काले अंग्रेजों के हाथ में यह राष्ट्र
जीवन में कभी अतीत की गहराई में झांकना बड़ा ही अच्छा लगता है और सुखद भी। यहाँ यह बात राष्ट्रों के अतीत के सन्दर्भ में कही जा रही है। त्रेतायुग के काल से इस राष्ट्र की विभिन्न शासन प्रणालियों का अध्ययन पिछले दिनों कर रहा था। इसी क्रम में कुछ ऐसे तथ्यों की जानकारी मिली जिन्हें न केवल मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूँ, अपितु मेरी मंशा है कि हम कुछ बातों की प्रासंगिकता आज के युग में भी जानें। यह बात सत्य है कि श्रीराम को परिस्थितिवश वन में जाना पड़ा, फिर भी उनके ज्येष्ठ दशरथनन्दन होने के नाते महाराज दशरथ यह देखकर चिन्तित थे कि श्रीराम चिन्ता में हैं। कुछ प्रश्न उनके मन में उमड़-घुमड़कर आते हैं और उन्हें व्यथित कर जाते हैं। यथासम्भव उन्होंने स्वयं भी उनका निराकरण किया और बाद में महर्षि वशिष्ठ को विस्तार से सारी बात बताई। श्रीराम और महर्षि वशिष्ठ में एक लम्बा वार्तालाप हुआ। आज परम सौभाग्य की बात यह है कि इन सभी वार्तालापों का सम्पूर्ण वृतान्त योग वाशिष्ठ ग्रन्थ में उपलब्ध है। वैराग्य की भी बहुत सी बातें इसमें हैं। परन्तु एक राजा का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए, उसमें यह सब भी निहित है। योग वाशिष्ठ अनुपम है, किसी अन्य कृति से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
ठीक इसी प्रकार महाभारत में एक अन्धे राजा ने जब यह देखा कि उसकी विदुषी पत्नी ने भी आँखों में पट्टी बान्ध ली और सारे के सारे राजकुमार नालायक निकल गए तो उस राजा ने विदुर जी को निमन्त्रण दिया। एक छोटा परन्तु बड़ा सारगर्भित ग्रन्थ प्रकट हुआ। हम उसे कहते हैं विदुर नीति। भावी घटनाएं कुछ और थीं, वरना धृतराष्ट्र का यह प्रयास स्तुत्य था।
अब शिवाजी राजे की बात। भारतवर्ष में हिन्दू पद पादशाही का उनका स्वप्न पूरा हुआ। परन्तु उससे पहले एक अद्भुत कृति का प्राकट्य हुआ। उसका नाम है ’दास बोध’। मनुष्य को स्वयं को अपनी पूर्णता में समझ पाने की यह अद्भुत कृति है। समर्थ रामदास जी ने अपने प्रिय शिष्य शिवा की झोली में ‘दास बोध’ डाला और शिवाजी ने समस्त राजपाट उन्हें समर्पित कर दिया, ‘राजध्वज’ को भगवे के रंग में दिया और नारा दिया ‘जय-जय रघुवीर समर्थ’।
उत्कृष्ट अर्थशास्त्र- इस शृंखला में कौटिल्य को कैसे भूलें। अर्थशास्त्र का एक-एक वचन चीख-चीखकर कह रहा है कि इससे उत्कृष्ट रचना पिछले हजारों वर्षों में नहीं रची गई। योग वाशिष्ठ, विदुरनीति, दासबोध और अर्थशास्त्र सब कुछ हमारे पास था, फिर भी हम सदियों तक गुलाम रहे। क्योंकि हम अपनी जड़ों से कट गए।
आज इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। जिस राह पर हम चल रहे हैं, वह सिवाय ‘विध्वंस’ के हमें कहाँ ले जाएगा? कारण क्या है? कारण एक ही है कि स्वाधीनता के बाद गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकलकर काले अंग्रेजों के हाथ में देश चला गया। यह सारे के सारे मैकाले के मानसपुत्र थे। इन्होंने भारत को इसकी जड़ों से काट दिया।
माथे का कोढ़- ‘धर्मनिरपेक्षता’ नामक शब्द भारत के माथे पर कोढ़ बनकर उभरा। यह आज भी इस राष्ट्र के लिए कलंक है। धर्म के प्रति न तो आज तक कोई निरपेक्ष हो सका है और न ही भविष्य में होगा, क्योंकि धर्म चेतना का विज्ञान है, अतः हमेशा एक ही रहता है दो नहीं हो सकता।
क्षमा, दया, शील, सच्चरित्रता ये धारण करने योग्य हैं। अतः जो उन्हें धारण करता है वही धार्मिक है। जो निरपेक्ष है वह बेईमान है। अपने संस्कारों को अक्षुण्ण रखते हुए ही धार्मिक रहा जा सकता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा- स्वधर्मे निधनं श्रेयः। इसका एक ही आशय है, अपनी निजता न खोओ। अपने धर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है। ढोंगी न बनो। ढोंगी को तो नरक में भी जगह नहीं मिलती। भगवान कृष्ण ने कहा कि अपना धर्म श्रेष्ठ है, परन्तु किसी की विचारधारा का अनादर न करो। इन बेईमान पाखण्डियो को देखो, जो सवेरे मजारों पर चादर चढ़ाते हैं, दोपहर को मन्दिरों में जाते हैं, शाम को चर्चों में जाकर भाषण देते हैं तथा रात में गुरुद्वारे जाकर सिरोपा लेते हैं।
ऐसे लगता है इन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया! सावधान! ये पहले दर्जे के पाखण्डी हैं, यह ढोंग कर रहे हैं। जो राजनेता परमहंसों जैसा आचरण करे उसे और क्या कहेंगे?
भारत के एक राज्य कश्मीर में चुन-चुनकर ’हिन्दुओं’ को खदेड़ दिया गया था। इनकी रक्षा का प्रबन्ध यह सरकार नहीं कर सकी, क्योंकि सारी की सारी सरकारें ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं और पण्डितों के लिए न्याय मांगने वाले साम्प्रदायिक करार दिए जा रहे हैं।
अनोखी धर्मनिरपेक्षता- भारत विश्व के दृश्यपटल पर सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष देश है। यह ऐसा धर्मनिरपेक्ष है कि इसकी जैसी धर्मनिरपेक्षता होनी बड़ी मुश्किल है। जो नई नस्लें हैं, उन्हें क्या मालूम कि हम क्या चीज हैं। भारत आजाद हुआ, इसके लिए बाकायदा ‘इण्डियन इंडिपैंडेंस एक्ट’ बना। पाकिस्तान वजूद में आ गया। अंग्रेजों ने उन्हें कश्मीर नहीं दिया था। उसे हमारे साथ महाराज हरिसिंह ने विलय किया था। ऐसा विलय 542 रियासतों ने पहले ही कर दिया था। सबकी बात हमने सुनी-मानी, परन्तु कश्मीर में घुण्डी अड़ गई। यह अनोखी धर्मनिरपेक्षता थी।
शेख और महाराजा के अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। महाराजा ने उन्हें राजद्रोह के आरोप में कैद कर रखा था, जबकि पण्डित जवाहरलाल नेहरू और महाराजा के सम्बन्ध भी अच्छे नहीं थे। शेख अबदुल्ला तिलमिला उठे। वह बाहर आए, नेहरू से मिले और शेख ने चाल चल दी। 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। यह एक पूर्ण रूप से सुनियोजित षड़्यन्त्र था। भयंकर मारकाट हुई। महाराजा ने अपनी रियायत को भारत के हक में विलय के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। श्रीनगर तो बच गया, परन्तु हमारा 2/5 भाग पाकिस्तान ने जबरदस्ती हथिया लिया। पाकिस्तान की बलात्कारी फौज का जवाब देने के लिए हमारी सेना पहुंच चुकी थी। घनघारा सिंह और ब्रिगेडियर परांजपे मौजूद थे। छह घण्टों के अन्दर हमारा भूभाग वापस आ सकता था, परन्तु सेना का नियन्त्रण और उसे आगे बढ़ने का अधिकार केवल शेख के हाथ में विशेष आदेश के द्वारा नेहरू ने दे रखा था।
कारण था हमारी धर्मनिरपेक्षता।
सवाल भारतीयता का नहीं धर्मनिरपेक्षता का था। महाराज हरिसिंह रोते रहे, हमने अपना भू-भाग गंवा दिया और मामला संयुक्त राष्ट्र तक जा पहुंचा। हम अपनी सरजमी से विशाल सेना होते हुए भी दुश्मन को खदेड़ नहीं सके। हमारी धर्मनिरपेक्षता आड़े आ गई।
मगरमच्छ के आँसू- पाकिस्तान ने हमारे भू-भाग का 13 हजार वर्ग किलोमीटर 2 मार्च 1963 को चीन को दान कर दिया। सीमा निर्धारण के बहाने किए गए इस कुकृत्य पर बतौर विदेश मन्त्री भुट्टो ने हस्ताक्षर कर दिए और उधर चीन के तत्कालीन विदेश मन्त्री चेन यी ने दस्तखत किए। जब पण्डित नेहरू पर दबाव पड़ा तो उन्होंने मगरमच्छी आंसुओं से भरा एक भाषण लोकसभा में 5 मार्च 1963 को दिया था।
यह एक धर्मनिरपेक्ष और ढोंगी प्रधानमन्त्री की तकरीर थी। रो रहे थे कि हम क्या करें, अभी समय विपरीत है, हमने अपना प्रोटैस्ट कर दिया है। कांग्रेसी बन्धु इसे पढें और अपना सिर पीटें। नेहरू रोते क्यों न? 1962 के युद्ध में उन्होंने हमारी दुर्गति करवा दी। चीन के नाम से रूह कांप रही थी। इसकी सारी दास्तां तब ले. जनरल बी.एम. कौल ने अपनी किताब ’'Untold Story'’ में बयान कर दी। उसे आज भी पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन किसे फिक्र है जो इन दस्तावेजों में जाए? नेहरू का 1964 में निधन हो गया।
1965 में पाकिस्तान ने हम पर आक्रमण कर दिया। तब तक लाल बहादुर शास्त्री की कृपा से हममें बड़ा गुणात्मक फर्क आ गया था। हमने पाकिस्तान को दिन के तारे दिखा दिए। हमारी सेनाएं लाहौर तक जा पहुंची। उन्होंने कच्छ के रण में हमारा एक हिस्सा कब्जे में ले लिया। पाकिस्तान ने चाल चली। हमारे परम मित्र कोसीजिन से मिलकर अयूब ने ताशकन्द में समझौता किया। हमने उनका सारा भूभाग छोड़ दिया, उन्होंने कच्छ में आज तक हमारी जमीन न छोड़ी। क्यों? क्योंकि हमने धर्मनिरपेक्ष तरीके से इसका प्रोटैस्ट किया। 1971 में फिर वही तवारीख दुहराई। हम चाहते तो शिमला समझौते में अपना कश्मीर वापस ले सकते थे, पर इन्दिरा जी की धर्मनिरपेक्षता आड़े आ गई। तब से लेकर आज तक कश्मीर जल रहा है। आज धर्मनिरपेक्ष सरकार हमारे देश में वजूद आ गई है। लेकिन इन 30-32 वर्षों में कश्मीर में क्या हुआ इसका हाल सुनें।
धिक्कार है- कश्मीर घाटी में 2.14 गुना क्षेत्रफल जम्मू का है। कश्मीर घाटी से 4.35 गुना क्षेत्रफल लद्दाख का है। इस राज्य की 90 प्रतिशत आय जम्मू और लद्दाख से है। 10 प्रतिशत घाटी से है। लेकिन सम्पूर्ण आय का 90 प्रतिशत हिस्सा घाटी में खर्च किया जाता है। कारण क्या है? हमें इस बात का मलाल नहीं कि 3 लाख हिन्दू क्यों निकाल दिए गए। हमें यह मलाल नहीं कि बौद्धों के साथ क्या हो रहा है। पर हमें इस बात की सबसे ज्यादा फिक्र है कि- * वहाँ दो नागरिकताएँ कायम रहें। * अनुच्छेद 370 कभी न हटे। * भारत का संविधान लागू न हो। वहाँ कोई जमीन न खरीद सके। भारत का कानून लागू न हो। * वहाँ की बेटी भारत में शादी करे तो नागरिकता खो बैठे और पाकिस्तान में करे तो वहाँ की नागरिक हो जाए।
जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता का प्रस्ताव हमारी सरकार के पास है। अगर हमारी सरकार की धर्मनिरपेक्षता ने फिर जोर मारा, तो हमारा प्यारा कश्मीर डि-फेक्टो पाकिस्तान हो जाएगा और हमारे पास डि-जुरी कश्मीर ही रहेगा। हम तब तक ‘कश्मीर हमारा अभिन्न अंग’ को गाएंगे, ओढेंगे, बिछायेंगे और चरखे के गुण गाएंगे। अफसोस! एक अरब 25 लाख लोगों का यह मुल्क इतना मोहताज हो गया कि प्राचीन गौरव और परम्पराएं भूल गया। धिक्कार है, इस राष्ट्र के धरती पुत्र पर। मानसिक रूप से इस राष्ट्र को निर्णायक जंग के लिए तैयार करना होगा। - अश्विनी कुमार (सम्पादक, पंजाब केसरी)
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