व की सार्थकता इसी में है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सत्य के पक्ष में करके आध्यात्मिकता की ऊँचाइयों को छूकर अपना और समूचे विश्व के चतुर्दिक् विकास का मार्ग प्रशस्त करे। हम वेद के आधार पर ही आज की दिशाहीन मानवता को स्वर्णिम आयामों तक पहुँचाने की दिशा में कुछ सार्थक कार्य करके पुण्य के भागी बन सकते हैं। - महात्मा चैतन्यमुनि
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