विशेष :

जीवनीय तत्व

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jivniy tatv

ओ3म यददो वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः ।
ततो नो देहि जीवसे॥ ऋग्वेद 10.186.3॥

शब्दार्थ- वात = हे जीवन को आगे से आगे चलाने वाले वायु! आपके कारण यत् अदः = जो यह ते = (तेरे) आपके गृहे = भण्डार में, व्यवस्था में अमृतस्य = जीवन की अमरता, जीवित रूप का निधिः = खजाना, शक्ति, तत्व हितः = स्थापित, उपस्थित, भरा विद्यमान है। ततः = उस तत्व को नः = हमारे जीवसे = जीवन के लिए देहि = दीजिए अर्थात आपकी जो यह जीवनीय शक्ति है, उससे हमारे जीवन को भरपूर करो।

व्याख्या- इस मन्त्र में भी दूसरे मन्त्र की तरह वात को सम्बोधित किया गया है। जैसे कि उसको सामने बिठाकर उससे बातें की जा रही हों। वात, वायु दोनों शब्द ’वा गतिगन्धनयोः‘ धातु से बने हैं। जो सदा चलने वाली गतिशीलता को जहाँ दर्शाती है, वहाँ वायु के साथ गन्ध भी स्वाभाविक रूप से बहती है। बाह्य जगत में जैसे वायु विचरती है, उस पर निर्भर प्राण शरीर में संचार करते हैं। हम साँस लेकर और छोड़कर इसके इन दो रूपों को स्पष्ट अनुभव करते हैं। वैसे कण्ठ, उदर, हृदय आदि में भी श्‍वसन और उसका कार्य चलता है, जिसके कारण बोलने, भोजन पचाने जैसे कार्य होते हैं। अर्थात स्थान और कार्यभेद से श्‍वसन क्रिया के अनेक नाम (प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान) शास्त्रों में दर्शाए गए हैं ।

इस मन्त्र में वायु को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि तेरे अन्दर की जो अमरता की शक्ति है, उसको जीवन के लिए हमें दीजिए। यहाँ पहला सन्देश है- अमृतस्य निधिः। अर्थात साँस रूप में रूपान्तरित वायु दीर्घ आयु का आधार है। अतः उसमें जीवन को दीर्घ, लम्बा, स्थिर बनाने की जीवनीय शक्ति है। वायु प्राकृतिक तत्व है, जो कि स्वाभाविक रूप से शुद्ध होती है। उससे शरीर के अन्दर चलने वाले प्राण का सीधा सम्बन्ध है। तभी तो जब कोई स्वच्छ हरे-भरे बाग में होता है, तब उसका तन-मन प्रसन्न हो जाता है। वहाँ वह अधिक से अधिक समय तक रहकर जीवनीय तत्वों से भरपूर होना चाहता है। अतः हम प्राकृतिक वायु का जितना भरपूर प्रयोग करते हैं, उतना-उतना हमारा जीवन अमर, स्थिर, दीर्घ होता है। अतः वायु का शुद्ध होना व रहना हमारे हित में है।

यदि हम इस दृष्टि से सावधान नहीं रहते तो ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ के अनुसार प्रदूषित वायु हमारे लिए प्रदूषण के अनुरूप उतने-उतने अंश में हानिकारक सिद्ध होती है। आजकल वाहनों, कारखानों, यन्त्रों, कीड़ेमार दवाइयों, गैसों से वायु प्रदूषण फैलाया जा रहा है। इसके साथ दीपमाला और विवाह जैसे खुशी के अवसरों पर भी पटाखों द्वारा प्रदूषण को हम स्वयं बुलाते हैं। कई बार अपनी असावधानी और आदतवश प्रदूषित होने वाली चीजों को जल में डालकर प्रदूषण को बढ़ाते हैं। प्रदूषित स्थल, जल, वायु किसी को भी पसन्द नहीं होता। अतः ऐसी स्थिति से हर एक जल्दी से जल्दी दूर होने का यत्न करता है।

मन्त्र में दूसरा सन्देश ’जीवसे’ है। यह प्राकृतिक स्वच्छ वायु प्राण रूप में परिणत होकर जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है। अर्थात् हमारा जीवन इसी के आधार पर चलता है। हमारा शरीर अपने आपको जीवित करने के लिए श्‍वास की क्रिया को करता है। यह क्रिया इतनी स्वाभाविक और सामान्य रूप में होती है कि गहरी नीन्द में भी वह होती रहती है। जब हम दौड़ने या शक्ति से होने वाला कोई कार्य करते हैं, तब हमें और दूसरों को इसका स्पष्ट रूप से बोध होता है।

शरीर में संचरण करने वाली श्‍वास की गति-स्थिति को सामने रखकर हमारे ऋषियों ने प्राणायाम का आविष्कार किया है। प्राण तथा आयाम से प्राणायाम शब्द बनता है। इसमें श्‍वास को गहरा-लम्बा बनाने का यत्न होता है। इसमें विशेष ढंग से प्राण को लेने-छोड़ने-रोकने का विधान किया गया है। तभी तो योग दर्शन में कहा गया है-
प्रच्छर्दन विद्यारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ 1.34 ॥
तस्मिन सति श्‍वास प्रश्‍वासयोः गति विच्छेद: प्राणायामः॥ 2.49॥

जो इसका अभ्यास करते हैं, वे विशेष लाभ में रहते हैं। इनसे स्वास्थ्य, शरीर का विकास, विकार (रोग) का विनाश और मन निर्मल होता है। अतः यहाँ सारों का सार यह है कि प्राण पर अमरता, विकास, संशुद्धि, दीर्घायु देने की शक्ति निर्भर है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

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