ओ3म् इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चितिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मा नं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥ (ऋग्वेद 2.21.6)
वेद सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ है। इसमें अन्य विद्याओं के साथ ही परमेश्वर से प्रार्थना की विद्या भी मिलती है। प्रभु सदा-सदा के दाता हैं तथा मनुष्य युगयुगान्तरों का याचक। न दानी दान करते थकता है और न मांगने वाला मांगते हुए ही थकता है। बालकों को कभी-कभी माता-पिता धमका देते हैं कि हर समय मांगता ही रहता है। हमें भिक्षुक भी इसीलिए अप्रिय लगते हैं, क्योंकि वे हर समय मांगते रहते हैं। किन्तु इस ब्रह्माण्ड में एक ऐसा दानी भी है जो देते हुए न अघाता है, न कुढ़ता है और न झिड़कता है। ऐसा दानी प्रभु है और याचक जीव। हमने मांगा और उसने दिया। पात्र को तो वह देता ही है, किन्तु कई बार जब हम अपने को देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि जो उसने हमें दिया और जितना दिया वस्तुतः हम उसके योग्य नहीं थे। किन्तु पिता का वात्सल्य शायद योग्य-अयोग्य के चक्कर में नहीं पड़ता। तभी तो उसने हमें इतना दिया है जिसे पाने के हम पात्र भी नहीं थे। वर्षा, जल, वायु, धूप, चान्दनी को तो वह खुले हाथों देता है और सबको देता है। जब प्रभु दानी है तो क्यों न उससे खूब मांग लिया जाए! एक वेद मन्त्र में उसे प्रसिद्ध बहुदाता कहा है- भूमि ह्यसि श्रुतः (ऋग्वेद 8.32.21)। वहीं यह भी कहा है-
भूरिदा भूरि देहि नो मा द्रभं भूर्या भर।
भूरि घेदिन्द्र दित्सति॥ ऋग्वेद 4.32.20
हे प्रभो! आप बहुत देने वाले हैं, हमें बहुत देवें, कम न दें, अपितु अधिक से अधिक दें। हे अनन्त ऐश्वर्य के भण्डार! आप स्वयं भी तो बहुत अधिक देना चाहते हैं।
कैसा विचित्र है दाता! सबसे निराला दानी। अन्य दानी तो मांगने पर देते हैंकिन्तु ’दित्सति’ वह (प्रभु) तो अधिक से अधिक देने की इच्छा कर रहा है। लो, खूब लो, झोलियाँ भर-भर लो। मांगने पर भी दूंगा, बिना मांगे भी दूंगा। मैं तो स्वयं अधिकाधिक देने की इच्छा करता हूँ। दाता का यह स्वरूप देखकर भक्त की भी मांगने की इच्छा हो उठी और वह मांगने लगाः-
इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चितिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मा नं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥ (ऋग्वेद 2.21.6)
हे (इन्द्र) परमेश्वर्य के भण्डार प्रभो (अस्मे) हमें (श्रेष्ठानि) सर्वोत्कृष्ट (द्रविणानि) धन (दक्षस्य) सामर्थ्य तथा निपुणता का (चित्तिम्) ज्ञान (सुभगत्वम्) सौभाग्य (रयीणां पोषम्) ऐश्वर्यों की पुष्टि (तनूनाम् अरिष्टिम्) शरीरों की नीरोगता=आरोग्य (वाचः स्वादमानम्) वाणी का माधुर्य तथा (अह्नां सुदिनत्वम्) दिनों की सुदिनता-शोभनता (धेहि) प्रदान कीजिए।
उत्तरोत्तर भिखारी की झोली फैलती गई। जब दाता देने को तैयार है तो मांगने में कृपणता क्यों दिखाई जाए! द्वार पर अलख जगाई, ऐ परमैश्वर्य के भण्डार प्रभो! हम मांगने आए हैं, हमें दे। पूछा क्या मांगता है? कहा, सामर्थ्य तथा चातुर्य का ज्ञान, सौभाग्य व धनों की वृद्धि, शरीरों की नीरोगता, वाणी का मिठास और दिन हमारे लिए सुदिन बन जाएं।
इस मन्त्र में परमात्मा को ‘इन्द्र’ कहकर सम्बोधित किया है। इन्द्र शब्द ‘इदि परमैश्वर्य’ धातु से रन् प्रत्यय करने पर बनता है। मानवों के पास तो सामान्य ऐश्वर्य हो सकते हैं और वे भी प्रभु के दिये हुए। किन्तु प्रभु तो परम ऐश्वर्य के स्वामी हैं। अतः प्रार्थी को चूंकि ऐश्वर्य चाहिए, अतः वह अग्नि-वरुण आदि शब्दों से परमात्मा का सम्बोधन न करके इन्द्र पद से उन्हें सम्बोधित करता है। क्योंकि वह परम ऐश्वर्य तो सम्भाल नहीं सकता। लोटे में बाल्टी का पानी ही नहीं समाता फिर समुद्र के भरने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः वह उनसे सर्वोत्कृष्ट धन मांगता है। प्रभु का जीव के लिए सर्वोत्कृष्ट धन ‘मुक्ति’ है। दुःखों से सर्वथा छुटकारा-तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः। कहीं भक्त सर्वोत्कृष्ट कहकर उसी की तो याचना नहीं कर रहा? अन्यथा पुनः ‘पोषं रयीणाम्’ क्यों कहता।
’चित्तिं दक्षस्य’ दक्षता बल, उत्साह और निपुणता को कहते हैं। उसका ज्ञान मांगने का अभिप्राय है कि भक्त को यह ज्ञान होना चाहिए कि बल, उत्साह और निपुणता का सदुपयोग कैसे किया जाए। ये वस्तुएं मिल गई और प्रापक को उनके सदुपयोग का ज्ञान नहीं तो इनका दुरुपयोग भी सम्भव है। एक विद्वान लिखते हैं-
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
जब मूर्ख के पास विद्या, धन तथा बल आता है तो वह ज्ञान को विवाद करने, धन को अभिमान से चूर होने तथा शक्ति का दुर्बलों को सताने में दुरुपयोग करता है। किन्तु जब यही वस्तुएं सज्जन के पास आती हैं तो वह विद्या का सदुपयोग ज्ञान का प्रचार करने में करता है तथा शक्ति से वह निर्बलों की रक्षा करता है और धन को वह अभावग्रस्तों के पालन में लगाता है। कितना परिवर्तन हो जाता है ज्ञान के आते ही! वैद्यों के हाथ में आया संखिया विष के स्थान पर अमृत बन जाता हैतथा मृत्यु के स्थान पर जीवन देने वाला बन जाता है, जबकि अज्ञानी घी-दूध सरीखे अमृत तत्वों का दुरुपयोग करके उनसे मृत्यु का ग्रास बन जाता है। अतः भक्त कहता है कि हे प्रभो! आप मुझे सामर्थ्य, उत्साह तथा निपुणता का ज्ञान दो, जिससे मैं इनका सदुपयोग करके इनसे अपना तथा जगत् का उपकार कर सकूं।
‘सुभगत्वम्’ यह शब्द जहाँ सौभाग्य का सूचक है वहाँ अन्य अर्थों की प्रतीति भी कराता है। ’भग’ का अर्थ करते हुए कहा गया है-
ऐश्वर्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः
ज्ञान-वैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतीरणा॥
अर्थात् भग शब्द के छः अर्थ हैं- सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, शोभा, ज्ञान तथा वैराग्य (बुराइयों के प्रति अरुचि)। अतः भग के साथ सु उपसर्ग यह द्योतित करता है कि ये वस्तुएं शोभन होनी चाहिएं बनावटी नहीं। कृत्रिम ऐश्वर्य पापाचार से कमाया धन है। लूट- पाट, चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, जुआ, काला धन ये सुभग नहीं हो सकते। धर्म का लबादा ओढ़े व्यक्ति का धर्म सुभग नहीं है।
ऊपर से उजला भया, भीतर रूप अनेक।
नारायण तासों कौआ भला, तन-मन एक॥
पूर्ण आस्थापूर्वक अन्दर से धार्मिक होना ही सुभगत्व का रूप है, इससे भिन्न नहीं।
‘पोषं रयीणाम्’ प्रभु धन देते भी हैं तथा छीन भी लेते हैं। वे शिव हैं, कल्याण एवं मंगल करने वाले भी हैं। धन आकर चला जाता है तो स्वाभाविक दुःख होता है, चिन्ताएं लग जाती हैं जो स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती हैं। यदि धन बढ़ता रहता है तो प्रबलता बढ़ती है। विवाह संस्कार के समय सप्तपदी के अवसर पर तीसरा पग उठाते हुए कहा जाता है- रायस्पोषाय त्रिपदी भव। धन के पोषण के लिए तीसरा पग रखो। यह भी गृहस्थ का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने तथा दुःख एवं चिन्ताएं हटकर प्रसन्नतापूर्वक जीवन बिताने की कामना से कहा जाता है।
धन के पोषण का एक अन्य अर्थ भी हो सकता है। जैसे सुक्षेत्र में बोया बीज पुष्टि पाता है तथा ऊसर में डाला बीज पोषणरहित रह जाता या नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार शुभ कार्यों में लगाया धन पुष्ट होता है तथा कुकर्मों में लगाया धन पोषण नहीं करता अपितु शोषण करता है। भक्त धन का पोषण चाहता है। अतः इसका यह भाव भी है कि प्रभो! मेरा धन शुभ कर्मों में लगे कुकर्मों में नहीं।
‘अरिष्टिं तनूनाम्’ शरीरों की आरोग्यता भी सुखप्राप्ति में प्रथम स्थान रखती है। ‘पहला सुख नीरोगी काया’ कहावत में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है। सुकर्म करने के लिये भी शरीर की आरोग्यता अनिवार्य है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। रोगी शरीर जहाँ अपने लिए अभिशाप बन जाता है वहाँ वह अन्यों का न भला कर सकता है और न उन्हें सुख दे सकता है। टूटी हुई गाड़ी पर जब उसका स्वामी स्वयं ही यात्रा नहीं कर सकता, तब उससे अन्यों को सुख देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतः धर्म-अर्थ-काम एवं मोक्ष की सिद्धि के लिए निरोगी शरीर आवश्यक है। भक्त प्रभु से शरीरों की आरोग्यता की प्रार्थना करता है। शरीर के साथ बहुवचन का प्रयोग यह सन्देश दे रहा है कि हमारे स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर के सुसंस्कार तीनों मिलाकर व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ माना जाता है। वेद में ‘तनूनाम्’ में बहुवचन के प्रयोग में यही भाव स्पष्ट होता है।
’स्वाद्मानं वाचः’ वाणी की मधुरता भी प्रभु की प्रिय देन है। संस्कृत साहित्य में कहा गया है-
यदीच्छसिजगद् कर्तुंवशमेकेन कर्मणा।
परावपवाद सस्येभ्यश्चरन्तीं गां निवारय॥
यदि तू किसी एक ही कर्म से जगत् को वश में करना चाहता है तो परनिन्दादि की खेती में चरती हुई अपनी वाणी रूपी गाय को रोक ले।
कागा का को धन हरे कोयल का को देय।
मीठी बाणी बोलकर जग वश में कर लेय॥
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपै शीतल होय।
वाणी एक अमोल है, बोली जाए तो बोल।
हिये तराजू तोल कर, मुख से बाहर खोल॥
मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर।
श्रवण द्वारे संचरे, साले सकल शरीर॥
तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुं ओर।
वशीकरण एक मन्त्र है, तज दे वचन कठोर॥
इन दोहों में भी मीठी वाणी की महिमा बतलाते हुए कहा है कि कौए तथा कोयल को देखो! न कौआ किसी का धन हरता है न कोयल किसी को कुछ देती है। केवल मीठे वचन से कोयल सबकी प्यारी बन जाती है तथा कटु शब्दों से कौआ अप्रिय बन जाता है। अहंकार त्यागकर ऐसी वाणी बोलना चाहिए जो औरों को भी शीतलता दे तथा अपने को भी। वाणी एक अमूल्य वस्तु है। उसे हृदय की तुला पर तोलकर मुंह से बाहर निकालना चाहिए। मीठा वचन औषध का काम करता है तथा कडुआ वचन तीर का। वह कान के रास्ते घुसकर समस्त शरीर को बींध डालता है। तुलसी जी कहते हैं कि मीठे वचन से सुख उत्पन्न होता है। जगत् को वश में करने का एक ही मन्त्र है और वह है कड़वी वाणी न बोलना।
‘स्वाद्मानम्’ शब्द में बड़ी महत्व की बात यह है कि हम ऐसी वाणी बोलें कि उसे सुनने वाला ऐसे पसन्द करे, जैसे स्वादयुक्त वस्तु को खाकर पसन्द करता है तथा चाहता है कि वह उसे पुनः चखने को मिले। इसी प्रकार लोग हमारी वाणी सुनने को तरसते रहें। जहाँ हम जाएँ वहाँ लोग हमारी बात सुनने के लिए लालायित रहें। मनु ने- ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्’ कहकर सत्य को मधुर बनाकर बोलने तथा ऐसा सत्य न बोलने का विधान किया है जो अप्रिय हो। यहाँ भक्त भी प्रभु से यही प्रार्थना करता है।
सबसे अन्त में प्रार्थना की है- सुदिनत्वमह्नाम्। व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे, जिसके लिए वह संसार में आया है। मानव जीवन का उद्देश्य धर्म-अर्थ-काम तथा मोक्ष रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय को प्राप्त करना है। यदि वह इस ओर न चला तो उसे दुर्दिन देखने पड़ेंगे।
यदि व्यक्ति धर्म एवं मोक्ष की उपेक्षा करके अर्थ तथा काम में आसक्त रहता है तो उसे सुदिन के लिए तरसना होगा। स्मरण रहे कि सुखस्य मूलं धर्मः। सुख का मूल धर्म है। धर्म का पालन करने से दुःखों से मुक्ति होगी। धर्मपूर्वक चलने पर अर्थ तथा काम भी सुख के साधन बन जाते हैं। किन्तु धर्महीन होने पर इनमें से सुख निकल जाता है तथा व्यक्ति दुःख के गर्त में गिर जाता है।
इस प्रकार वेद में परमात्मा ने मनुष्यों के सुख के लिए याचनीय वस्तुओं को मांगने का उपदेश तो दिया ही है, किन्तु साथ ही यह भी उनका आदेश है कि- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। जीओ सौ वर्ष, पर पुरुषार्थी होकर। अतः जो हम प्रभु से प्रार्थना करें उसके लिए हमारा पुरुषार्थ भी अपेक्षित है। क्योंकि पुरुषार्थ और प्रार्थना का चोली-दामन का साथ है। हम अपना सीमित पुरुषार्थ करते हुए उस दाता से मांगे, खूब मांगे कि-
जो मांगना मांग ले, खुदा से अमीर तू।
उसके दर पै आबरू नहीं जाती सवाल से॥ - आचार्य डॉ. संजयदेव
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