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विजयादशमी का संदेश

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Vijayadashamis Message

हर बार की तरह इस बार भी विजयादशमी का पावन पर्व फिर से आया है। इस समय नौ दिन तक माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होती है। रात में दुर्गा जागरण होते हैं और अष्टमी या नवमी वाले दिन लोग कन्याओं का पूजन करते हैं। सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में जय काली कलकत्ते वाली का जोर रहता है। उत्तर भारत में नौ दिन तक रामलीलाओं का गांव-गांव और शहर-शहर में मंचन होता है और फिर आश्‍विन शुक्ल दशमी को बुराई और आसुरी शक्ति के प्रतीक रावण का पुतला फूंक दिया जाता है। लोग दैवी शक्ति के स्वरूप भगवान राम की जय-जयकार कर अपने घरों को लौट जाते हैं।

लेकिन क्या विजयादशमी का केवल इतना ही प्रतीकात्मक महत्व है। क्या विजयादशमी पर केवल कुछ कर्मकाण्ड पूरे कर लेना ही पर्याप्त है। सच तो यह है किसी भी पर्व या उत्सव को प्रचलित हुए जब काफी लम्बा समय बीत जाता है, तो उसमें कुछ जड़ता और कमियां आ जाती हैं। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि इन कमियों को दूर करने के लिए समय-समय पर ऐसे महापुरुषों का भी प्रादुर्भाव होता रहा है, जो समाज के सम्मुख अपना आदर्श प्रस्तुत कर इस जड़ता को तोड़ते हैं और समाज को सही दिशा दिखाते हैं।

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विजयादशमी के साथ अनेक ऐतिहासिक प्रसंग प्रचलित हैं। सबसे पुराना प्रसंग माँ दुर्गा के साथ जुड़ा है। ऐसी मान्यता है कि जब सारे देवता शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज और महिषासुर जैसे राक्षसों से पराजित हो गये, तो उन्होंने मिलकर उनका सामना करने का विचार किया, पर आज की तरह वहाँ भी पुरुषोचिंत अहम् तथा नेतृत्व में एकजुट होकर लड़ना स्वीकार किया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने अपने-अपने शस्त्र अर्थात अपनी सेनाएं भी उनको समर्पित कर दीं। माँ दुर्गा ने सेनाओं का पुनर्गठन किया और फिर उन राक्षसों का वध कर समाज को उनके आतंक से मुक्ति दिलायी थी।

माँ दुर्गा के दस हाथ और उनमें धारण किये गये अलग-अलग शस्त्रों का यही अर्थ है। स्पष्ट ही यह कथा हमें संदेश देती है कि यदि आसुरी शक्तियों से संघर्ष करना है, तो अपना अहम् समाप्त कर किसी एक के नेतृत्व में अनुशासनपूर्वक सामूहिक रूप से एकजुट होकर लड़ना होगा, तभी सफलता मिल सकती है, अन्यथा नहीं।

दूसरी घटना भगवान राम से सम्बन्धित है। लंका के अनाचारी शासक रावण ने जब उनकी पत्नी का अपहरण कर लिया, तो उन्होंने समाज के निर्धन, पिछड़े और वंचित वर्ग को संगठित कर रावण पर हल्ला बोल दिया। वन, पर्वत और गिरी-कंदराओं में रहने वाले वनवासी रावण और उसके साथियों के अत्याचारों से आतंकित तो थे, पर उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे उसका मुकाबला कर पाते। श्रीराम ने उनमें ऐसा साहस जगाया। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण और उनका संचालन सिखाया। और फिर उनके बलबूते पर रावण जैसे शक्तिशाली राजा को उसके घर में जाकर पराजित किया। आज की रामलीलाओं और चित्रों में भले ही वानर, रीछ, गृद्ध आदि का अतिरंजित वर्णन हो, पर वे सब हमारे जैसे सामान्य लोग ही थे।

यह दोनों प्रसंग बताते हैं कि जब सब लोग अपने अहम् एवं पूर्वग्रह छोड़कर संगठन की छत्रछाया में आते हैं, तो उससे आश्‍चर्यजनक परिणाम निकलते हैं।

पर समय के साथ इस पर्व के मूल उद्देश्य पर कुछ धूल आ गयी, जिसे साफ करने की आवश्यकता है। हिन्दू समाज में जहाँ व्यक्तिगत रूप से पालन करने के लिए तरह-तरह के व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा आदि का प्रावधान है, वहीं अधिकांश पर्व सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले हैं। हर पर्व के साथ कुछ न कुछ सामाजिक संदेश भी जुड़ा है। नवरात्र में किये जाने वाले उपवास के पीछे शुद्ध वैज्ञानिक कारण है। इससे गर्मी और सर्दी के इस संधिकाल में पेट की मशीनरी को कुछ विश्राम देने से अनेक आतंरिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है, पर कुछ लोग व्रत के नाम पर बिना अन्न की महंगी और गरिष्ठ वस्तुएं खाकर पेट ही खराब कर लेते हैं। यह शारीरिक रूप से तो अनुचित है ही, भारत जैसे निर्धन देश में नैतिक दृष्टि से भी अपराध है।

इसी प्रकार नवरात्र में माँ दुर्गा के जागरण के नाम पर इन दिनों जो होता है, वह बहुत ही घिनौना है। सारी रात बड़े-बड़े ध्वनिवर्द्धक लगाकर पूरे मौहल्ले या गांव की नींद खराब करने को धर्म कैसे कहा जा सकता है? गंदे फिल्मी गानों की तर्ज पर बनाये गये भजनों से किसी के मन में भक्तिभाव नहीं जागता। जागरण मण्डली में गाने-बजाने वालों का स्वयं का चरित्र कैसा होता है, नवरात्र के दौरान भी क्या वे दुर्व्यसनों से दूर रहते हैं, इसे कोई नहीं देखता। शादी-विवाह में संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले युवक और युवतियाँ ही इन दिनों भजन गायक बन जाते हैं। उनका उद्देश्य भक्तिभाव जगाना नहीं, पैसा कमाना होता है। वस्तुतः दुर्गा पूजा और विजयादशमी शक्ति की सामूहिक आराधना के पर्व हैं। माँ दुर्गा के हाथ में नौ प्रकार के शस्त्र हैं। नवरात्र का अर्थ है कि गांव या मौहल्ले के युवक माँ दुर्गा की मूर्ति या चित्र के सम्मुख किसी विशेषज्ञ के निर्देशानुसार शस्त्र-संचालन का अभ्यास करें। इस प्रकार नौ दिन तक नौ तरह के अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त कर विजयादशमी के दिन पूरे गांव और नगर के सामने उनका सामूहिक प्रदर्शन करें। महाराष्ट्र में शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास द्वारा स्थापित अखाड़ों में यही सब होता है। इनके बल पर ही शिवाजी ने औरंगजेब जैसे विदेशी और विधर्मी को धूल चटाई थी।

उस समय खड्ग, शूल, गदा, त्रिशूल, चक्र, परिध, धनुष-बाण, कृपाण आदि प्रचलित थे। इसलिए माँ दुर्गा के हाथ में वही परम्परागत शस्त्र दिखायी देते हैं। पर आजकल जो आधुनिक शस्त्रास्त्र व्यवहार में आ गये हैं, उनका भी अभ्यास करने की आवश्यकता है। शस्त्रों की पूजा करने का यही व्यावहारिक अर्थ है। पर दुर्भाग्य से जातिवाद की प्रबलता के कारण इसे क्षत्रियों का पर्व बताकर शेष समाज को इससे काटने का प्रयास हो रहा है। इसी प्रकार कुछ राजनेता और दल भगवान राम की विजय को उत्तर भारत की दक्षिण पर विजय बताकर इसे देश बांटने का उपकरण बनाना चाहते हैं।

नवरात्रों में अष्टमी या नवमी पर होने वाले कन्यापूजन का भी बड़ा भारी सामाजिक महत्त्व है। आजकल इसका स्वरूप भी व्यक्तिगत हो गया है। हर व्यक्ति अपने आसपास या रिश्तेदारों की कन्याओं को अपने घर बुलाकर उनके पूजन की औपचारिकता पूरी कर लेता है, जबकि यह भी समाजोत्सव है। गांव की सब कुमारी कन्याओं को किसी एक स्थान पर एकत्र कर गाँव के प्रत्येक युवक एवं गृहस्थ को उसके पाँव पूजने चाहिएं। वर्ष में एक बार होने वाला यह कार्यक्रम जीवन भर के लिए मन पर अमिट संस्कार छोड़ता है। जिसने भी कन्याओं के पांव पूजे हैं, वह आजीवन किसी लड़की से छेड़छाड़ नहीं कर सकता। यौन अपराधों को रोकने के केवल यही एक पर्व देश के सब कानूनों से भारी है। सम्पूर्ण नारी समाज के प्रति माता का भाव जगाने वाले इस पर्व को सब एक साथ मनायें, यही अपेक्षित है।

इन दिनों दूरदर्शन के बढते प्रभाव के कारण क्षेत्र या प्रान्त विशेष में होने वाले उत्सव पूरे भारत में होने लगे हैं। इनमें पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित दुर्गा पूजा, उड़ीसा की जगन्नाथ रथ यात्रा, महाराष्ट्र की गणेश पूजा, पंजाब के देवी जागरण, उत्तर भारत की रामलीला आदि उल्लेखनीय हैं।

विजयादशमी पर दुर्गा पूजा एवं फिर उन प्रतिमाओं का विसर्जन निकटवर्ती जलाशय में करते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज से सौ साल पूर्व भारत की जनसंख्या बीस करोड़ ही थी और नदी, ताल आदि में भरपूर पानी रहता था। आज जनसंख्या सवा अरब से ऊपर है। नदियों में जल का स्तर कम हो गया है और तालाबों की भूमि पर बहुमंजिले भवन खड़े हो गये हैं। ऐसे में जो जल शेष है, वह प्रदूषित न हो, इस पर विचार अवश्य करना चाहिए। इसलिये प्रतिमा बनाते समय उसमें प्राकृतिक मिट्टी, रंग तथा सज्जा सामग्री का ही प्रयोग करें। प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग आदि का प्रयोग उचित नहीं है। विसर्जन से पूर्व ऐसी अप्राकृतिक सामग्री को उतार लेने में कोई बुराई नहीं है। विसर्जन के कई दिन बाद तक घाट स्नान योग्य नहीं रहते। उस जल की निवासी मछलियाँ इस दौरान बड़ी संख्या में मर जाती हैं। अतः पूजा समितियों को इनकी सफाई की व्यवस्था भी करनी चाहिए।

कुछ अतिवादी सोच के शिकार लोग मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाने की मांग करते हैं। वे भूल जाते हैं कि मूर्ति-निर्माण और विसर्जन हिन्दू चिन्तन का अंग है, जो यह दर्शाता है कि मूर्ति की तरह ही यह शरीर भी मिट्टी से बना है, जिसे एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है। विसर्जन के समय निकलने वाली शोभायात्रा से अन्य नागरिकों को परेशानी न हो, यह भी आयोजकों को ध्यान रखना चाहिए। इस दिशा में कानून कुछ खास नहीं कर सकता, अतः हिन्दू धर्माचार्यों को आगे आकर लोगों को सही दिशा दिखानी होगी। वैसे लोग स्वयं ही जाग्रत हो रहे हैं, पर इसकी गति और तेज होनी चाहिए।

यदि विजयादशमी से जुड़ इन प्रसंगों को सही अर्थ में समझकर हम व्यवहार करें, तो यह पर्व न केवल हमें व्यक्तिगत रूप से अपितु सामाजिक रूप से भी जागरूक करने में सक्षम है। रावण, कुम्भकरण और मेघनाद के पुतलों का दहन करते समय अपनी निजी और सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्‍वासों और कालबाह्य हो चुकी रूढियों को भी जलाना होगा। आज विदेशी और विधर्मी शक्तियाँ हिन्दुस्थान को हड़पने के लिए जैसे षड्यन्त्र कर रही हैं, उनका सामना करने का सही संदेश विजयादशमी का पर्व देता है। आवश्यकता केवल इसे ठीक से समझने की ही है। - विजय कुमार (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)

This is the meaning of the ten hands of Maa Durga and the different weapons worn in them. This story clearly gives us the message that if we have to fight with devilish powers, then we have to finish our self-discipline and fight unitedly collectively under the leadership of one, only then success can be achieved otherwise.