यासां मुखेभ्यो रविश्मयोऽपि तिरस्कृता आस्यतिरस्करिण्या।
पटं मुखेभ्यस्त्वपसार्य ताभिर्दृष्टः स, ताभिर्निजसत्क्रियास्य॥161॥
विलोक्य त्रैलोक्यनरोत्तमं तम् निजामपत्न्यो ददृशुः सहर्षम्।
स्वान्तःपुरात् स्वागतमस्य चक्रुर् अमूल्यमुक्ताफलवर्षणेन॥162॥
स्त्रियो स्वगेहात् पुरवासिनश्च त्यक्त्वा स्वकार्यं ददृशुस्तमेकम्।
राजस्त्रियश्चापि हि निर्निमेषम् विस्मृत्य सम्भाव्य-निजामरोषम्॥163॥
कश्चिद् विपश्चिन्नयनाभिरामं रामं समायान्तममुं च मेने।
अन्यश्च पौरः पुरूहूतमेनम् वृत्रं विजित्यागतमेव मेने॥164॥
अन्याश्च मुग्धा नवयौवनास्तु दृष्ट्वातिमुग्धा पुरुषोत्तमं तम्।
दृष्टो जनैभूमि-पुरन्दरोऽयम् कृष्णो यथा गोकुल-गोपिकाभिः ॥165॥
निजाम-सख्यातिशयं विलोक्य तत् स्वागतं सः प्रकृतं न मेने।
प्रीतिर्भयादेव तु राजनीत्याम् विज्ञाय शत्रुं कृतमद्य सख्यम् ॥166॥
नवाब-राज्यस्य स राजधानां विहाय, पुण्यं च ततो जगाम।
विधाय निष्कण्टकदक्षिणाशाम् स उत्तरस्यां दिशि गन्तुमैच्छत्॥167॥
अथैकदा प्रोषितभर्तृकाया मस्तानि-देव्याः सुमहालयेऽत्र।
श्रीबाजिरावस्य कनिष्ठबन्धुः चिमाजि अप्पेति समागतोऽभूत्॥168॥
स्वराज्यकार्ये कुशलोऽपि वीरः श्रीपेशवाकीर्तिकुलाभिमानी।
मस्तानिवास्तव्य-महालये स आदौ तु तस्थौ विनतश्चिमाजिः॥169॥
युद्धे गते बन्धुवरे तु रावे निगुह्य चित्ते निजरोषभावम्।
प्रणम्य तां नम्रतया नयज्ञः तस्थौ स तूषणीमपि वक्तुकामः॥170॥
हिन्दी-भावार्थ
पथ संचलन देखने वाली परदानसीन बेगमों ने रवि की किरणों को भी अंदर न जाने देने हेतु परदा अपने मुँह पर डाल रखा था, अपना परदा हटाकर राव को बखूबी देख लिया, वह उनकी ओर से राव का निजी स्वागत सम्मान था॥161॥
त्रिभुवन में पुरुषोत्तम उस राव को निजाम की बेगमों ने बड़े हर्ष के साथ देखा। अपने अन्तःपुर से ही उन्होंने राव का स्वागत मूल्यवान् मोतियों की वर्षा से किया॥162॥
महिलाओं ने अपने घर से तथा नगरवासियों ने अपने सब काम छोड़कर (चल समारोह में जा रहे) बाजीराव को देखा। उधर निजाम की बेगमें भी अपने अन्तःपुर से उन्हें एकटक सी होकर देखने लगी। तब निजाम का रोष हो सकता है, इस आशंका को भी वे भूल गईं थीं ॥163॥
कोई विद्वान बाजीराव के सुन्दर रूप को देखकर मान रहा था कि उस नगरी में स्वयंसुन्दर भगवान राम ही पधार रहे हैं। अन्य एक नगरवासी को लगा कि वृत्र असुर को मारकर इन्द्र ही इस नगरी में आ गये हैं॥164॥
नये यौवन से सुन्दर दिखाई देने वाली युवतियाँ राव जैसे पुरुषोत्तम को देखकर अधिक सुन्दर दिखाई देने लगीं। लोगों ने तो पृथ्वी पर प्रकट हुए इन्द्र को देखा। और स्त्रियों ने उन्हें गोकुल में गोपिकाओं द्वारा देखे गये श्रीकृष्ण के समान देखा॥165॥
राव सोचने लगे- ‘यहाँ के नवाब द्वारा किया हुआ वह अति स्वागत, मेरे प्रति दर्शाया गया सख्यभाव स्वाभाविक नहीं लगता। राजनीति में प्रेम भय से ही पैदा होता है। मैंने भी शत्रु को मन में पहचान तो लिया है, किन्तु आज यहीं नवाब की मित्रता स्वीकार कर रहा हूँ‘॥166॥
निजाम की राजधानी को छोड़कर बाजीराव वहां से पुणे गए। और इस प्रकार दक्षिण भारत को शत्रुओं से निर्विघ्न करने के बाद उनकी उत्तर भारत में पराक्रम के लिए जाने की इच्छा हुई॥167॥
अनन्तर में एक बार बाजीराव के कनिष्ठ भाई श्री चिमाजी आप्पा, बाजीराव पुणे से बाहर गये थे, तब उनकी विरहिणी अर्धांगिनी मस्तानी के सुन्दर महल में आये। (इस काव्य का यह उत्तरार्ध है)॥168॥
अपने राज्य के प्रशासन कार्य में दक्ष, शूर और पेशवा कुल के यश के प्रति गहरी आस्था रखने वाले श्री चिमाजी आप्पा शनिवारवाड़ा के प्रांगण में निर्मित मस्तानी के महल में जा पहुँचे और वह प्रथम मस्तानी के सामने विनम्र होकर खड़े रहे॥169॥
बाजीराव जब युद्ध पर बाहर गये थे, तब अपने मन के गूढ गुस्से के भाव छिपाते हुए मस्तानी को नम्र प्रणाम कर राजनीति के जानकार चिमाजी ने कुछ बोलने की इच्छा रखकर भी कुछ मौन धारण किया और खड़े ही रहे॥170॥ - डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर (दिव्ययुग - अप्रैल - 2009)
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