वेद विरोधियों में सबसे प्रबल पाश्चात्य तथा उनकी पद्धति से शिक्षित समुदाय है। आज पाश्चात्यों के विरोध का कारण चाहे कुछ भी हो, किन्तु मूल हेतु राजनैतिक था। अंग्रेज आरम्भ में भारत में व्यापारियों के रूप में आये थे और घुटने टेकते हुए आये थे। अंग्रेजों का प्रथम राजदूत भारत सम्राट् जहाँगीर से दिल्ली में मिला था। उसका जहाँगीर से मिलने का चित्र अजमेर के पुरातत्व सम्बन्धी संग्रहालय में सुरक्षित है। उसमें सर थामस रो को झुक-झुककर प्रणाम करता हुआ चित्रित किया गया है। अंगे्रज के हाथ से अमरीका (जिसे आज संयुक्त राज्य अमेरिका कहते हैं) निकल गया, तब इंग्लैण्ड के उस समय के प्रधानमन्त्री पिट् ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को आदेश किया कि वह भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरम्भ करे।
भारत में उस समय मुगलों के शासन का प्रभुत्व माना जाता था, किन्तु नाममात्र को। अनेक माण्डलिक राजा, सामन्त, प्रान्तपति शासक मुगलों का जुआ अपनी गर्दन से उतार फेंक चुके थे। उधर मराठों की नवीन शक्ति का प्रादुर्भाव भी दिल्ली के शासन को ललकार रहा था, चुनौती दे रहा था। इस कारण भारत में नये राज्य उत्कर्ष प्राप्ति के लिए एक दूसरे से स्पर्धा कर रहे थे, लड़ रहे थे। उन्हें जन-धन दोनों की आवश्यकता निरन्तर रहा करती थी। उस समय अंग्रेजों के अतिरिक्त फ्रेंच भी, जिनके कारण भारतीयों ने योरुपीयमात्र को फिरङ्गी नाम दे डाला, इसी कार्य में संलग्न थे। अंग्रेज तथा फ्रेंच दोनों ने ही इस प्रकार परस्पर लड़ने वालों को जन-धन दोनों से सहायता देना और व्यापारिक तथा राजनैतिक विशेष अधिकार प्राप्त करने आरम्भ किये। अंग्रेजों तथा फ्रेंचों का इसी कारण पारस्परिक संघर्ष हुआ। योरुप में भी उनका विरोध-संघर्ष चलता ही था। योरुप की इन दो जातियों के संघर्ष में भाग्य ने अंग्रेजों का साथ दिया।
केन्द्रिय शासन की शिथिलता तथा सामन्तों की स्वातन्त्र्यलिप्सा ने अंग्रेजों के भाग्य को चमकाया। अंग्रेज डॉ. बाटन ने सम्राट् शाहजहाँ से अंग्रेजी व्यापार को कर मुक्त कराया था। समय पाकर अंग्रेजों ने फरुखसियर से बंगाल के दीवानी कर की प्राप्ति के ठेके का पट्टा प्राप्त किया। इस पट्टे ने इनका आसन भारत में दृढ़ कर दिया। धीरे-धीरे पंजाब के अतिरिक्त जब समस्त भारत अंग्रेजों के चंगुल में फंस गया, तब इनको एक कटु अनुभूति हुई। शारीरिक रूप से पराधीन होने पर भी भारतीय जन अंग्रेजों को अपने से हीन और नीच समझते थे। अंग्रेज इससे बहुत चकित एवं व्यथित हुए। भारतीयों की इस उत्कृष्टमन्यता का हेतु जानने में उन्हें विलम्ब न लगा। वे शीघ्र जान गये कि भारतीयों की सांस्कृतिक परम्परा अत्यन्त उत्कृष्ट एवं उन्नत है। भारतीयों को उसका अभिमान है। इस अभियान के मर्दन के दो साधन हो सकते थे-
(1) भारतीयों के धर्म तथा संस्कृति की निन्दा करके उनसे उनको पराङ्मुख करना।
(2) उनको इन दोनों के ज्ञान से वञ्चित करके पुनः उनकी युक्तिपूर्वक निन्दा करके पराङ्मुख करना।
इन्होंने दूसरे उपाय का अवलम्बन किया। अंग्रेजों ने जहाँ-जहाँ भी राजनैतिक प्रभुत्व प्राप्त किया, कहीं भी वहाँ के मूलवासियों के लिए इन्होंने शिक्षा का प्रबन्ध नहीं किया। किन्तु भारत में इन्होंने पूरे बल के साथ शिक्षा का प्रबन्ध किया। भारत के दुर्भाग्य से ब्राह्म समाज के संस्थापक सुधारप्रिय महाविद्वान् राजा राममोहनराय की प्रेरणात्मक सम्मति भी अंग्रेज शासकों को प्राप्त हो गई थी। भारत में इस नवशिक्षा के प्रवर्त्तक मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र में लिखा था कि आज मैंने भारत में ऐसी शिक्षा-योजना का सूत्रपात किया है, जिससे काले अंग्रेज उत्पन्न होंगे। अर्थात् इस योजना के सफल होने पर भारत का तन और वर्ण (रङ्ग) तो न बदल सकेगा, किन्तु मन (विचार) सर्वथा अंग्रेजी हो जाएगा। मैकाले का यह वचन अक्षरशः सत्य निकला। आज का नवशिक्षित वर्ग डारविन, हक्सले, बर्गसां, सुकरात, अरस्तु से तो परिचित है किन्तु गौतम, कपिल, कणाद के नाम का ज्ञान भी उसे नहीं है। वह वेद को वेदा, राम को रामा, कृष्ण को कृष्णा और योग को योगा कहने में अपने ज्ञान-गौरव का प्रदर्शन करता है। प्रसंग से एक बात का यहाँ उल्लेख करना अनुचित न होगा कि प्लासी के रणक्षेत्र में पराजित होने पर भी भारतीयों ने अंग्रेजों के प्रति अपनी विद्रोह भावना को कभी भी शान्त न होने दिया। तब से संव्वत् 1914 वि. (1857 ई.) तक हर दूसरे-तीसरे वर्ष कहीं न कहीं कोई उपद्रव होता ही रहा। हाँ, संव्वत् 1914 वि. के महान् प्रयत्न के विफल होने के बाद, जिसमें स्वामी विरजानन्द सरस्वती तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक-दूसरे से अपरिचित रहकर सहयोग दिया था, कोई उग्र प्रयत्न नहीं हुआ। आश्चर्य की बात है कि सं. 1914 वि. के स्वातन्त्र्य महासंग्राम में भाग लेने वाले सभी राजा जिस प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्य और अनुगामी थे, वे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं जानते थे। किन्तु वैदिक एवं आर्ष साहित्य के पारङ्गत विद्वान् तथा उस परम्परा के अमृत के आकण्ठपीत विद्वान् होने से उसके पालक एवं पोषक थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती यद्यपि उस समय जिज्ञासु होकर विचर रहे थे, तथापि इस पुनीत कार्य में उन्होंने शक्तिभर योग दिया था। ये भी नवशिक्षा से वञ्चित थे। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के साथ स्वतन्त्रता की भावना का लोप हो गया था, क्योंकि नवशिक्षा ने भारतीयों को विदेशी बतलाकर देश के प्रति प्रीति की भावना का विनाश ही कर दिया था। इसके पश्चात् दण्डी विरजानन्द सरस्वती के चरणों में बैठकर कृतकृत्य होकर दयानन्द सरस्वती ने भारतीयों के हृदय में देशप्रेम की ज्वाला को प्रज्ज्वलित करके स्वराज्य प्राप्ति के लिए उत्साहित किया। उस महामानव ने अपने महान् आकर ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है- “परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।’’
अंग्रेजों तथा उनके साथी योरुपियनों ने कट्टर ईसाई होने के कारण भी वेद तथा तदनुगामी साहित्य की निन्दा की और यह सब किया गया वेदों के वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं अध्ययन के नाम पर। ईसाईमत के अनुसार सृष्टि को हुए पाँच-छह हजार वर्षों से कम समय हुआ है। अतः सभी कुछ इसी समय के भीतर आना चाहिए। तदनुसार वेद का समय भी उन्होंने ईसा से 1200 वर्ष पूर्व ठहराया। आर्य-परम्परा के अनुसार वेद सृष्टि के आरम्भ की वस्तु है। सृष्टि को उत्पन्न हुए लगभग दो अरब वर्ष होते हैं। आज का पाश्चात्य विज्ञान भी सृष्टि की आयु इतनी मानने पर विवश हुआ है।
यद्यपि उस समय वेदों के पठन-पाठन का चलन न्यून हो चला था, तथापि दर्शन आदि के पढ़ने-पढ़ाने का प्रचार था। दैवदुर्विपाक से उस समय की भारतीय पण्डितमण्डली का यह विचार था कि आस्तिक दर्शनों में भी परस्पर विरोध है। दर्शनों के प्रतिपाद्य विषयों का भेद होने से उनमें भेद होना अनिवार्य है। किन्तु भेद होने पर विरोध होना आवश्यक नहीं है। उदाहरणार्थ हाथ एवं पाँव भिन्न-भिन्न हैं। इनका कार्य भी भिन्न है। किन्तु इनमें विरोध नहीं वरन् ये एक दूसरे के सहकारी एवं उपकारी हैं। ठीक इसी प्रकार सांख्यादि आस्तिक दर्शन भिन्नकर्त्ताओं की कृति होने तथा उनमें निरुपित विषयों के भिन्न होने से वे एक दूसरे से अवश्य भिन्न हैं, परन्तु विरुद्ध नहीं हैं, प्रत्युत एक-दूसरे के पूरक हैं। ईसाई शासकों ने अपने प्रचारकों के द्वारा इस विषम स्थिति से प्रचुर लाभ उठाया।
सार यह है कि वेद तथा तत्प्रतिपादित धर्मादि का पूरे वेग से भाषा विज्ञान आदि के नाम से खण्डन किया गया। वेद को गडरियों का गीत कहा गया। ईसाई प्रचारकों ने तो उनको कूड़ा-करकट कहने से भी संकोच नहीं किया।
इतना कुछ मानते हुए भी पाश्चात्य इस बात के कहने पर विवश हुए कि वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे पुरातन ग्रन्थ हैं। उन्हें यह भी कहना पड़ा कि आदिम मनुष्य के आचार-विचार, व्यवहार आदि के ज्ञान के लिए वेद का पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है।
वेद का अध्ययन करने से योरुपवालों ने भाषाशास्त्र तथा भाषाविज्ञान नामक दो नये शास्त्रों का आविष्कार किया। भाषाशास्त्र से अभिप्राय भाषा की उत्पत्ति का क्रम दर्शन है और भाषा विज्ञान के द्वारा विभिन्न भाषाओं की तुलना करके उनकी मूलभूत भाषा की खोज करना है। यह जानना आवश्यक है कि इन दो शास्त्रों का आविष्कार वे निरुक्त के अध्ययन के आधार से कर सके। इन दोनों शास्त्रों के आविष्कार एवं परिष्कार में इतनी वेद के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति की भावना उत्तेजक तथा प्रेरक नहीं थी, जितनी वेद की हेयता एवं अनुपादेयता की प्रसिद्धि करना अभीष्ट था। उत्क्रान्तिवाद=विकासवाद का प्रचार करके उन्होंने यह प्रसिद्ध कर ही दिया था कि आदि मनुष्य ज्ञान तो क्या भाषा से भी विहीन थे। अतः वेद आदिम मनुष्य की रचना होने से असभ्य, पशुप्रायः मनुष्यों की बिलबिलाहट के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। - स्वामी वेदानन्द तीर्थ
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