विशेष :

समान मन व विचार

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saman man or vichar

ओ3म् भवतं नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञं हिंसिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ
शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा॥ यजुर्वेद 5.3॥

विशेष - मन्त्र में आए तीनों क्रियापद मध्यम पुरुष के द्विवचन में हैं। भवतम्= इसका अर्थ है- तुम दोनों होओ। अतः मन्त्र तुम दोनों को कर्ता रूप में सामने रखकर कह रहा है कि तुम दोनों ऐसे-ऐसे होओ। कैसे?

शब्दार्थ- तुम दोनों नः= हम सबके लिए समनसौ= समान मन वाले सचतेसौ= एक जैसी सोच वाले, सचेत, परस्पर सावधान, सजग, अरेपसौ=न+रेप= अरेप (रेप = पाप, अपराध, विकार, दोष, हिंसा)= दोष, विकार, छल-कपट, पाप, अपराध रहित भवतम्= होओ। तुम दोनों यज्ञम् = प्रकरणगत शुभ कर्म को मा हिंसिष्टम् = मत नष्ट करो, खण्डित न करो, नुकसान-हानि न पहुँचाओं, उपेक्षित न करो और यज्ञपतिम्= यज्ञ के करने वाले, पालने-चलने वाले को भी मा हिंसिष्टम् = मत नष्ट करो, न मारो, उपेक्षित न करो, परस्पर उदासीन न हो, नुकसान= हानि न पहुँचाओं। अद्य= आज अभी नः= हम सबके लिए जातवेदसौ= अच्छी तरह से एक-दूसरे को जानने वाले, समझने वाले, स्पष्ट समाधान वाले तथा शिवौ= कल्याण= भलाई, अच्छाईयुक्त भवतम्= होओ, बनो। स्वाहा= हमारी भावना, चाहना पूर्ण हो, सत्य हो, हमारा यह कहना, सोचना सिरे चढे। स्वाहा- सु+आह, आह= कहा हुआ सु हो।

व्याख्या- संसार में ऐसे अनेक कार्य हैं, जिनको दो जने मिलकर करते हैं। ऐसे साँझे कार्यों की सफलता और परस्पर के विश्‍वास को बनाए रखने के लिए मन्त्र में बताई बातों का होना आवश्यक है। इसका सबसे स्पष्ट, प्रत्यक्ष उदाहरण गृहस्थ जीवन है। इसीलिए संस्कृत भाषा में पति-पत्नी को दम्पत्ति कहते हैं। इससे ही दाम्पत्य जीवन शब्द प्रचलित हुआ है। दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए मन्त्र निर्दिष्ट गुणों को अपनाना, पालना आवश्यक है। तभी दोनों के कुलों की पूर्व परम्परा का संरक्षण तथा भावी परम्परा का विकास,पारस्परिक कामनाओं की पूर्ति और सामाजिक-धार्मिक निखार हो सकता है।

मन्त्र में आए समनसौ, सचेतसौ, अरेपसौ, जातवेदसौ, शिवौ पाँचों शब्द द्विवचन में हैं। ये दोनों के गुण,तत्व, रहस्य, शर्तें, खूबियाँ बता रहे हैं। ये सारे गुण सर्वानुभवगम्य होने से पूरी तरह से स्पष्ट, सरल, सहज, प्रत्यक्ष है। प्रतिदिन के जीवन में पग-पग पर हम इनकी अनिवार्यता अनुभव करते हैं। इनकी उपेक्षा के कारण ही धीरे-धीरे दिल-दिमाग एक-दूसरे से दूर, उदासीन हो रहे हैं। जैसे-कैसे निभाने की बात बीच में आ जाती है।

मा यज्ञं हिंसिष्टम् मा यज्ञपतिम् को विशेषतः समझने के लिए कहा जा सकता है कि दूसरों के और अपने प्रकरणस्थ गृहस्थ रूपी यज्ञ और गृहस्थियों के व्यवहार, जीवन में दखल न डालो, उलझन न उभारो। इनको हिंसित करने का आज एक रूप है- तलाक। वह किसी की ओर से किसी भी कारण से हो, इससे गृहस्थ यज्ञ स्वयं उजाड़ा जाता है। जीवन को खतरा होने पर, जान-बूझकर बार-बार अत्याचार-अन्याय करने पर तो वह व्यवहार मूल का ही विनाशक होने से शुभकर्म के स्थान पर अशुभ हो जाता है। तब इस सम्बन्ध को बनाए रखना अत्यन्त कठिन हो जाता है।

इस मन्त्र में निर्दिष्ट सन्देश से लाभान्वित होने के लिए योगदर्शन में आया यह सूत्र ’स तु दीर्घकाल....‘ बहुत उपयोगी है। जैसे योग की प्रक्रिया का परिणाम, प्रभाव, लाभ तभी चरितार्थ होता है, जब इस सूत्र को अपनाया जाता है। ऐसे ही दाम्पत्य जीवन वालों को सूत्र का सन्देश है- स तु दीर्घकालनैरन्तर्य सत्कारा सेवितो दृढभूमिः॥ (योगदर्शन 1.14 ) अर्थात् इन गुणों को हम दीर्घकाल= लम्बे समय तक वर्षानुवर्ष नैरन्तर्य= लगातार नियमित रूप से करें, पालें। यह नहीं कि एक दिन कर लिया, फिर कुछ छोड़ दिया। यहाँ तीसरी बात है- इन बातों का पालन परस्पर सत्कार = आदर, मान देते हुए करें। क्योंकि दोनों चेतन = विचारशील हैं, अतः दोनों चाहते हैं कि मुझे, मेरी बातों, कार्यों, सम्बद्धों को मान मिले।

पति-पत्नी की तरह दोनों के रूप में अन्य अनेक भी अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षक-शिष्य, अधिकारी-अधीनस्थ कर्मचारी, मालिक-मजदूर, ग्राहक-दुकानदार आदि के रूप भी सामने आते हैं। हाँ, ये सब अधिकतर उस-उस ईकाई के प्रतिनिधि होते हैं। पुनरपि यह एक सचाई है कि इन-इन के पारस्परिक सद्भाव-सहानुभूति-सहयोग से ही वह-वह सफलता सामने आती है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 98 | Explanation of Vedas | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या