ओ3म् आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रुवास्तिष्ठाविचाचलि:।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्॥
इहैवेधि माप च्योष्ठा: पर्वत इवाविचाचलि:।
इन्द्र इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय॥ ऋग्वेद 10.173.1-2॥
शब्दार्थ- हे राष्ट्रनायक ! (आ त्वाम् हार्षम़्) मैं तुझे इन्द्रासन पर लाता हूँ, बैठाता हूँ। तू (अन्त: एधि) उस पर आसीन हो। तू (ध्रुव: अविचाचलि:) ध्रुव और अचल होकर, दृढतापूर्वक राजगद्दी पर आसीन होकर इस प्रकार शासन कर कि (सर्वा: विश: त्वा वाञ्छन्तु) समस्त प्रजा तुझको चाहे, तेरे साथ प्रेम करे। (त्वद् राष्ट्रम् मा अधिभ्रशत्) तेरे हाथों से राष्ट्र न निकल जाए, तेरे कारण राष्ट्र भ्रष्ट न हो अपितु राष्ट्र का अभ्युदय हो।
(इह एव ऐधि) तू यहाँ ही रह अर्थात् अपने कर्तव्य पर दृढ रह (मा अप च्योष्ठा:) तू कभी पतन की ओर मत जा (पर्वत इव अविचाचलि:) पर्वत के समान अविचल और (इन्द्र, इव ध्रुव:) इन्द्र के समान स्थिर होकर (इह तिष्ठ) यहाँ, अपने व्रत में स्थिर रह (उ) और (राष्ट्रम् धारय) राष्ट्र को धारण कर।
उपर्युक्त दो मन्त्रों में निम्न राजनैतिक मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है-
1. राजा का चुनाव होना चाहिए।
2. राजा को इस प्रकार शासन करना चाहिए कि सभी लोग राजा को प्रेम एवं स्नेह की दृष्टि से देखें।
3. राजा को चञ्चल न होकर पर्वत के समान दृढ, अटल एवं निश्चल होना चाहिए।
4. उससे राज्य में राष्ट्र की हर प्रकार से उन्नति एवं समृद्धि होनी चाहिए। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- मार्च 2015)
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