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आजीवन शुभ कर्म करने का सन्देश

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shubhkarma

ओ3म् कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ यजुर्वेद 40.2॥

शब्दार्थ- इह- इस मानव जीवन, संसार में शतम् = सौ समाः = वर्ष तक कर्माणि = इस वेदवाणी में निर्दिष्ट कर्मों को कुर्वन् = करते हुए एव = ही, पूर्ण विश्‍वास से, निःसन्देह भाव से जिजीविषेत् = जीने की इच्छा करे। क्योंकि इतः = इससे अन्यथा = भिन्न अर्थात कर्म करने के अतिरिक्त जीवन निर्वाह या प्रगति का और कोई मार्ग, ढंग, प्रक्रिया न अस्ति = नहीं है। एवम् = इस प्रकार कर्म करने से त्वयि नरे = तुझ कर्म कर्त्ता नर में कर्म = निर्दिष्ट कर्म न लिप्यते = लिप्त नहीं होता अर्थात् तुझे बन्धन में नहीं डालता। तुझ नर में कर्म लिप्त नहीं होता।

प्रसङ्ग- वेद का अर्थ ज्ञान है। अतः वेद ज्ञान रूप वाला है। ज्ञान का सम्बन्ध मनुष्यों से ही है। मनुष्य, मानव शब्द का अर्थ भी मनन शील या ज्ञानशील है। हाँ, मनुष्य से अतिरिक्त पशु, पक्षी, कृमि आदि में अपने व्यवहार का बोध स्वाभाविक होता है। मनुष्यों में ज्ञान नैमित्तिक है। निमित्त = गुरु अथवा सिखाने वाले के द्वारा ही ज्ञान विकसित होता है। अतः वेद की चर्चा का मुख्य रूप से मानव जाति से ही सम्बन्ध है। वैसे इस मन्त्र के चौथे चरण में नर शब्द आया है। अतः इस मन्त्र में आई चर्चा मानव जाति से सम्बन्ध रखती है।

व्याख्या- इस मन्त्र में आया शतं समाः = सौ वर्ष की आयु, जीवन का प्रसंग मनुष्य जाति से ही जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार जीव विज्ञानी हर प्राणी की औसत आयु बताते हैं। वह व्यवहार में गाय, घोड़े, कुत्ते आदि की प्रत्यक्ष भी होती है, यदि दुर्घटना जैसा कोई विशेष कारण सामने न आए। ठीक इसी प्रकार वेद के अनुसार मानव जाति की औसतन आयु सौ वर्ष है। हमारे चारों ओर ऐसे अनेक व्यक्ति मिल जाते हैं, जो एक सौ वर्ष की उम्र को पारकर चुके हैं या इसके पास हैं। आए दिन समाचार पत्रों में ऐसे समाचार छपते रहते हैं कि अमुक व्यक्ति एक सौ वर्ष से ऊपर की आयु वाला है और उसकी ऐसी स्थिति है।

इस विश्‍लेषण से यह धारणा वेद विरुद्ध सिद्ध होती है कि निश्‍चित वर्ष की आयु लेकर प्राणी संसार में आता है। हाथ की लकीरें या जन्मपत्री आदि के आधार पर कुछ ज्योतिषी निश्‍चित वर्ष की आयु का दावा करते हैं। हाँ, शतं समाः शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि मानव शरीर में ऐसा मसाला, कच्चा माल लगा है कि वह औसतन सौ वर्ष चल सकता है। इससे सिद्ध होता है कि लम्बी उम्र जीना बहुत कुछ हमारे जीने के ढंग पर निर्भर करता है। इसीलिए आयुर्वेद में दीर्घ आयु के अनेक उपाय बताए गए हैं। हाँ, वेद में शतवर्ष की चर्चा तीस वार कम से कम आई है और अनेक स्थानों पर दीर्घ आयु की प्रार्थना तथा उपायों का भी संकेत है। अतः वेद के अनुसार सौ वर्ष जीने का अधिकार, अवसर है। इसलिए इसी भावना से जीवन जीना चाहिए।

इस मन्त्र के प्रथम भाग में मुख्य क्रिया है- जिजीविषेत्। इसका भाव है कि प्रत्येक को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए और उसके अनुरूप ही जीने का व्यवहार भी करना चाहिए। इस वाक्य में मुख्य क्रिया से पूर्व एक पूर्वकालिक क्रिया का भी निर्देश है और वह है - कर्माणि कुर्वन् एव। अर्थात् वेद में जीवन को सार्थक बनाने के लिए जिन-जिन कर्मों को करने का संकेत किया गया है, उन कर्मों को करते हुए ही जीने की इच्छा करे। कर्म रहित जीवन न जिए। अतः आलस्य को कभी भी मन में न लाए।

गीताकार ने भी इस मन्त्र को सामने रखकर ही कहा है- नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। (गीता 3.8) प्रत्येक ईश्‍वर विश्‍वासी को सदा कर्मशील रहना चाहिए। क्योंकि अकर्म, आलस्य की अपेक्षा अर्थात् कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना अधिक अच्छा है। यतो हि कर्म से सारी सफलताएँ सिद्ध होती हैं। वेद में जीव के लिए आया ’क्रतु’ शब्द कर्मशील होने की भावना देता है। ’आर्य’ का भी एक अर्थ कर्मशील है।

मन्त्र के तीसरे चरण में इसका एक ठोस हेतु दिया कि- इतः अन्यथा न अस्ति अर्थात कर्म के बिना जीवन निर्वाह, प्रगति, सार्थकता नहीं हो सकती। क्योंकि जीवन जीने के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है, वे सब कर्म करने पर ही प्राप्त होते हैं। कर्म करने के अतिरिक्त भौतिक पदार्थों और अध्यात्म सिद्धि को प्राप्त करने का और कोई ढंग या मार्ग नहीं है। इसीलिए गीता ने भी कहा है-
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः। (गीता 3.8)

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः॥ (गीता 3.20)

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥ (गीता 4.12)

आजकल अपने ईष्टदेव के पूजन की पद्धति में इस मन्त्र के विपरीत भावना हावी हो रही है। हम केवल नमन से ही हर कामना की पूर्ति मानते हैं। प्रायः सभी आरतियों में ’मनोवांछित फल पावे’ की भावना भर दी गई है। और इसी ललक में जिन गायत्री आदि के शरीर ही नहीं हैं, उनकी भी मूर्ति कल्पित करके उनके पूजन मात्र से हर कामना की पूर्ति मान ली गई है। महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के सोलह दोषों में दो बार इसका संकेत किया है कि ऐसी पूजा से हम बिना कर्म के फल की सिद्धि मानने लग गए हैं। वस्तुतः कर्म करने से ही जीवन निर्वाह की सारी सिद्धियाँ होती हैं । अतः यही भावना हमें मन में लानी चाहिए।

ज्ञान, भक्ति को अत्यधिक महत्व देने वाले कर्म करते हुए संकोच करते हैं। क्योंकि कर्म करने पर उसका फल कर्म के अनुरूप अवश्य होता है। तब कर्ता कर्म और फल के चक्र में घूमता रहता है। अतः कर्म बन्धन से बचना चाहिए। इसी को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है- एवं त्वयि नरे कर्म न लिप्यते। यहाँ सन्देश है कि भय उचित नहीं है। क्योंकि अशुभ कर्म ही बन्धन में डालते हैं। वेद में निर्दिष्ट शुभ कर्म से मोक्ष (दुःख, झंझट से छुटकारा) प्राप्त होता है।

जैसे किसी राज्य द्वारा आदिष्ट कर्म अपने करने व पालने वालों को कभी भी बन्धन में नहीं डालते। यथा सेनापति के आदर्श के अनुरूप चलने वाला कभी कारागार को प्राप्त नहीं होता। वह कभी अपराधी घोषित नहीं होता। अपितु अनेक ऐसे अवसरों पर पुरस्कृत होते हैं। हाँ, यदि उसी पुरस्कृत सैनिक ने अपनी इच्छा से स्वार्थवश कोई सामान्य कर्म भी किया है, तो कर्म के के अनुरूप उसको फल अवश्य मिलता है। अनेक पुरस्कृत व्यक्ति अनुचित करने पर दण्डित भी हुए हैं।

भावार्थ- जीवन सन्देश की दृष्टि से यह वेद मन्त्र विशेष स्थान रखता है। अतः जीवन दर्शन का यह विशेष सन्देश है कि मानव जीवन एक स्वर्ण अवसर है। इस अवसर का लाभ यही है कि अच्छे से अच्छे कर्म करके सफलता प्राप्त की जाए। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 93 | Explanation of Vedas | कर्म के लिए इच्छा और क्षमता आवश्यक