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गौ के तीन रूप

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Cowगावो घृतस्य मातरोभूं सं वा नयन्तु मे। (अथर्ववेद 6.9.3)

‘गौ’ के मुख्य अर्थ पृथ्वी, वाणी और गाय हैं। इन तीनों को माता कहा जाता है। पृथ्वी माता प्राणि-मात्र को धारण करती है तथा गाय माता मनुष्यों का दुग्ध द्वारा पोषण द्वारा करती है। वेदवाणी रूपी माता ज्ञान प्रदान करके मनुष्य को दीप्त करती है। ये तीनों माताएँ उसी को घृत प्रदान करके दीप्त करती हैं जो अपनी अग्नि को दीप्त करके घृत को पचाने के लिए ‘जमदग्नि’ बनने का प्रयत्न करता है।

आध्यात्मिक अर्थ- ज्ञानाग्नि को दीप्त करने वाले या ज्ञानाग्नि की दीप्ति के इच्छुक को वेदमाता की वाणियाँ सब क्षेत्रों में दीप्त करती और निर्माता बनाती है।

आधिदैविक अर्थ- किसी भी क्षेत्र में जमदग्नि बनने के इच्छुक व्यक्ति को पृथ्वी माता सब प्रकार के अन्न प्रदान करके सब क्षेत्रों में कार्यरत होने के लिए उसके शरीर की दीप्ति का निर्माण कर देती है। वह प्रत्येक क्षेत्र में निर्माता बन सकता है।

आधिभौतिक अर्थ- गौएं और माताएं अपनी और आश्रयदाता की (धाय रूप में) सन्तान को अपनी दुग्ध पान कराकर अधिक से अधिक स्नेह और दीप्ति प्रदान करती हैं।

अतः इस मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि ये तीनों माताएँ मेरी पत्नी को मेरे इतना समीप ले आएं कि वह सदा मेरी भक्त बनी रहे, मेरे वश में रहे, मुझे सदा आदर और प्रेम से देखे।

निष्कर्ष- पति-पत्नी दोनों का ऐसा भोजन हो, ऐसे विचार हों कि वे कभी अलग होने का विचार ही न कर सकें। क्योंकि दोनों परस्पर शक्ति और दीप्ति के स्रोत बनते हैं। पृथक होने के बाद दोनों ही निर्बल और निस्तेज हो जाते हैं। दोनों का समाज में आदर घट जाता है।

यह मन्त्र अनुष्टुप् छन्द में है। ‘अनुष्टुप्’ का अर्थ संकेत करता है कि दोनों अनुकूल रहकर परस्पर स्तुति किया करें अर्थात् एक दूसरे के गुणों का वर्धन और अवगुणों का निवारण करने की प्रेरणा किया करें। - मनोहर विद्यालंकार

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