विशेष :

यज्ञ कर्म करो

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

Perform Yajna Deeds

ओ3म् ये भक्षयन्तो न वसून्यानृधुर्यानग्नयो अन्वतप्यन्त धिष्ण्या:।
या तेषामवया दुरिष्टि: स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्‍वकर्मा॥ अथर्ववेद 2.35.1॥
ऋषि: अङ्गिरा:॥ देवता विश्‍वकर्मा॥ छन्द: बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्॥

विनय- इस संसार में भोगों को भोगने के साथ ही हम मनुष्यों का यह भी कर्त्तव्य हो जाता है कि हम भोग से क्षीण हो जानेवाले ऐश्‍वर्य को अपने उत्पादक कर्म द्वारा संसार में सदा बढाते भी जाएँ। प्रत्येक अन्न खाने वाले का कर्त्तव्य है कि वह अन्न को उत्पन्न करने में कुछ-न-कुछ सहायता भी दे। यही यज्ञ-कर्म है। जो लोग यह यज्ञ-कर्म नहीं करते उन्हें परमात्मा की अग्नियाँ जलाने लगती हैं, उन्हें दु:ख से संतप्त होना पड़ता है। परमात्मा की जगत् में स्थापित वे अग्नियाँ जो हम मनुष्यों के लिए भोग-ऐश्‍वर्यों को उत्पन्न कर रही हैं, उन्हें यदि हम भोग भोगने के बाद अपने यज्ञ-कर्म द्वारा अगले भोगों के उत्पन्न करने के लिए सहायता न देंगे, उस दिशा में उद्दीप्त न करेंगे, तो वे अग्नियाँ हमें सन्तप्त करने लगेंगी। यही संसार में दु:खों के अस्तित्व का रहस्य है। भोग के साथ यज्ञ जुड़ा हुआ है।

मनुष्य-समाज इसी प्रकार चल रहा है। मनुष्य परस्पर मिलकर अपने परिश्रमों से भोग्य-वस्तुओं को बढा रहे हैं, परन्तु मनुष्य-समाज में जो मनुष्य स्वार्थी होकर भोग का सुख लेना चाहते हैं, पर यज्ञ-कर्म (परिश्रम) नहीं करना चाहते, उनकी उस ‘दुरिष्टि‘ द्वारा हमारे मनुष्य-समाज रूपी यज्ञ में भङ्ग होता है। उनकी इस दुष्प्रवृत्ति से उनका पतन होता है, उनका आत्मतेज दबता जाता है। इस उलटे चक्र को चलाने का यत्न करने के कारण उनको संसार का ताप, दु:ख भी मिलता है, पर उनकी इस वैयक्तिक हानि से हमारे मनुष्य-समाज की भी क्षति होती है, मनुष्य-समाज को उनका बोझ सहना पड़ता है। उनको कष्ट व अनुताप इसीलिए होता है, इसीलिए मिलता है कि वे यह समझ जाएँ कि उन्हें मनुष्य-समाजरूपी यज्ञ का भङ्ग नहीं करना चाहिए। उन्हें केवल भोग भोगने की अपनी ‘दुरिष्टि‘ को बदलकर यज्ञ-कर्म करने की ‘स्विष्टि‘ में ले जाना चाहिए। अहा ! मनुष्य-समाज के सब व्यक्ति इस सत्य को समझें और सभी स्वेच्छा से यज्ञ-कर्म द्वारा जगत् के ऐश्‍वर्य को बढाने में सहायक हों तो कैसा सुख हो ! किसी को अनुतप्त न होना पड़े, समाज की उन्नति होती जाए।

शब्दार्थ- मनुष्य-समाज में ये=जो लोग भक्षयन्त:= निरन्तर भोग करते हुए भी वसूनि न आनृधु:= उन भोग्य-ऐश्‍वर्यों को बढाते नहीं हैं और अतएव यान्=जिन लोगों को धिष्ण्या: अग्नय:=(परमात्मा द्वारा) जगत् में स्थापित प्राणादि अग्नियाँ अनु अतप्यन्त=भोग के अनन्तर संताप देती हैं, जलाती हैं तेषाम्=उन लोगों की या अवया दुरिष्टि:=जो नीचे गिरानेवाली यह दुष्प्रवृत्ति या दुष्ट-यजन है ताम्=उसे न:=हमारे लिए विश्‍वकर्मा=विश्‍वकर्त्ता परमेश्‍वर स्विष्टिम्=सुप्रवृत्ति या ठीक यजन के रूप में कृण्वत्=कर दें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- फरवरी 2015)

Perform Yajna Deeds | Impairment | Sad | Secret of Existence | Personal Loss | Also Damage to Society | Understand the Truth | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Memari - Tirukalukundram - Dharamkot | दिव्ययुग | दिव्य युग |