एकाकिनी सा स्वजनैर्वियुक्ता पुण्ये हिमाच्छादितपद्मिनीव।
प्राप्नोति सूर्यस्य करैर्विकासं प्रत्यागते मोदमवाप रावे॥101॥
वियोगमेघावृतराव-सूर्ये नीहारवाताहतपद्मिनी सा।
यदोदितो राव-रविः पुनश्च तदोदितास्याः कमलाननश्रीः॥102॥
सूर्यस्त तापेऽपि सरोज-रागः खड्गं शुभं वेष्टनिकागतं च।
वीरोऽपि मस्तानि-रति प्रशान्तः विभाति वीरो रमणी-सहैव॥103॥
गृहे तु चन्द्रग्रहणं गृहिण्या वियोग-राहुर्मुखचन्द्रलग्नः।
मस्तानि-चित्तं विरहाग्नितप्तम् पर्जन्यवृष्टिः प्रियरावदृष्टिः॥104॥
चन्द्रस्य कान्तिः सुखदा निशायाम् सूर्यस्य तापः प्रखरो निदाघे।
सौम्यः प्रियायां प्रखरश्च शत्रौ रूपद्वयं भास्वर-भूसुरस्य॥105॥
भास्वानिव प्रातरि वर्द्धमानः स भुसूरः क्षत्रियधर्मशूरः।
सा राजकन्या यवनी-सुतापि श्रीकृष्ण-भक्त्या शुभदा च लोके॥106॥
तत्प्रीतिरज्वा हृदये निबद्धा सा भक्तियोगाद् भयमुक्तिमाप।
निःश्रेयसे सा परमाणुरूपं प्रियस्य गर्भात्मचिदंशमाप॥107॥
मस्तानि-योगान्मधुरस्य तस्य तेजस्विता शत्रुकृतेऽवतीर्णा।
अद्रिर्वनश्री-सहवासरम्यः पारुष्यमन्तःस्थित-पौरुषं तत्॥108॥
स्वराज्यहेतोर्भुवि राव एकः स्वधर्मगोप्तारिवधे प्रवृत्तः।
लोकप्रियोऽभूत् प्रिययाऽपि साकम् धीरा गुणज्ञाः प्रभवन्ति लोके॥109॥
उपेक्षिता सा यवनीति पुण्ये प्रताडितान्यैर्बहुभिस्तथाप्तैः।
रावस्य प्रेमावरणं त्ववाप्य तया मनो रक्षितमत्र तापात्॥110॥
हिन्दी भावार्थ
पुणे नगर से जब बाजीराव कहीं बाहर जाते थे, तो मस्तानी वहाँ अकेली और अपने लोगों से दूर पड़ जाती थी। वह हिम से आच्छादित कमलिनी के समान थी। जिस प्रकार सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमलिनी पुनः विकसित होती है, उसी प्रकार राव के आने पर मस्तानी प्रसन्न होती थी॥101॥
वियोग के मेघ से आच्छादित राव रवि थे, तब मस्तानी कुहरे से तथा हवा से आहत ऐसी पद्मिनी ही थी। किन्तु जब रावरूपी सूर्य का पुनः उदय हुआ, तब मस्तानी के मुख-कमल की कान्ति दिखाई देने लगी॥।102॥
सूर्य की प्रखर धूप में भी कमल की कान्ति बनी रहती है। म्यान में रखा शस्त्र भी कल्याणकारी होता है। खड्ग तीक्ष्ण होता है, किन्तु मुलायम म्यान में शुभ-शान्त होता है। बाजीराव (रण में) तेजस्वी थे, किन्तु मस्तानी के प्रेम में शान्त हो जाते थे। वीर पुरुष रमणी के साथ शोभा देता है॥103॥
घर में ही गृहिणी होकर भी मस्तानी के लिए चन्द्रग्रहण लगता था। राव के वियोग का राहू उसके मुखचन्द्र को ग्रस रहा था। और विरह की आग से झुलसी हुई मस्तानी के लिए राव के आगमन पर उनकी दृष्टि वर्षा की वृष्टि थी॥104॥
चन्द्र की चांदनी रात्रि में सुख देती है और सूर्य का ताप ग्रीष्म में तीव्र बन जाता है। बाजीराव मस्तानी के लिए सौम्य स्वभाव के थे और शत्रु के लिए प्रखर। ये दोनों रूप उस तेजस्वी ब्राह्मण में (विद्यमान) थे॥105॥
प्रातःकाल के सूर्य के समान श्री बाजीराव वर्द्धिष्णु थे। ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय धर्म के अनुसार (लड़ने में) शूर थे। मस्तानी यवन स्त्री से उत्पन्न थी, किन्तु वह राजकन्या थी। श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण (लोगों में) कल्याणकारिणी थी॥106॥
राव के प्रेमरूपी रस्सी से मन में वह बाँधी थी, तथापि आप्तजनों के भय से भक्तियोग के कारण मुक्त थी। जिस प्रकार न्यायशास्त्र के अनुसार परमाणु अंश मोक्ष के लिए सचेष्ट होता है उसी प्रकार राव के गर्भ का चैतन्यरूप अंश उसके (उदर में) कल्याण के लिए स्थापित हुआ। वह गर्भवती हुई॥107॥
मस्तानी के साथ मधुर स्वभाव के बाजीराव की तेजस्विता का शत्रुओं को अनुभव होता था। रम्य वनश्री के संयोग से पर्वत सुन्दर दिखाई देता है, किन्तु अंदर से वह कठिन होता है। प्रसंगानुसार माधुर्य तथा तेजस्विता उनमें थी॥108॥
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित स्वराज्य के लिए उनके बाद भारत में धर्म के संरक्षक तथा शत्रुओं को मारने के लिए सक्षम श्री बाजीराव एकमात्र वीर थे। इसीलिए मस्तानी के साथ ही बाजीराव लोकप्रिय थे। गुणों को परखने वाले धैर्यशील व्यक्ति जनता में प्रभावशील होते हैं॥109॥
पुणे में यवनी मस्तानी के आने पर उसकी घोर उपेक्षा की गई। उसे अन्य लोगों और सगे-सम्बन्धियों ने बहुत पीड़ा पहुंचाई। एक राव के प्रेम की चादर थी, जिसको ओढ़कर उसने उन लोगों के ताप से अपने मन को बचाया। मनोबल खोया नहीं॥110॥ - डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर (दिव्ययुग - अगस्त - 2008)
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