वेद सब सत्य विद्या एवं ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है। यह एक ऐसा विचित्र रत्नागार है कि मनुष्य सहस्त्रों जन्म धारण कर प्रत्येक जन्म में अन्य सांसारिक कार्यों से विरत होकर इस अपार रत्न-निधि में जीवन पर्यन्त गोते लगाता रहे, तो नवीन आभा सम्पन्न नए-नए रत्न हाथ लगते रहेंगे। फिर भी इसमें कितने रत्न भरे पड़े हैं, इस बात का पता लगना सर्वथा असम्भव है।
वेद अनन्त काल से गाया गया और ’श्रुति’ नाम से सुना गया ईश्वरीय संगीत है। इसकी मधुर स्वर-लहरी जिन कानों में प्रविष्ट हो गई, वे अन्य सांसारिक संगीत के प्रति तनिक भी अभिरुचि नहीं रखते। यह परम देव एवं गुरुओं के गुरु परमात्मा का काव्य है- पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति । देव (परमात्मा) के काव्य को देखो, यह न मरता है और न जीर्ण होता है। महाप्रलय के पश्चात जब प्रवाह रूप से अनादि सृष्टि का पुनर्विकास होता है, अव्यक्त जगत् व्यक्त होने लगता है, उसी समय परमात्मा द्वारा प्रदत्त इस महान एवं अजर-अमर काव्य का उच्चारण पवित्र आत्माओं द्वारा मानव के कल्याण के लिए हुआ करता है।
वेद परमात्मा का अजर-अमर काव्य है। छन्द, अलंकार, रस, पद-लालित्य, ध्वनि, गति, यति आदि काव्य के सभी अंग वेद में विद्यमान हैं। निश्चित रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि लौकिक काव्य का सृजन वेद से ही हुआ है।
वेद की वाणी मानव मात्र के लिये समान रूप से है। इस पर किसी देश, जाति अथवा सम्प्रदाय का निजी अधिकार नहीं है। सभी सम्प्रदायों, जातियों और देशों के लोग इस अपार ज्ञान भण्डार से लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वेद की शिक्षा है कि संसार में सब मनुष्य समान हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषा सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः॥ (ऋग्वेद 5.60.5)
इनमें कोई बड़ा नहीं है और कोई छोटा भी नहीं है। ये सब परस्पर भाई हैं। ये सब उत्तम ऐश्वर्य के लिये मिलकर प्रयत्न करते हैं। इन सबका पिता स्वयं रुद्र (ईश्वर) है। इनके लिये सुन्दर स्वादिष्ट दूध देने वाली माता प्रकृति है। यह प्रकृति माता, नहीं रोने वालों के लिये उत्तम दिन प्रदान करती है।
राष्ट्र की समृद्धि के लिए वेद का यह उत्तम उपदेश है। उत्तम राष्ट्र चार शक्तियों से मिलकर बनता है- 1. ब्राह्म शक्ति 2. क्षात्र शक्ति, 3. वैश्य शक्ति, 4. श्रमिक शक्ति। यही चार प्रकार की शक्ति राष्ट्र की चतुरंगिणी सेना है। सेना के सभी सैनिकों में यदि यह भाव पैदा हो जाये कि मैं उच्च पद अथवा श्रेणी का हूँ, अन्य सभी सैनिक मुझसे निम्न पद या श्रेणी के हैं। अतः मैं ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हूँ, तो इसका परिणाम होगा सेना में विघटन पैदा हुआ कि संगठन समाप्त हुआ। संयम और अनुशासन की भावना समाप्त हो जायेगी। अनुशासनहीन सैनिक राष्ट्र की रक्षा के कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य सिद्ध होंगे।
वेद का उपदेश है कि तुम कभी भी इस ऊँच-नीच की अभद्र भावना को अपने में मत आने दो और सदैव इस भद्रदायिनी भावना को अपने हृदय स्थल में स्थापित करो कि हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है। हम सब परस्पर भाई हैं। हम सब मिलकर राष्ट्र को स्वाधीन एवं समृद्धिशाली बनाने के लिये प्रयत्नशील हों। हमारा एक पिता है, एक मार्गदर्शक सेनापति है, हमको उसके आदेश पर चलनाचाहिये। हमारी माता प्रकृति है जो सदैव हमारा अन्न, औषधि, जल, वायु, प्रकाश आदि के द्वारा पोषण करती है।
वेद का यही उपदेश मानव मात्र के लिये है कि मनुष्यो! तुम समान हो, तुममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है। तुम सब मिलकर उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करो और प्रयत्न करते रहो। अगणित बाधाओं के आने पर भी साहस मत छोड़ो, आगे बढते रहो। प्रकृति तुम्हारी माता है, वह तुम्हारे साहस को देखकर तुम पर प्रसन्न होगी और अपना वात्सल्य तुम्हारे ऊपर उड़ेल देगी। उत्तम पौष्टिक अन्नों से, मधुर फलों से, जीवनप्रद औषधियों से, जल से, वायु से, प्रकाश से तुमको पुष्ट एवं विकसित कर देगी। दशों दिशाओं में तुम्हारे लिये सुख और समृद्धि का द्वार खुल जायेगा।
तुम मनुष्य हो! इसलिये तुम्हें ज्ञान और कर्म के अनुष्ठान द्वारा अन्धकार से हटकर प्रकाश की ओर चलना है और प्रकाश की ओर चलते हुये मनुष्यत्व से ऊपर उठकर देवत्व प्राप्त करना है। देवता बनकर परम प्रकाश स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना है।
जीवन में जब दूषित विचार प्रविष्ट हो जाते हैं, तो मनुष्य की उन्नति का मार्ग सर्वथा अवरूद्ध हो जाता है। इसलिये वेद ने आदेश दिया है- उल्लू की चाल को, भेड़िये की चाल को और गीध की चाल को, हंस की चाल को छोड़ दो।
उल्लू प्रकाश से वैर मानता है। उसको सदैव अन्धकार ही प्रिय होता है। भेड़िया उत्यन्त क्रूर होता है। अकारण भी वह प्राणियों की हिंसा करने के लिये प्रतिक्षण उद्यत रहता है। कुत्ता मत्सरी होता है। वह अपनी जाति वालों से तो अकारण लड़ बैठता है, परन्तु मनुष्य के सम्मुख अनेक प्रकार से चापलूसी करता है। भूखा न होने पर भी खाने की वस्तु को देखकर चुपचाप उठाकर चल देता है, भले ही उसे वह खा न सके। हंस पक्षी अत्यधिक कामी होता है। इस प्रबल कामुकता के कारण ही वह मनुष्यों द्वारा पकड़ा जाता है। गरुड़ अहंकारी होता है। गीध लोभी होता है।
वेद कहता है- प्रकाश से हटकर अन्धकार को प्यार करने वाली मोहवृत्ति, दूसरों को और कभी-कभी अपनों को भी हानि पहुँचाने वाली क्रोधवृत्ति, स्वजाति वालों से वैर मानकर परजाति वालों के सम्मुख दीन भाव से चापलूसी करने वाली मत्सरवृत्ति, बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देने वाली कामवृत्ति, सबसे विरोध पैदा करा देने वाली अहंकारवृत्ति और सर्वत्र अपमानित करने वाली लोभवृत्ति, इन 6 वृत्तियों को सर्वथा त्याग देना चाहिए। इन छह में से एक के भी प्रबल हो जाने से मनुष्य पथ-भ्रष्ट होकर समाज में सदैव अपमानित हुआ करता है। उसे जीवित रहते हुए भी पदे-पदे मृत्यु के दर्शन होते रहते हैं। वह कायर बन जाता है। सम्मान के बदले उसे अपमान की ज्वाला में जलना पड़ता है। इसलिये- दृषदेव प्रमृण रक्ष इन्द्र। ऐश्वर्य के अभिलाषी हे इन्द्र ! इस दुवृत्तियों रूपी राक्षसों को जैसे पत्थर से किसी वस्तु को कुचल दिया जाता है, ऐसे ही अपने संयम तथा दृढता रूपी पत्थर से कुचल दे।
वास्तव में ऐसे ही संयमी, दृढप्रतिज्ञ और अनुशासनप्रिय व्यक्तियों के द्वारा राष्ट्र का गौरव बढता है और उनका अपना भी सर्वत्र सम्मान होता है।
यो जागार तमृचः कामयन्ते, यो जागार तमु सामानि यन्ति।
यो जागार तमयं सोम आह, तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः॥ ऋग्वेद 5.44.14॥
जो जागता है उसे ऋग्वेद ऋचाएं चाहती हैं। जो जागता है उसे साम प्राप्त होते हैं। जो जागता है, उसे सोम (परमात्मा) कहता है कि मैं तेरे सख्य में निरन्तर एक घर वाला हूँ। जागने का अर्थ है सावधान रहना। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और जातीय कर्त्तव्यों के प्रति प्रतिक्षण जागरूक रहना। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े के भेद को भुलाकर सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करना। शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति में निरभिमान और निरालस्य होकर सदैव प्रयत्नशील रहना। प्रकृति की समस्त शक्तियों को अपने अनुकूल बनाकर उनका सदुपयोग करना। ऋग्वेद ज्ञानकाण्ड है, उसमें तृण से लेकर ब्रह्म पर्यन्त समस्त पदार्थों का ज्ञान भरा हुआ है। जागने वाला मनुष्य उस समस्त ज्ञान-भणडार को प्राप्त कर लेता है। जागने वाला मनुष्य समस्त ज्ञान-विज्ञान को अपने पुरुषार्थ से प्राप्त करके सर्वत्र समादरणीय बन जाता है। उसको विश्वनियन्ता परमात्मा का प्यार प्राप्त होता है। वह सदैव अपने प्रयत्न की सफलता पर हर्षित एवं प्रफुल्लित होता है। प्रयत्नशील मनुष्य विश्व के समस्त ऐश्वर्यों को बरबस प्राप्त कर लेता है। वेद ने सन्देश दिया -
प्रवत्वतीयं पृथिवी मरुद्भ्यः प्रवत्वती द्यौर्भवति प्रयद्भ्यः।
प्रवत्वती पथ्या अन्तरिक्ष्याः प्रवत्वन्तः पर्वता जीरदानवः॥ ऋग्वेद 5.54.9॥
प्रयत्नशील बलशाली वीर पुरुषों के लाभ के लिए यह पृथिवी उत्तम फलों से युक्त होती है एवं उनके सम्मुख झुकती है और उन्हीं के लिए यह विशाल आकाश व सूर्य भी उत्तम सुखदायक होकर झुकता है। अन्तरिक्ष के मार्ग भी उनके लिये उत्तम फलदायक और प्रशस्त हो जाते हैं। उनके लिए पर्वत भी अपने सिर झुका लेते हैं। साथ ही जीवनोपयोगी जल, औषधि, अन्न, फल और मार्ग देने वाले हो जाते हैं।
वेद ईश्वरीय काव्य है इसलिए वेद की प्रत्येक बात आलंकारिक ढंग से होती है। वेद ने कहा- प्रयत्नशील मनुष्यों को पृथिवी उत्तम फल देती है और उनके सम्मुख झुकती है, आकाश और सूर्य सुखदायक होकर झुकते हैं, प्रयत्नशील व्यक्ति के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं, पर्वत झुकते हैं। यह सब तो जड़ पदार्थ हैं, इनका झुकना और देना क्या? इनको तो अपने पुरुषार्थ से झुकाया जाता है और इनसे मनवांछित कार्य सिद्ध किया जाता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -1 | Explanation of Vedas & Dharma | Vedas in Hindi | Ved | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है।