विशेष :

कर्मफल व्यवस्था

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Karmfal

ओ3म् न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
अनूनं पात्रं निहितं न एतत् पक्तारं पक्वः पुनराविशाति॥ अथर्ववेद 12.3.48॥

शब्दार्थ- अत्र = इस कर्म फल की व्यवस्था में किल्बिषम् = कोई कमी, दोष, त्रुटि न (अस्ति) = नहीं है और न = न ही आधारः = बचने, बचाव का कोई सहारा, किसी प्रकार की रिश्‍वत, किसी की पहुँच अस्ति = होती है। यत् = यह व्यवस्था मित्रैः = मित्रों के साथ सम् अममानः= सांझी, बाँटी न एति = नहीं जाती है। नः = हमारी, अपनी-अपनी एतत् = यह पात्रम् = प्रक्रिया अनूनम् = न्यूनतारहित, कमी, दोषरहित, अर्थात पूर्ण निहितम् = स्थापित है, सुनिश्‍चित, सुरक्षित है। तभी तो पक्तारम् = पकाने, कर्म करने वाले को पक्वः = उसका पकाया हुआ, किया हुआ कर्म पूर्ण होने पर, पक जाने पर पुनः = फिर यथासमय अपने कर्म के अनुसार फल के रूप में आ विशाति = मिलता है, प्राप्त होता है।

व्याख्या- नः एतत् पात्रम् अनूनम् निहितम्। यह न्याय प्रक्रिया सर्वदा-सर्वथा पूर्ण है, सुनिश्‍चित, सुरक्षित है। कर्मफल व्यवस्था के सम्बन्ध में वेदमन्त्र का यह चरण कह रहा है, स्पष्ट कर रहा है कि यह हर तरह से पूर्ण, सुनिश्‍चित, सुरक्षित है। अतः कर्म का प्रत्येक कर्ता अपने कर्म के अनुरूप उसका यथायोग्य फल प्राप्त करता है। इसलिए हर कर्म का करने वाला अपने कर्म का फल स्वकर्मानुरूप ही भोगता है।

अत्र किल्बिषम् न अस्ति। इस व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया में किसी प्रकार की कमी, त्रुटि, दोष नहीं है। जिस प्रकार दुनियावी न्यायालयों में अनेक प्रकार के अनेक व्यक्तियों द्वारा घोटाले किए जाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ आए दिन सामने आती रहती हैं। हमारे समाज में ऐसी कहानियाँ प्रचलित हैैं, जिनसे यह सिद्ध किया जाता है कि अमुक-अमुक पूजा-पाठ, यज्ञ-दान, जप-तप, भजन-कीर्तन से कर्मकर्ता अपने पूर्व के कर्मों के फल को भोगने से बच सकता है अथवा कर्मफल में अन्तर किया जा सकता है। ऐसे ही बहुत लोग यह समझते है कि किसी विशेेष तीर्थस्थान-यात्रा जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड से कर्म फल में किसी प्रकार का परिवर्तन किया जा सकता है। पाप से बचने के अनेक ग्रन्थों के प्रमाण भी दिए जाते हैं। पुनरपि यहाँ सचाई, वास्तविकता यही है कि यहाँ किसी प्रकार का कोई चोर दरवाजा या ढंग नहीं है।

अत्र आधारः न अस्ति। कर्मफल से बचने का कोई सहारा, किसी प्रकार की रिश्‍वत, किसी की पहुँच भी परमात्मा की व्यवस्था में नहीं चलती है। पुनरपि अनेक लोग समझते हैं कि गुरु, अवतार, पीर-पैगम्बर विशेष पर विश्‍वास लाने से या उस-उसकी बताई पूजा, मन्त्र जाप आदि करने से कर्मफल से बचा जा सकता है। पर मन्त्र का यह अंश निर्देश करता है कि कर्म फल व्यवस्था को टालने की किसी प्रकार की कोई आड़, ओट नहीं है। अतः किसी भी विशेष व्यक्ति के आश्‍वासन पर हमें चालाकी भरे किसी चोर दरवाजे, ढंग ढूँढ लेने का भ्रम मन में नहीं पालना चाहिए। अतः किसी प्रकार की होशियारी द्वारा कर्म फल से बचने का धोखा किसी को भी मन में नहीं रखना चाहिए। यह ठीक है कि दुनियावी न्यायालयों में अनेक लोग अनेक प्रकार से पहुँच कर लेते हैं या रिश्‍वत का सहारा ले लेते हैं। फिर स्पष्ट अपराध करने पर भी उनका बाल भी बाँका नहीं होता। पर वेद स्पष्ट कह रहा है कि परमात्मा की न्याय प्रक्रिया में कभी भी ऐसा नहीं होता है।

मित्रैः समममानः न एति। मित्रों, परिचितों, रिश्तेदारों का पल्ला पकड़कर कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। अर्थात ये कर्मफल में भागीदार बनकर हिस्सा नहीं बँटा सकते हैं। जैसे संसारी पैतृक सम्पत्ति या दूसरों द्वारा अर्जित भौतिक वस्तुओं, सुविधा में भागीदार बन जाते हैं, वैसा कर्मफल व्यवस्था में नहीं होता। हमारे यहाँ कई ऐसी ऐतिहासिक चर्चाएँ चलती हैं कि अमुक रिश्तेदार, मित्र, हितैषी ने उसके कर्मफल में हिस्सेदारी कर ली। इतना कर्मफल का भोग उससे बँटवा लिया। यह सब केवल चर्चा मात्र ही है, मन को समझाने का एक ढंग ही है। कर्मफल इस प्रकार दूसरों के गले में नहीं डाला जा सकता है। यह तो हर स्थिति में स्वयं ही भोगना होता है।

मन्त्र के अन्तिम चरण में पक्तारं पक्वः पुनराविशाति शब्दों द्वारा ऊपर आई बातों को उदाहरण के साथ स्पष्ट कर दिया गया है। जैसे पकाने वाला पात्र में जो डालता है,पककर वही वस्तु सामने आती है। जैसी या जिस आटे की बनाई कच्ची रोटी तवे पर डाली जाती है, वही पककर समाने आती है। यहाँ पककर सामने आने तक का उदाहरण दिया है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि उस पकी वस्तु के खाने में जैसे हिस्सेदार बन जाते हैं, ऐसे ही कर्म फल में भागीदारी करने का भाव नहीं लिया जा सकता। विशेषतः वाहनों की दुर्घटना में अनेक लोग दुर्घटनाग्रस्त होते हैं। ये दुर्घटनाएँ सामयिक रूप में सामयिक जाँच, विवेक विचार चाहती हैं। वह-वह दुर्घटना सामयिक कारण से होती है। अतः चालक, यन्त्र सामने आई समस्या आदि दुर्घटना के कारण होते हैं। अनेकत्र ऐसे कारण स्पष्ट रूप में सामने होते हैं। अतः वहीं तक बात को सीमित रखना चाहिए। सामयिक घटना का सामयिक रूप से ही विचार उपयुक्त रहता है। इसको पिछले कर्मों से नहीं जोड़ना चाहिए। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 90 | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Ved Katha Pravachan - 90