इन्दौर के सुविख्यात समाजसेवी एवं वेदभक्त चिन्तक श्री जगदीश प्रसाद वैदिक (स्वामी वैदिकानन्द जी महाराज) के पुत्र के रूप में जन्मे डॉ. वेदप्रताप वैदिक राष्ट्र के अग्रणी पत्रकारों में स्थान रखते हैं। वे प्रथम पत्रकार हैं जिन्होंने हिन्दी में पहली डॉक्टरेट प्राप्त की थी। पूरे संसार का अनेक बार भ्रमण कर असंख्य लेख व पुस्तकें लिखने वाले डॉ. वैदिक ने जीवन में कभी भी न शराब को छुआ तथा न ही मांसाहार किया। ऐसा दृढ़ संस्कारी चिन्तक ही खरी-खरी लिखने व बोलने का अधिकारी होता है। यहाँ प्रस्तुत है उनका अत्यन्त प्रेरणादायक लेख जो विदेशों का अन्धानुकरण करने वाली युवा पीढ़ी को पतन से बचने की चेतावनी दे रहा है। शिवकुमार गोयल
एक ताजा सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत के कुछ नगरों में 45 प्रतिशत नौजवानों को शराब की लत पड़ गई है। दिल्ली सहित देश के ग्यारह शहरों के 2000 नौजवानों के सर्वेक्षण से ये आंकड़े मिले हैं। इन नौजवानों की उम्र 15 से 19 वर्ष है। पिछले 10 साल में इस लत का असर दुगुना हो गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दस साल में देश के लगभग शत-प्रतिशत नौजवान शराबखोर बन जाएं। जरा सोचें कि अगर हालत यही हो गई तो 21 वीं सदी के भारत का क्या होगा? हम गर्व करते हैं कि आज नौजवानों की जितनी संख्या भारत में है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। भारत अगर विश्व शक्ति बनेगा तो इस युवा शक्ति के दम पर। लेकिन अगर हमारी युवा शक्ति इन पश्चिमी लतों की शिकार बन गई तो भारत आज जिस बिन्दु पर पहुंचा है, उससे भी नीचे खिसक जाएगा। यह मामला सिर्फ शराब का ही नहीं है, शराब जैसी अन्य दर्जनों लतों का है, जो भारत के भद्रलोक की नसों में मीठे जहर की तरह फैलती जा रही हैं।
शराब के बढ़ते चलन के पीछे जो तर्क दिख रहे हैं, वे सतही हैं। उनके पीछे छिपे रहस्यों को हम अगर जान पायेंगे तो दूसरी आधुनिक बीमारियों के मूल तक पहुंचने में भी हमें आसानी होगी और उनका इलाज करना भी कठिन नहीं होगा। हमारे नौजवान शराब इसलिए पी रहे हैं कि उनके हाथ में पैसे ज्यादा आ रहे हैं। वे अपना तनाव मिटाना चाहते हैं और माता-पिता उन पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं। ये तीनों तर्क अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन ये ऊपरी हैं। असली सवाल यही है कि हमारा नौजवान शराब को ही अपना एकमात्र त्राणदाता क्यों मान रहा है और इस गम्भीर भूल का पता चलने पर भी माता-पिता और समाज की तरफ से कोई उचित कार्यवाही क्यों नहीं होती? इसका कारण यह है कि भौतिक विकास की दौड़ में पागल हुआ हमारा समाज बिल्कुल नकलची बनता जा रहा है। वह कहता है कि हर मामले में पश्चिम की नकल करो। अपना दिमाग गिरवी रख दो। अपने मूल्यमानों, आदर्शों, अपनी परम्पराओं को दरी के नीचे सरका दो। यदि शराब पीना, मांस खाना, कर्ज लेकर ऐश करना आदि को पश्चिमी समाज में बुरा नहीं माना जाता तो हम उसे बुरा क्यों माने? आधुनिक दिखने, प्रगतिशील होने, सेकुलर बनने, भद्र लगने के लिए जो भी टोटके करने पड़ें वे हम करें। चूकें क्यों? जरा गौर करें कि सर्वेक्षण क्या कहता है- उसके अनुसार हमारे नौजवान ज्यादा शराब कब पीते हैं? क्रिसमस या वेलेंटाइन डे के दिन। ये दोनों त्यौहार क्या भारतीय हैं? हमारे ईसाई भाई क्रिसमय मनाएं, यह तो समझ में आता है, लेकिन जो शराबखोरी करते हैं, उन आम नौजवानों का ईसा मसीह या क्रिसमस से क्या लेना-देना है? शराब पीना ही उनका क्रिसमस है और वह इसलिए है कि क्रिसमस पश्चिमी समाज का त्यौहार है। होली और दीपावली पर उन्हें खुमारी नहीं चढ़ती, लेकिन क्रिसमस पर चढ़ती है। यह किस सत्य का प्रमाण है?
दिमागी गुलामी की यही गुलामी वेलेंटाइन डे पर प्रकट होती है। इन भारतीय नौजवानों को महात्मा वेलेंटाइन की दन्तकथा का भी सही-सही पता नहीं है। वेलेंटाइन डे से भी सौगुना अधिक मादक वसन्तोत्सव है लेकिन वे उससे अपरिचित हैं? क्यों हैं? इसीलिए कि वेलेंटाइन डे पश्चिमी है, आयातित है और ‘आधुनिक’ है। शराब भी वे प्रायः विदेशी ही पीते हैं। ठर्रा पी लें तो उन्हें दारूकुट्टा या पियक्कड़ कहने लगेंगे। यह कड़वी बात उन्हें कोई कहता नहीं है, लेकिन सच्चाई यही है कि इन नौजवानों को अपने भारतीय होने पर गर्व नहीं है। वे नकलची बने रहने में गर्व महसूस करते हैं।
अगर ऐसा नहीं है,तो मैं पूछता हूँ कि आज भारत के 90 प्रतिशत से अधिक शहरी नौजवान पैंट-शर्ट क्यों पहनते हैं? टाई क्यों लगाते हैं? उन्हें कुर्ता-पायजामा पहनने में शर्म क्यों आती है? स्कूल-कॉलेजों में कोई भी अध्यापक और छात्र धोती पहने क्यों नहीं दिखता? कोई वेश-भूषा कैसी भी पहने उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन कोई अपनी स्वाभाविक वेश-भूषा और पारम्परिक वेश-भूषा को तो हीनभाव से देखे और पुराने मालिकों की वेश-भूषा को गुलामों की तरह दैवीय दर्जा देने लगे तो उसे आप क्या कहेंगे? ठण्डे देशों में शराब का प्रचलन है और टाई समेत थ्री पीस सूट पहने जाते हैं, लेकिन भारत जैसे गर्म देश में भी इन चीजों से चिपके रहना कौन सी आधुनिकता है? खुद को असुविधा में डालकर नकलची बने रहना तो काफी निचले दर्जे की गुलामी है। यदि ऐसी गुलामी भारत में बढ़ती चली जाए तो उसके सम्पन्न होने पर लानत है।
यहाँ मामला शराब और वेश-भूषा का ही नहीं है, सबसे गम्भीर मामला तो भाषा का है। आजादी के इतने साल बाद भी अंग्रेजी इस देश की पटरानी बनी हुई है और हिन्दी नौकरानी! किसी को गुस्सा तक नहीं आता। बुरा तक नहीं लगता। राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री से लेकर बाबुओं और चपरासियों ने भी अंग्रेजी की गुलामी का व्रत धारण कर रखा है। शराब की गुलामी से भी ज्यादा खतरनाक अंग्रेजी की गुलामी है। विदेशी भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान से फायदा उठाने का में जबर्दस्त समर्थक हूँ, लेकिन अपनी माँ पर हम थूकें और दूसरे की माँ के मस्तक पर तिलक लगाएं, इससे बढ़कर दुष्टता क्या हो सकती है? यह दुष्टता भारत में शिष्टता कहलाती है। यदि आप अंग्रेजी नहीं बोल पाएं तो इस देश में आपको कोई शिष्ट और सभ्य ही नहीं मानेगा। देखा आपने, कैसा सूक्ष्म सूत्र जोड़ रहा है शराब, पैंट-शर्ट और अंग्रेजी को। हम यह भूल जाते हैं कि शराब ने रोमन जैसे साम्राज्यों की जड़ों में मट्ठा डाल दिया और विदेशी भाषा के जरिए आज तक दुनिया का कोई भी राष्ट्र महाशक्ति नहीं बना, लेकिन इन मिथ्या विश्वासों को हम बन्दरिया के बच्चे की तरह छाती से चिपकाएं हैं। दुनिया में हमारे जैसा गुलाम देश कौन सा है?
इस गुलाम को बढ़ाने में ‘कॉमनवेल्थ’ का योगदान अप्रतिम है। ‘कॉमनवेल्थ’ को क्या हमने कभी ‘कॉमन’ बनाने की आवाज उठाई? उसका स्थायी स्वामी ब्रिटेन ही क्यों है? हर दूसरे-तीसरे साल उसका अध्यक्ष क्यों नहीं बदलता, गुट निरपेक्ष आन्दोलन की तरह या सुरक्षा परिषद की तरह? उसकी भाषा अंग्रेजी क्यों है, हिन्दी क्यों नहीं? कॉमनवेल्थ के दर्जनों देश मिलकर भी भारत के बराबर नहीं हैं। हिन्दी दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। दुर्भाग्य तो यह है कि आज देश में हमारे राजनीतिक दल और यहाँ तक कि साधु-महात्मा भी शक्ति सन्धान और पैसा महान में उलझ गए हैं। दयानन्द, गान्धी और लोहिया की तरह कोई ऐसा आन्दोलन नहीं चला रहे, जो भारत के भोजन, भजन, भाषा, भूषा और भेषज को सही पटरी पर लाए। इस पंचभकार का आह्वान अगर भारत नहीं करेगा तो पंचमकार मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन का मार्ग तो पश्चिम हमें दिखा ही रहा है। पश्चिम तो अब उठकर गिर रहा है, हम बिना उठे ही पतन के गर्त में समाने की तैयारी कर रहे हैं। - डॉ. वेदप्रताप वैदिक
More dangerous than slavery to alcohol is English slavery. I am a strong supporter of benefiting from foreign languages and knowledge, but we spit on our mother and apply tilak on the forehead of another mother, what can be more wicked than this?
Alcohol is dipping into the gutter of the young generation | Extreme dehydration of western countries | Very inspirational Article | Warning to avoid collapse of young Generation | India world Power | Slavery of English | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Lunawada - Khambhat - Ellenabad Sirsa | Newspaper, Vedic Articles & Hindi Magazine Divya Yug in Lunglei - Visnagar - Rania Sirsa | दिव्ययुग | दिव्य युग