सातारपुर्यां नृपतिश्च शाहुः प्रेमावयोः किं न समर्थकोऽस्ति?।
किं भ्रातृजाया गृहबन्दिनीव? गृहे गृहिण्या अपमान एव॥151॥
प्रत्यर्पणीया न, विवाहिता सा पित्रा प्रदत्ता वचनैर्गृहीता।
प्रिया सुखायैव कुलद्वयस्य कन्या हि विश्वासाधनं वराय॥152॥
उवाच सोऽन्ते नयने निमील्य न केवलं रूप-गुणात् प्रिया सा।
मदर्थमेवास्ति तदीय जन्म प्रेमावयोर्देवकृतानुबन्धः ॥153॥
प्रियां चिमाजिं च ततो गृहीत्वा गतः स जेतुं युधि दक्षिणाशाम्।
प्रिया स्वबन्धुश्च सहायकौ तौ गृहे कुबन्धुः समरे सुशूरः॥154॥
मस्तानि-साकं प्रियवल्लभोऽयम् भयानकः शत्रुकृतेऽपि वीरः।
संरक्षको दीनकृते कृतज्ञ एकोऽपि दृष्टो बहुरूपवान् सः॥155॥
तदैकदान्यत्र विजेतुरस्य रावस्य मित्रत्वकृते निजामः।
रावं तदा प्रार्थितवान् सखेव शत्रुः सुहृद् वा समयानुसारम्॥156॥
एकाकिनो वीरवरस्य देशे मित्रत्वमाप्तुं विनतो निजामः।
तस्याध्वनि प्राप्य निमन्त्रणं च रावो निजामस्य पुरीं जगाम॥157॥
स्ववाजिराजोपरि बाजिरावो स निर्भयोऽपि प्रभयंकराऽपि।
सरत्नमुष्णीषमसौ दधानः स मूर्तिमानर्जुन एव दृष्टः॥158॥
काचित् सुकन्या तमनङ्गमेव मेने पुनश्चचाङ्गयुतं च रावम्।
अन्या तु मेने पुरमागतं तम् अश्वेऽश्विनीयं सुकुमारमेव॥159॥
नवाङ्गनाभिः पुरुषौत्तमोऽयम् दृष्टोऽप्यदृष्टः पुनरीक्षणाय।
राजस्त्रियस्ताः ददृशुः सुखेन पटं मुखेभ्योऽप्यवार्य रावम्॥160॥
हिन्दी भावार्थ
सतारा के नरेश शाहूराजा ने भी हम दोनों के प्रेम को मान लिया है। भाभी को घर में कैद जैसा क्यूं रखा है? इस घर की बहू होकर भी? यह अपमान है। (और मेरा भी)॥151॥
मस्तानी से मेरा विवाह हुआ है, उसे वापस लौटाया नहीं जा सकता। पिता छत्रसाल ने उसे दिया और मैंने वचन देकर उसका स्वीकार किया है। प्रिय पत्नी, पिता और पति दोनों कुलों को सुख देती है। वर के लिए कन्या विश्वास का धन होती है, जो उसका पिता वर को सौंपता है॥152॥
श्री बाजीराव ने अन्त में अपनी आँखें बन्द कर ली और कहा- मस्तानी के केवल सौन्दर्य के कारण ही वह मुझे प्रिय नहीं है। मेरे लिए ही उसका जन्म हुआ है। हम दोनों का प्रेम भगवान् की देन है। (आप लोग इसे समझ नहीं पाएंगे) ॥153॥
चिमाजी से सम्भाषण करने के उपरान्त राव मस्तानी और चिमाजी को लेकर दक्षिण दिशा में स्थित प्रान्तों को जीतने के लिये निकल पड़े। मस्तानी और चिमाजी युद्ध में दोनों उनके सहायक रहे। घर में बुरा सोचने वाले भाई चिमाजी युद्ध में अच्छे शूर (सहायक) थे॥154॥
एक ही राव को लोगों ने अनेक रूपों में देखा। मस्तानी के साथ वह प्रिय पति थे, शत्रुओं के लिए भयंकर थे तथा दीन-दुःखी लोगों के वह संरक्षक और कृतज्ञ थे॥155॥
एक समय की बात है कि किसी युद्ध से लौटते समय मार्ग में राव आ रहे थे। उन्हें सभी युद्धों में विजयी देखकर निजाम ने उनसे मित्र बनकर प्रार्थना की कि वे उसकी राजधानी में पधारकर आतिथ्य ग्रहण करें। शत्रु क्या और मित्र क्या? ये तो समय के अनुसार होते हैं॥156॥
भारत में एकमात्र श्रेष्ठ वीर के रूप में राव को देखकर निजाम ने विनम्र होकर उसकी राजधानी में पधारने हेतु प्रार्थना की। अन्य स्थान से लौटते समय मार्ग में राव को निजाम का निमन्त्रण प्राप्त हुआ। तब वे निजाम की राजधानी में पहुँचे॥157॥
अपने श्रेष्ठ घोड़े पर सवार वह बाजीराव भयरहित थे, फिर भी भय देने वाले थे। रत्नों से जड़ित पगड़ी धारण करने वाले वे साक्षात् अर्जुन के समान दिखाई दिए॥158॥
उस नगर में बाजीराव को चल-समारोह में देखकर किसी सुकन्या को लगा कि उस नगरी में पुनः शरीर से युक्त मदन आ गये हैं। और अन्य युवती ने माना कि अश्व पर आरूढ होकर स्वयं अश्विनीकुमार आ गये हैं॥159॥
उस श्रीकृष्ण जैसे पुरुष श्रेष्ठ बाजीराव को युवतियों ने देखा किन्तु नहीं देखा, क्योंकि पुनः उसे देखने की प्रबल इच्छा रह गई। निजाम की बेगमों ने अन्तःपुर से अपने मुखों से बुरका उठाकर राव को देख लिया॥160॥
टिप्पणी- चिमाजी ने छत्रपति शाहू महाराज से मस्तानी-राव के सम्बन्ध में शिकायत की थी। किन्तु राजा ने राव को इस सम्बन्ध में राव स्वतन्त्र रूप से जो चाहते हैं, उसे करने हेतु आदेश दिया। आपत्ति नहीं की। - डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर (दिव्ययुग - अप्रैल - 2009)
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