सौन्दर्यमस्या हृदये यदासीत् तदेव दृष्टं मुखमण्डलेऽपि।
ताम्बूलमास्ये यदि चर्वितं चेत् कण्ठे हिश्चारुणकान्तिरस्याः॥91॥
प्रीत्या तयोः पुण्यजनाश्च तुष्टा स्थिताः स्वभावं हृदये निगुह्य।
आर्द्रेन्धने संस्थितसुप्तवन्हिः धूमानुमेयो न तु दृश्यते सः ॥92॥
श्रीबाजिरावस्य पराक्रमस्य गता सुकीर्तिः प्रति दूरदेशम्।
सौन्दर्य-पुष्पस्य तथैव तस्याः कीर्तेः सुगन्धोऽपि गतः सुदूरम्॥93॥
रावं गृहे प्राप्य विलासरम्या कृष्णस्य भक्तिर्विरहे प्रियस्य।
लतादिपर्णार्पणभक्तिमग्ना मधुप्रतीक्षां कुरुते वनश्रीः॥94॥
अग्रे गृहीत्वा निजवाजिपृष्ठे प्रियां ‘दिवेघाट’ जलाशये च।
दृष्टो विहाराय स जातु गच्छन् यथा जयश्रीः पुरतो भटस्य॥95॥
रावस्य रूपं हृदि सन्निविष्टम् नवोदितं किं प्रथमं स्मितं तत्?
स्मितं मितंचाप्यमितप्रभावं अपूर्वरागाभिमतं पुनश्च दृष्टम्॥96॥
स्मितं मनोहारि मनोकुकूलम् मिथोरहस्यं विवृतं करोति।
स्मितं जनाद् गोपयितुं तु तेन मुखं सुमुख्या पिहितं मुखेन॥97॥
सामान्यलोकैरधिवासितं तत् मस्तानि वासान्नगरं सुरम्यम्।
न निर्झरैः क्वापि निदाघरिक्तैर्नद्या तु कान्तारमतीव कान्तम्॥98॥
ईषत्स्वनीलारुणरागयुक्तम् भाति प्रभाते सरसश्च तोयम्।
नीलारुणेऽस्या नयनेऽपि रम्ये श्यामस्य रावस्य च भक्तिरागौ॥99॥
काम विदग्धा स्मरतापदग्धा माया स्वयं ब्रह्म-पदानुरक्ता।
जना न जानन्ति रतिं तदीयाम् मायाविनो ब्रह्म-सुखानभिज्ञाः॥100॥
हिन्दी भावार्थ
मस्तानी के मन में भी जो सौन्दर्य निहित था, वही उसके मुख पर दिखाई देता था। कहते हैं जब भी वह पान का आस्वाद मुख में लेती थी, तब उसके कण्ठ के बाहर से पानी की अधिक लालिमा प्रकट हुई दिखाई देती थी। उसकी काया भी उतनी ही सुन्दर थी॥91॥
श्री बाजीराव तथा मस्तानी के प्रेम के विषय में पुण्यपुरी की प्रजा सन्तोष का अनुभव करती थी। किन्तु वे लोग अपनी भावना को हृदय में ही गुप्त रखते थे। जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग अवश्य होती है, इस व्याप्ति सत्य के अनुसार पुणे की प्रजा के मन में उन दोनों के प्रति सन्तोष था, किन्तु उसे वे प्रकट नहीं करते थे। प्रेम तो अनुमान से ज्ञात होता था। अग्निरूपी आदर भाव का लोगों के धुएँ रूपी मौन से अनुमान होता है। ॥92॥
श्री बाजीराव के पराक्रम की गाथा दूर-दूर तक फैल चुकी थी और मस्तानी के सौन्दर्य की बात भी दूर तक गई थी। मस्तानी के पुष्प के समान सौन्दर्य के साथ बाजीराव के पराक्रम की कीर्ति-सुगंध देश में दूर तक गई थी॥93॥
प्रिय राव के घर लौटने पर विलास होता था। श्री बाजीराव जब युद्ध के लिए बाहर पधारते थे, तब मस्तानी श्रीकृष्ण भक्ति के रस में अपने आप को समर्पित कर देती थी। लता आदि अपने पतझड़ के रूप में पत्तों को न्यौछावर करती हुई बसंत की प्रतीक्षा जिस प्रकार बनश्री करती है, मस्तानी भी उस प्रकार श्री बाजीराव की प्रतीक्षा में भक्ति में डूबी रहती थी॥94॥
कभी कभी (निर्भय होकर) बाजीराव अपने घोड़े के अग्रभाग पर मस्तानी को लेकर पुणे के प्रख्यात ‘दिवेघाट’ नामक जलाशय पर विहार करने हेतु जाते थे, तब उन्हें लोग देखते थे। जैसे किसी वीर पुरुष के आगे-आगे जयश्री चल रही थी । आज भी वह मस्तानी सरोवर कहलाता है॥95॥
मस्तानी के हृदय में बाजीराव का रूप पैठ गया। क्या उसी समय उसके मुख पर पहला स्मित उदित हुआ? उसका स्मित किंचित् था, याने सीमित था, किन्तु उस स्मित का प्रभाव असीम था। प्रथम प्यार की सम्मति देता हुआ वह पुनः दिखाई दिया॥96॥
मस्तानी के मुख पर किञ्चित् स्मित आया, वह मनोहर तथा मन के लिये अनुकूल तो था ही, और वह उन दोनों के मन में उदित (प्रेम) रहस्य को भी उजागर कर रहा था। इसीलिए उस स्मित को और लोगों से छुपाने के लिए बाजीराव ने अपने मुख से उसके सुन्दर मुख को आच्छादित कर दिया॥97॥
उस पुणे नगर में सामान्य लोगों की बस्ती थी, किन्तु मस्तानी के वास्तव्य से उसकी शोभा अधिक बढ़ गई। ग्रीष्म में कहीं जल्दी सूख जाने वाले झरनों से नहीं, अपितु वन की शोभा उसमें बहने वाली नदी से अधिक बढ़ती है॥98॥
प्रातःकाल में सरोवर का जल किंचित् नीला और किंचित् लाल जैसा होने से सुन्दर दिखाई देता है। (नीला जल और उसमें अरुणोदय की रक्तिम छटा से सौन्दर्य बढ़ता है)। और इस मस्तानी के दोनों आँखों में (श्रीकृष्ण) भक्ति का नीला और श्री बाजीराव के प्रति प्रेम का अरुणाई रंग प्रकट हो रहा था। भक्ति और प्रीति के रंग में मस्तानी रंग गई थी। कृष्ण घनश्याम और बाजीराव की आरक्तकान्ति उसके नेत्रों में समा गई थी॥99॥
शृंगार में कुशल, कामदेव के ताप से पीड़ित वह मस्तानी ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की भक्ति में उनकी माया थी। ब्राह्मणवीर बाजीराव के प्रति समर्पित थी। लोग उनकी प्रीति को नहीं समझ सके थे। जो लोग माया के चंगुल में ही फँसे रहते हैं वे ब्रह्मानन्द को नहीं जानते॥100॥ - डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर (दिव्ययुग - जून - 2008)
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