विशेष :

माता की तरह कल्याणकारक जल

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Mata ki Tarah Kalyankari Jal

ओ3म् यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः।
उशतीरिव मातरः॥ ऋग्वेद 10. 9. 2॥

शब्दार्थ- उशतीः = चाहना रखने वाली मातरः = अपनी सन्तानों का निर्माण-पालन करने वाली माताएं इव = जैसे उनका यः = जो भी शिवतमः = बच्चों का कल्याण करने वाला रसः = विविध पदार्थों का सार, भावों से भरा अमृतमय दुग्ध होता है। वे उससे बच्चों का पालन-पोषण करती हैं। ठीक उसी प्रकार हे जलो! वः = तुम्हारा जो भी शिवतमः = ÷अन्यों की अपेक्षा उत्कृष्ट जीवनीय तत्वों से भरा कल्याणकारक रसः = रस रूप में जो जल है तस्य = उसका इह = इस सेवन काल में नः = हम चाहना रखने वालों को भाजयत = सेवन कराओ, उससे भरपूर करो, लाभान्वित करो।

व्याख्या- इस मन्त्र में जल के लाभों को स्पष्ट करने लिए जो मातरः के रूप में उपमा दी गई है, वह सर्वानुभवगम्य है। अर्थात् प्रत्येक जन्म लेने वाला प्राणी उस से परिचित है। इस उपमा में मातरः का विशेषण उशतीः (चाहना रखने वाली) और रस का शिवतमः विशेषण विशेष विवेचनीय हैं। तभी तो आजकल विज्ञापनों, सन्देशों में सर्वत्र घोषित हो रहा है कि माता का दुग्ध सबसे बढ़कर अमृत है। जल के अधिकतम नाम (संस्कृत भाषा में) नपुंसकलिंग में हैं। पर यहाँ प्रसंग प्राप्त आपः शब्द स्त्रीलिंग के बहुवचन का है। अतः मातरः की उपमा अनेक दृष्टियों से सार्थक सिद्ध होती है। उपमान और उपमेय दोनों के विविध भाव इससे संकेतित होते हैं। दोनो स्थलों के मिलान से यह बात और भी अधिक स्पष्ट होती है। मानव माता की हार्दिक भावनाओं का अभौतिक प्रभाव तो और भी अधिक अतुलनीय है।

इस मन्त्र में आया रसः शब्द क्रिया का कर्म होने से केन्द्र रूप में है। अतः उसका शिवतम विशेषण विशेष गहराई में ले जाता है। उस पर भी उशतीः मातरः से दी गई उपमा सारे भाव को चार चान्द लगा देती है। जैसे कि पूर्व में कहा है कि माता से प्राप्त दूध अतुलनीय है। इसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती है। रसः का शिवतमः विशेषण दोनों (जल और माता) की स्वारस्यता सामने लाता है।

शिव = कल्याण करने वाला, लाभप्रद, हितकारक है। उस पर भी इसके साथ तमप् प्रत्यय का लगना यह सिद्ध करता है कि यह इस रूप में सर्वथा सर्वदा सबसे उत्कृष्ट है। प्रत्येक प्राणी वर्ग में माता का स्थान सर्वोत्कृष्ट है, तभी तो मनुस्मति में आया है- माता ताभ्यो गरीयसी (2,33) अर्थात् माता, शिक्षक, पिता, बुआ, मौसी आदि सभी सहयोगियों से बढ़-चढ़कर है। इस मन्त्र में क्रिया रूप में ’भाजयत’ भी ध्यातव्य है। इसका भाव है कि हे जलो! अपने इस अनोखे रस से आप्लावित, भरपूर, लाभान्वित करो। इससे संकेत रूप में यह सामने आता है कि हम केवल इसके गीत ही न गाएँ, अपितु स्तवन से अधिक उसका सेवन करके लाभ उठाएँ। जल के सेवन के अनुभवों की गहराई में जाएँ।

भावार्थ- इस मन्त्र में भी सूक्त के प्रथम मन्त्र की तरह जल को सम्बोधित किया गया है। इस वर्णन से ऐसा लगता है कि जल की अपेक्षा जल सेवन करने वालों को सचेत किया जा रहा है कि जल तुम्हारे लिए इस प्रकार हितकर है। अतः माता की तरह जल का महत्व अनुभव करके इसका विशेष लाभ ग्रहण करो। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

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