ओ3म् आप इद् वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः ।
आपः सर्वस्य भेषजीस्ता ते कृण्वन्तु भेषजम्॥ ऋग्वेद 10.137.6॥
शब्दार्थ- इत् वै उ = यह सर्वथा- सर्वदा निश्चित है कि आपः = जल भेषजीः = दुःख दूर कर सुख देने वाले होने से औषधी रूप में हैं। आपः = जल अमीवचातनीः = रोग, रोगकारक कारणों, तत्वों को नष्ट करने वाले हैं। आपः = जल सर्वस्य = जो भी जल का सेवन करते हैं, उन सबका भेषजीः = इलाज कर उनके प्रति लाभप्रद सिद्ध होते हैं। ताः= ऐसे वे जल, जो कि बर्ताव में लाए गए हैं ते = तुझ सेवन करने वाले का अर्थात् तेरा भेषजम् = उपचार, इलाज कृण्वन्तु = करें, वे इस कार्य में सफल हों ।
व्याख्या- मन्त्र में जल को भेषजी = भेषज = औषधी = दवा के नाम से पुकारा गया है। औषधी के धिः शब्द को स्पष्ट करते हुए निरुक्त 9.3.27 में कहा गया है - ओषत् धयन्ति इति वा, ओषत्येना धयन्तीति वा, दोषं धयन्तीति वा।
जलन, कष्ट, दुःख, तङपन को जो दूर करती है या ऐसा होने पर जो कष्ट में ली जाती है। वात-पित्त-कफ रूपी दोष, विकार को जो पीती है, दूर करती है। इस नाम से यह भाव, सन्देश, सावधानी सामने आती है कि औषधी रोग, रोगी की आयु, अपेक्षा के अनुरूप उतनी ही मात्रा में नियत समय पर ली जाती है। इसके साथ रोग आदि के अनुसार अनुपान (= कब, किस सहयोगी रूप, पदार्थ) के साथ दवा ली जाती है। चिकित्सा में पथ्य (कब, क्या, कैसा व्यवहार, जीने का ढंग, खान-पान) और अपथ्य (क्या नहीं वर्तना) का विशेष ध्यान रखा जाता है। तभी पूर्ण रूप से लाभ प्राप्त होता है। कई बार पथ्य-अपथ्य न करने से हानि भी हो सकती है। इससे सिद्ध होता है कि औषधि हितकर और दुःख दूर करती है। अतः शुद्ध एवं गुण युक्त जल का अपनी शारीरिक प्रकृति के अनुरूप प्रयोग करना चाहिए। आयुर्वेद में उषः पान = प्रातः उठकर जल पीने का विधान है। रात्रि में ताम्बे के पात्र में रखे हुए जल को प्रातः पीने पर वह विशेष लाभप्रद माना जाता है।
अमीवचातनी = जल अमीव = रोग के कारण, तत्व को चातनी =काटने, दूर करने वाला है। आज एलोपैथी में भी अमीवा = रोग कारक कीटाणुओं को माना जाता है।
जल-चिकित्सा- चिकित्सा के क्षेत्र में जल-चिकित्सा अपना स्वतन्त्र स्थान बना रही है। ’आपः सर्वस्य भेषजीः’ मन्त्रांश को जल चिकित्सा आजकल विशेष स्पष्ट कर रही है। वर्षा जल को दिव्य, अमृत कहा जाता है। नगरों के वातावरण से अछूता पर्वतों, जंगलों, झरनों का जल विशेष गुणयुक्त होता है। ऐसे ही अनेक विशेष स्थलों का जल इतना अधिक स्वादु एवं गुणयुक्त होता है कि पीते ही तृप्ति एकदम अनुभव में आ जाती है।
खेती में सिंचाई के रूप में वर्षा जल, नदियों के जल और कुंओं के जल का अपना-अपना प्रभाव होता है । प्रत्येक जल की सिंचाई का प्रभाव, अन्तर अलग-अलग होता है। ऐसे ही स्थान के भेद से जल का स्वाद और गुण में अन्तर सबके लिए प्रत्यक्ष है। सम्भवतः इसी दृष्टि से वेद में एक सौ से अधिक जल के नाम दिए गए हैं।
भौतिक विज्ञान से जल के स्थानगत और प्राप्ति स्थल के अन्तर को भौतिक रूप में स्पष्ट किया जा सकता है तथा वेद आदि शास्त्रों में जल का कौनसा नाम क्यों है, इसको भी सामने लाया जा सकता है। गंगा का जो जल नगरों के प्रभाव से अछूता है, वह लम्बे समय तक स्थिर रहता है, सड़ता नहीं। इस प्रकार उसकी गुणवत्ता सर्वप्रसिद्ध है। गोमूत्रमय जल आज अनेक रोगों में अपना औषध वाला रूप दर्शा रहा है। ऐसे ही नारियल का जल दवा है।
वेद में स्पष्ट रूप से ’अप्सु अन्तरममृतम्’ (ऋग्वेद 10.23.19) अर्थात जल के अन्दर अमृत है। अमृत= न+मृत= जीवित, जीवन का साधन तथा विकार, परिवर्तनरहित होना। आयुुर्वेद में भी जल चर्चा स्पष्ट रूप में आई है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 89 | Explanation of Vedas | अन्तिम समय में अपने कर्मोँ को याद करो।