उन्नीसवीं शताब्दी में इस देश में अनेक समाज सुधारकों तथा महान व्यक्तियों ने जन्म लिया। राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन, रानाड़े, रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द आदि का नाम इनमें उल्लेखनीय है। महर्षि दयानन्द का नाम इनमें अग्रणी है। क्योंकि दयानन्द ने पहली बार भारत तथा विश्व का ध्यान वेदों की ओर आकृष्ट किया। दयानन्द से पहले लोग वेदों को भूल चुके थे। वैदिक संस्कृति (भारतीय संस्कृति) रामायण, महाभारत, गीता तथा पुराणों तक सीमित होकर रह गई थी। दयानन्द ने वेदों को भारतीय संस्कृति का, आर्य संस्कृति का मूल स्रोत बताया। आज अधिकांश विद्वान् इस बात को स्वीकार करते हैं।
महर्षि दयानन्द ने बाल शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, दवितोद्धार, देशभक्ति, स्वदेशी तथा स्वराज पर क्रान्तिकारी विचार प्रकट किए। उन्होंने ईश्वर, धर्म, मुक्ति, विद्या, अविद्या, जगत् तथा जीवात्मा आदि विषयों पर वैदिक मतानुसार नए विचार प्रकट किये। सत्यार्थ प्रकाश उनके क्रान्तिकारी एवं मौलिक विचारों का दर्पण है। इस ग्रन्थ को उन्होंने हिन्दी में लिखा। इसमें उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि विषयों पर वेदमतानुसार अपने विचार प्रकट किए। इसके चौदह समुल्लासों में लगभग सभी विषयों को समेट लिया गया है। इस ग्रन्थ का देश-विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इसके सैकड़ों संस्कारण प्रकाशित हो चुके हैं।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि आर्य लोग बाहर से नहीं आए, वे यहीं के निवासी थे। भारत से ही वे बाहर गए थे। आज इस मत को मानने वालों में अमेरिका की अन्तरिक्ष संस्था नासा के सलाहकार डा.राजाराम, डेविड फ्रावल, हैरी हिक्स, जेम्स शेफर और मार्क केनायर के नाम प्रमुख हैं। भारतीय विद्वानों एवं पुरातत्ववक्ताओं में एस.आर.राव, एस.पी.गुप्त तथा श्री भगवान सिंह आदि भी इस मत के समर्थक हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत भारती‘ में कहा है-
संसार में जो कुछ जहाँ फैला प्रकाश विकास है,
इस देश की ही ज्योति का उसमें प्रधानाभास है।
करते न उन्नतिपथ परिष्कृत आर्य जो पहले कहीं,
सन्देह है तो विश्व में विज्ञान बढता या नहीं॥
महाकवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा है-
किसी का हमने छीना नहीं,
प्रकृति का रहा पालना यहीं,
हमारी जन्मभूमि थी यही,
कहीं से हम आये थे नहीं।
वही रक्त है वही है देश,
वही साहस है, वैसा ही ज्ञान,
वही है शान्ति, वही है शक्ति,
वही हम, दिव्य आर्य सन्तान॥
महर्षि दयानन्द ने कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसका विस्तृत विवेचन उन्होंने अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में किया है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश‘ में लिखा कि वेद सूर्य के समान स्वत: प्रमाण हैं। उनका उद्देश्य किसी नवीन मत या सम्प्रदाय को चलाना नहीं था। सत्यार्थ प्रकाश में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश‘ में उन्होंने फिर लिखा है कि वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त के माने हुए जो ईश्वरादि पदार्थ हैं उनको मैं भी मानता हूँ।
महर्षि दयानन्द ने वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया। हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डा. रामविलास शर्मा की ऋग्वेद सम्बन्धी खोज ‘मार्क्सवाद, ऋग्वेद और हिन्दी समाज‘ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। उनके अनुसार मार्क्स के डाइलेक्ट्क्सि यानि द्वन्द्वात्मकता की मूल अवधारणाएं ऋग्वेद में मौजूद हैं। डा. शर्मा के अनुसार परस्पर परिवर्तन और गतिशीलता के बारे में संसार में शायद ही कोई पुस्तक हो जिसमें विश्व प्रपंच इतना गतिशील हो जितना ऋग्वेद में है। वे यहाँ तक मानते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिकों में आइन्सटांइन ऋग्वेद की धारणाओं को कहीं-कहीं दुहराते हैं। एक बहुत बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने आकाश को एक तत्व माना है।
महर्षि दयानन्द ने तो ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में पहले ही प्रतिपादित कर दिया था कि वेदों में विज्ञान विद्या है तथा सृष्टि विद्या, तार विद्या आदि अनेक विषय हैं। इस सन्दर्भ में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के सृष्टिविद्या विषय, पृथिव्यादि लोकों का भ्रमण विषय, तारविद्या आदि विषय देखे जा सकते हैं। मार्क्स के भारत सम्बन्धी लेख (1853 ई.) तक वेदों के बारे में कोई गलत धारणायें नहीं थी। मैक्समूलर के ऋग्वेद भाष्य के बाद इंग्लैण्ड और यूरोप के बहुत से विद्वानों ने वेदों के बारे में बहुत सी भ्रान्त धारणाओं को जन्म दिया।
इस बात को डा. रामविलास शर्मा अपनी ऋग्वेद सम्बन्धी उक्त शोध में स्वीकार करते हैं। इसीलिए दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में मोक्षमूलर विषयक खण्डन विषय शीर्षक से मैक्समूलर के वेदभाष्य का खण्डन किया है। दयानन्द ने उसी भाष्य भूमिका के पचासवें विषय में महीधर के भाष्य का भी खण्डन किया है। प्रमाण सहित उन्होंने दोनों भाष्यों का खण्डन किया है। ‘राष्ट्रीय सहारा‘ (नई दिल्ली 17-12-94) में छपे एक लेख ‘यज्ञ भारतीय संस्कृति का केन्द्र बिन्दु‘ में महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य को प्रामाणिक मानकर यज्ञ की व्याख्या की गई है तथा यज्ञों में पशुहिंसा का निषेध किया गया है। इसी समाचार पत्र (16-11-94) में प्रकाशित एक अन्य लेख में नीता गुप्ता ने महीधर आदि के भाष्य का खण्डन करते हुए दयानन्द के वेदभाष्य का हवाला देकर प्राचीन कला-कौशल एवं शिल्प का वर्णन किया है। ‘दैनिक जागरण‘ (8 सितम्बर 96) में ‘वर्णव्यवस्था को त्यागने का समय‘ लेख में श्री नरेन्द्र मोहन ने वेद और दयानन्द का हवाला देकर शूद्रत्व और हिन्दुत्व की तर्कसंगत व्याख्या की है तथा शूद्र और ब्राह्मण को एक मानते हुए ऋग्वेद का यह मन्त्र भी उद्धृत किया है-
अज्येष्टासो अकनिष्ठास एते
सं भ्रातरो वावृधु: सौभगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां
सुदुधा पृश्नि: सुदिनामरुद्भ्य:॥
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य संस्थायें तथा लोग भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। उनमें प्राच्य विद्या संस्थान शिवशक्ति थाने महाराष्ट्र का नाम लिया जा सकता है। वहाँ ऋग्वेद का The Heritage of mankind नाम से ग्यारह खण्डों में अंग्रेजी में अनुवाद हो रहा है। एक रूसी महिला तात्याना येलिजारेकोवा ऋग्वेद का रूसी भाषा में अनुवाद करने में लगी है। 1959 में ऋग्वेद के रूसी का अनुवाद का पहला खण्ड छपा और उसकी चालीस हजार प्रतियाँ शीघ्र ही बिक गई। उसके बाद उसका दूसरा खण्ड छपा। आज विद्वानों के निजी तथा संस्थाओं के प्रयास से चारों वेदों का अंग्रेजी भाष्य उपलब्ध है।
आज हमने वेद पढना छोड़ दिया है। वैदिक विद्वानों तथा वेद विद्या विशेषज्ञों की परम्परा कम होती जा रही है। संस्थाओं में पदों एवं अधिकारों की चर्चा अधिक हो रही है। वेद प्रचार एवं वेदाध्ययन का मुख्य कार्य गौण होता जा रहा है। सार्वदेशिक सभा तथा अन्य आर्य प्रतिनिधि सभाओं तथा आर्यसमाजों को शीघ्र इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। सनातन धर्म की संस्थायें भी इस ओर लगभग उदासीन हैं। देश के शंकराचार्य भी इस ओर ध्यान दे सकते हैं। विश्व हिन्दू परिषद् भी इस सन्दर्भ में बहुत कुछ कर सकती है। गीताप्रेस गोरखपुर को भी आगे आना चाहिए। अन्य संस्थायें तथा विद्वान भी इसमें सहयोग दे सकते हैं । क्योंकि वेद सबके लिए हैं। वे सबके कल्याण की बात करते हैं । तभी जाकर दयानन्द का भारत को पुन: जगद्गुरु बनाने सम्बन्धी स्वप्न साकार हो सकता है।
महर्षि दयानन्द केवल वेद प्रचारक एवं वेदोद्धारक नहीं थे, अपितु वे सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक न्याय के भी प्रबल पक्षधर थे। सत्यार्थ प्रकाश उनके विचारों का जीवन्त प्रमाण है। यदि हम महर्षि दयानन्द के सन्देश को आगे पहुंचाना चाहते हैं तथा जन-जन तक प्रसारित करना चाहते हैं तो नारी जाति का सम्मान करना होगा। दलितों तथा अवर्णों को सामाजिक न्याय दिलाना होगा। समाज में धार्मिक अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों का खण्डन करना होगा। आर्थिक विषमता मिटानी होगी। शिक्षा के लिए सबको समान अधिकार दिलाने होंगे। दण्डविधान को कठोर करना होगा। प्रशासन को स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाना होगा। राष्ट्र भाषा आर्य भाषा हिन्दी को अपनाना होगा। अंग्रेजी की मानसिकता छोड़नी होगी। स्वदेशी, स्वराज तथा स्वभाषा का सम्मान करना होगा। - प्रो.चन्द्रप्रकाश आर्य (दिव्ययुग-अक्टूबर 2014)
Maharishi Dayanand and his Message | Sacrifice Day | Child Education | Woman Education | Revival | Patriotism | Swadeshi and Swaraj | Revolutionary Ideas | Promoters & Veterinators | Social | Political and Economic Justice | Arya Language Hindi | Clean and Transparent | English Mentality | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Mohiuddinpur - Thiruvithankodu - Jugial | दिव्ययुग | दिव्य युग |