पर्यावरण प्रदुषण आज विश्व की ज्वलन्त समस्या है। जल, थल एवं वायु सभी अवांछित अवशिष्टों से परिपूर्ण हो गये है। इस प्रदुषण के कारण मनुष्यों का स्वास्थ्य अनेक व्याधियों से युक्त हो गया है। सामायिक पर्यावरणीय विकृतियों में कमी लाने तथा विश्व के सभी प्राणियों को स्वस्थ एवं सुखी बनाने में यज्ञ परम सहायक है। यज्ञ के माध्यम से मंत्र शक्ति का प्रयोग लोक कल्याण तथा आत्म शुद्धि के लिए किया गया है। यज्ञ में उच्चारित विशिष्ट मंत्रों का प्रभाव शरीर संस्थानों पर विशेष प्रकार से पड़ता है। मंत्रोच्चारण करते समय सारा स्वर संस्थान झंकृत हो उठता है। मंत्रों के प्रभाव से होम किये गये पदार्थ ओषधियों से अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। दहन की सामान्य प्रक्रिया में अग्नि में डाला गया हविष्य असामान्य शक्तिवान हो जाता है। मन्त्रों के उच्चारण से उत्पन्न उष्मा संयुक्त रूप से भौतिक, मनौवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक लाभ देती है।
यज्ञाग्नि का सुगन्धित धुआं पर्यावरण में फैले विषाणुओं को नष्ट कर देता है। यज्ञ में प्रयुक्त पदार्थो विशेषतया गाय के घी को अग्नि में डालने पर उससे उत्सर्जित धुआं आणविक विकरण के प्रभाव को कम कर देता है। केवल हमारे देश में ही नहीं वरन् विश्व के कई देशों में यज्ञ से सम्बन्धित काफी अनुसन्धान किये गये हैं। सोवियत रूस के वैज्ञानिक शिरोविच ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हम लोगों ने गव्य (दूध, मक्खन, घी, गोमूत्र, गोबर इत्यादि) के परिक्षण से निष्कर्ष निकाला है कि गाय के दूध में आणविक विकरण के प्रभाव से पूर्ण सुरक्षित रहता है। गाय के घी को अग्नि में डालने पर उससे उत्सर्जित धुआं आणिवक विकरण के प्रभाव को काफी हद तक कम कर देता है।
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan - 88 | Explanation of Vedas | वेद सन्देश - ज्ञान के अनुसार कर्म।
सूरत में १९९४ में प्लेग फैलने पर वहां भी चिकित्साधिकारियों ने वातावरण को विषाणुरहित बनाने के लिए घी मिश्रित धूप, हल्दी तथा कपूर जलाने को कहा था और हवन सामग्रियों के लाखों पैकेट भी बाटें गये थे। यज्ञ के समय सुगन्धित पदार्थ वाष्पीकृत होकर वायु के साथ विकरित होते हैं एवं यज्ञीय परिवेश में सुगन्धित की अनुमति होती है।
यज्ञ से पर्यावरण के साथ चित्त और चेतना भी शुद्ध होती है। पुराणों में भी यज्ञ का वर्णन विस्तार से मिलता है। शक्तिशाली राजा अश्वमेघ यज्ञ करते थे। यज्ञ की पूर्णाहुति के साथ घोड़े को सजाकर दौड़ा देते थे। यह निकट के राज्य में जाता और उसे कोई पकड़ने का साहस नहीं करता था। इस प्रक्रिया में बलशाली राजा सभी राजाओं से सम्मान अर्जित करता था और उन्हें अपने साथ मिला लेता था। अश्वमेघ यज्ञ के साथ सबको जोड़ने तथा मिलाने का पराक्रमी कार्य अश्वमेघ कहलता था।
यह श्रेष्ठतम कर्म है और यह भी कह सकते हैं कि जो भी श्रेष्ठतम कर्म है, वही यज्ञ है। इसी को ध्यान में रखकर ऋषियों ने ''यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म'' कहा है। जीवन का आधार ऊर्जा है। आज का विज्ञान हो या वेद प्रतिपादित यज्ञ, विद्या, दोनों का केन्द्र ऊर्जा है। इसी को वेद की भाषा में अग्नि कहा गया है। ऋग्वेद का प्रारम्भ भी अग्नि की स्तुति के साथ होता है।
''अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देव मृत्विजम्''
भौतक या आध्यात्मिक यह कभी रूपों में कल्याणकारी है। विचारों का ईश्वरोन्मुख बनाने, कषाय-कल्मषों का परिशोधन कर पात्रता विकसित करने तथा अनन्त के प्रति तादातम्य भाव विकसित करने के रूप में यज्ञ परम सहायक है। यज्ञीय भाप से किये गये कर्म दिव्य कर्म बन जाते है। जिस तरह अग्नि यज्ञ कुण्ड में प्रज्वलित होती है, वैसे ही ज्ञानमाग्नि अन्तःकरण में, तापाग्नि इन्द्रियों में तथा कर्माग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिए। हर श्वास में संपादित विचार एवं प्रेरणा-आस्था परिशोधन एवं आदर्शो की प्रतिष्ठापना का एक सशक्त माध्यम है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पर्यावरण चाहे भौतिक हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो या आध्यात्मिक यज्ञ हर तरह के पर्यावरण को शुद्ध व चैतन्य बनाने में सक्षम है। इसलिए सभी प्रकार की उन्नति को सामने रखकर भारतीय मनीषियों ने प्राणिमात्र को सुख प्रदान करने के लिए यज्ञ को जीवन पद्धति का अभिन्न अंग बनाया जिससे मानव ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, चल-अचल, थलचर, नभचर, वृक्ष तथा सम्पूर्ण पर्यावरण सुरक्षित रहे तथा सभी को विकसित होने का पूर्ण अवसर मिले। - डॉ. श्रीराम वर्मा