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संस्कार प्रधान शिक्षा ही बालकों का निर्माण करेगी

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आज जिस तेजी से परिवार विघटित हो रहे है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से नन्हें-नन्हें बच्चे समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न कर रहे है। जगह-जगह खुलती आतंकी पाठशालाओं में विघटनकारी कार्यों में दक्ष हो रहे ये मासूम बच्चे कहीं तो इसका प्रयोग करेंगे ही। आखिर वे क्या है कि मासूम बचपन अपराधों की भट्ठी में तपने लगा है?

मानव मस्तिस्क नकारत्मक और सकारात्मक दोनों भावों से युक्त होता है। नकारात्मक भावों से जहाँ विनाशकारी गतिविधियाँ संचालित होती हैं, सकारात्मक भावों से नवनिर्मित की सुखद रचनाएँ प्रस्फुटित होती है। बाल्यकाल निर्माण का काल है। बच्चे की पहली शिक्षिका उसकी माता और प्रथम विधयालय उसका घर होता है। बच्चों में किस प्रकार का विकास हो रहा है, इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी परवरिश किन परिस्थितयों में हो रही है। यहीं से बात प्रारम्भ होती है हमारी पारिवारिक व्यवस्था की, व्यक्तित्व की, सद्संस्कारों की। संस्कार ही तो अभ्यास से स्वभाव बन जाते हैं। संस्कार से ही बच्चे के विचार एवं व्यवहार की नियंत्रित होते हैं। अतः जैसे संस्कार उसे दिए जाएँगे, उसी के अनुरूप उसका विचार होगा। जिसे वह व्यवहार के द्वारा क्रियारूप में परिणत करेगा।

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अधिकतम भौतिक संसाधनों को शीघ्र जुटा लेने की इच्छा के कारण पारिवारिक सदस्यों में कभी न भरने वाली खाई उत्पन्न होती चली जा रही है। मनमुटाव, तनाव एवं बिखराव हर परिवार के बच्चे यदि समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। माता-पिता की और मिल रही उपेक्षा, असुरक्षा व घुटन भरा वातावरण बच्चों को पलायनवादी बना देता है।

बात सिर्फ बच्चे की उपेक्षा तक ही सिमित नहीं है। जितनी तेजी से माता-पिता का बच्चे के प्रति उपेक्षात्मक व्यवहार बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से बच्चों के प्रति अपेक्षाएँ बढ़ी हैं। शिक्षा और कैरियर के दबाव के साथ परीक्षा में हर हालत में अधिकतम अंक लाने की हिदायत दी जाती है। बच्चे का बचपन छीनकर उसकी स्थिति कोल्हू के बैल की तरह बना दी जाती है, जिस पर चलते रहने के लिए निरंतर चाबुक पड़ते रहते हैं। बच्चा जब ये अपेक्षाएं पूरी नहीं कर पाता तो सहयोगात्मक रुख अपनाने की बजाय उसे डाँटा-फटकारा जाता है। ऐसे में बच्चा हीन भावना का शिकार हो जाता है। अपनी हीनता से उबरने की कोशिश उसे आक्रामक बना देती है।

उच्च वर्ग के अधिकांश बच्चों ने आज इन्हीं कारणों से अपने को इंटरनेट, टिवी, कम्प्यूटर और वीडियो गेम के कमरों में बंद कर लिया है। लगातार हिंसक दृश्य देखते रहने के कारण वे इनसे डरने की बजाय रोमांच अनुभव करने लगे हैं। बच्चे के आदर्श, चमक-दमक वाले कलाकार या फिल्मी सितारे बन गए हैं। व्यापर जगत की भूमिका भी बच्चों को दिग्भ्रमित करने में पीछे नहीं है। विपणन विशेषज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते है कि खरीदारी में बच्चों के फैसले निर्णायक होते हैं। अतः वे भी उसका पूरा फायदा उठा रहे हैं। पाँच हजार करोड़ का विशाल बाजार आज सिर्फ बच्चों के उत्पादों पर लगा है। 'सादा जीवन उच्च विचार' का अवधारण तो अब अतीत का विषय बन चुकी है।

शिक्षा पहले दान या सेवा के रूप में दी जाती थी। अब तो यह भी व्यापार का साधन बन गई है। माता-पिता द्वारा अंग्रेजी माध्यम से अपने बच्चे को पढ़ने की ललक ने इस व्यापार को फलने-फूलने में भरपूर मदद की है। स्कूल की मनमानी फीस देकर बच्चों को स्कूल के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है। दूसरी ओर ऐसे भी बच्चे हैं, इन तक शिक्षा का प्रकाश पहुँच ही नहीं पाता। आजादी के 75 वर्षो बाद भी भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ 37 लाख बच्चे अशिक्षित-निरक्षर रहने को अभिशप्त हैं। प्रतिवर्ष एक करोड़ 50 लाख बच्चे प्राइमरी स्कूल में दाखिले की उम्र के हो जाते है, परंतु स्कूल में प्रवेश में सिर्फ 13 लाख बच्चों को ही मिल पाता है। इसका कारण यह भी है कि दयनीय आर्थिक स्थिति से जूझता एक बड़ा वर्ग अपने बच्चों को स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं, उन्हें स्कूल कैदखाना लगता है और वह वहाँ से निकलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेते है।

समाज-व्यवस्था के इन विकृत स्वरूपों के कारण ही बच्चे आक्रामक बन गए हैं। जिस प्रकार से वर्षा का जल समान रूप से सभी पौधो पर समान रूप से पड़ता है, परन्तु प्रत्येक पौधे की प्रकृति के अनुरूप ही लाल, पीले, सफेद, विभिन्न प्रकार के पुष्प खिलते हैं, उसी प्रकर बच्चों का व्यक्तित्व-निर्माण उनके संस्कारों के अनुरूप ही होता है। परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है। बच्चे में सुसंस्कारों की स्थापना का प्रथम प्रयास भी यही शुरू करना होगा।

माता-पिता बनने का सुख प्राप्त करने के लिए सिर्फ बच्चे को जन्म देना ही पर्याप्त नहीं होता, अपितु उसके सर्वागीण विकास का कर्तव्य भी निभाना पड़ता है। बच्चे के उज्जवल भविष्य का जो स्वप्न माता-पिता देखते हैं, उसके पहले स्वयं में उस स्वप्न को देखना होगा। बच्चे की हर गतिविधि पर माता-पिता का ध्यान देना आवश्यक है। बच्चे के प्रति दोनों का प्यार भरा सहयोगात्मक दृष्टिकोण ही बच्चे को सुविकास के पथ पर अग्रसर करता है।

दूसरा प्रमुख दायित्व विद्यालयों का है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा देने मात्र से यदि बच्चे सुसंस्कारित बनते तो आज पाश्चात्य देशों में बाल अपराधों की संख्या इतनी बढ़ी न होती। बच्चों के नव निर्माण के लिए रचनात्मक शिक्षा की आवश्यकता होती है। आज शिक्षक है, प्रोफेसर हैं, प्रिंसिपल है, उस्ताद है पर शिक्षा देने वाला आचार्य नहीं है। जो स्वयं भोगी है वह बच्चों को कैसे त्याग सिखायेगा। जो स्वयं स्वार्थाथ है, वे दूसरों को तपस्वी कैसे बनायेगा। कहावत है 'अंधनैव नियमाना यथाधा' - यदि अंधा किसी को लेकर मार्ग पर चलेगा तो खुद तो गिरेगा और दूसरों को भी गिरायेगा।

आचार्य पद की महानता का वर्णन करते हुए अथर्वेद में कहा गया है- आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पयः। अथात् आचार्य मृत्युरूप होकर संसार की निस्सारता को उपदेश करने वाला, जलरूप होकर पापों से शुद्ध करने वाला, चन्द्रमारूप होकर हृदय के लिए आह्लादकारक, औषध रूप होकर शरीर को क्षीणता से बचाने वाला और दुग्ध रूप होकर शरीर को पुष्ट करने वाला है।

आज आचार्यो को अपने इसी स्वरूप को पुनः स्थापित करना होगा। माता-पिता अपने बच्चों को उनके हाथों सौंपकर जो विश्वास उन पर करते है, उस विश्वास की रक्षा अपनी उच्च कर्तव्यपरायण से करनी होगी। माता-पिता एवं शिक्षकों के साथ ही साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को भी चाहिए कि वह अपना व्यावसायिक स्वार्थ त्यागकर धर्म, दर्शन, संस्कृति के क्षेत्र में अधिक से अधिक निवेश करे। बच्चों को गुमराह करने वाले साहित्य एवं दूरदर्शन के कार्यक्रमों पर तत्काल प्रतिबंध इस दिशा में एक महत्वपुर्ण कदम होगा। स्थान-स्थान पर संस्कार एवं अहिंसा प्रशिक्षण केन्द्र चलाए जाने से निश्चित ही भटके बालमन को सही दिशा में लाया जा सकता है। हमारी नैतिकता को झकझोरती वर्तमान समाज-व्यवस्था में बच्चों के नवनिर्माण के लिए आमूलचल परिवर्तन की यह अनिवार्य आवश्यकता है। - लक्ष्मण आचार्य