शिक्षा, विद्या, ज्ञान, शिक्षण आदि शब्द सामान्य स्तर पर एक ही अर्थ में लिए जाते हैं। अनेकत्र विद्या की आँख, प्रकाश, धन, दर्पण, वाहन, सोपान आदि से उपमा दी गई है। इसका मूल भाव यही है कि जैसे ये=ये साधन अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी सफलता, सिद्धि, प्रगति कराने में सहायक होते हैं। ऐसे ही उस-उस क्षेत्र का ज्ञान सिद्धिदायक होता है। वस्तुतः विद्या माता-पिता-पत्नी जैसे निकटतम सम्बन्धियों के समान हितकारी है। यह एक ऐसा धन है, जिसको न तो कोई कभी कहीं छीन सकता है और न ही यह किसी प्रकार के भार-भय-भ्रम का कारण बनता है। यह ऐसी अनोखी सम्पत्ति है, जो बाँटने पर बढती है तथा कंजूसी करने पर कम ही होती है। शिक्षा के सर्वविध महत्वों को सामने रखकर ही कहा जाता है कि विद्या ही जीवन, प्रकाश, प्रगति, सफलता, आनन्द, धर्म, सत्य, शक्ति, एकता और अविद्या इससे विपरीत है।
तैत्तिरीय उपनिषद के प्रथम भाग को शिक्षा-वल्ली कहा जाता है। इसमें तत्सम्बद्ध तत्वों का तात्विक चित्रण है। इस उपनिषद तथा कठोपनिषद् में मंगलाचरण के रूप में एक मन्त्र पढा गया है, जिसमें शिक्षा के स्वारस्य को सर्वांगीण रूप में स्पष्ट किया गया है। इसके सम्बन्ध में आज की भाषा में हम यह कहने पर विवश हो जाते हैं कि यह क्या ही मौके की बात, तान, धुन, स्वर या घोष है, जिसमें प्रत्येकशिक्षा- विद्यादि सम्बन्धी समस्त परिभाषाओं, उद्देश्यों, स्वरूपों का पूर्णरूपेण सन्निवेश किया गया है। शिक्षा का पूर्ण, संक्षिप्त महत्वशाली, सर्वाङ्गीण परिचय इससे अधिक सुन्दर शब्दों में नहीं दिया जा सकता है। मन्त्र के शब्द चाहे अतिप्राचीन काल के हैं, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आज कोई व्यक्ति शिक्षा के विषय में अपनी आधुनिक भावनाएँ व्यक्त कर रहा हो।
प्रत्येक शिक्षण संस्था के मुख्यद्वार, भवन और व्यवहार में आने वाली वस्तुओं पर आदर्श वाक्य के रूप में यह मन्त्र अंकित होना चाहिए। वह है-
ओ3म् सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
हे सर्वरक्षक परमेश्वर ! हे विद्याधिदेवते ! हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करो, हम दोनों का साथ-साथ पालन करो, हम दोनों मिलकर शक्ति का धारण करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर कभी भी किसी भी परिस्थिति में मनसा-वाचा और कर्मणा विद्वेष न करें।
इन शब्दों से स्वतः सिद्ध होता है कि यह मन्त्र प्रार्थनामयी शैली में शिक्षा विषयक सर्वाङ्गीण परिचय देता है। इस मन्त्र में शिक्षा के पाँच उद्देश्य दर्शाए गए हैं। इन उद्देश्यों से विद्या का स्वरूप भी स्पष्ट होता है। क्योंकि किसी वस्तु का स्वरूप उद्ेश्य के अनुरूप ही निश्चित किया जाता है।
शिक्षा का प्रथम प्रयोजन या स्वरूप अवतु में निहित है। अव धातु रक्षण-दीप्ति आदि उन्नीस अर्थों वाली होती हुई भी यहाँ मुख्यरूपेण रक्षा की वाचक है। विद्या के ग्रहण का प्रथम प्रयोजन है रक्षण। अर्थात् विद्यार्थी को ऐसी शिक्षा दी जाए कि वह अपने समग्र जीवन में अपेक्षित सर्वविध वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और दैशिक रक्षण करने में समर्थ हो। रक्षण विज्ञान में मुख्यरूपेण शारीरिक, मानसिक, आत्मिक तथा रक्षण के साधनभूत विविध अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान का ग्रहण होता है। विशेषतः शारीरिक विकास ही अभिप्रेत है।
एक शिक्षित व्यक्ति का शरीर, मन और आत्मा विकसित, स्वस्थ होने चाहिएं और वह उनके ज्ञान से युक्त हो। वह शिक्षा, शिक्षा कहलाने के योग्य नहीं है, जिसको प्राप्त कर शिक्षित अपने स्वास्थ्य का ही नाश कर ले या शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अस्वस्थ रहे एवं स्वास्थ्य और रक्षण विज्ञान से अनभिज्ञ अथवा उनमें असमर्थ हो। अर्थात् शिक्षा का प्रथम अंग रक्षण एवं शरीर, मन और आत्मा का विकास है।
मन्त्र का दूसरा चरण है सह नौ भुनक्तु। भुज् पालन अभ्यवहारयोः (पालन और भक्षण)। एक शिक्षार्थी शिक्षित हो जाने के पश्चात इस योग्य हो कि वह अपना और अपने से सम्बन्धित जनों, परिवार, समाज, राष्ट्र का पालन-पोषण कर सके। शिक्षा ग्रहण करने के बाद उसके समक्ष आजीविका की समस्या न हो। आज के युगमें पढ़ने-पढ़ाने वालों की सबसे बड़ी अभिलाषा यही होती है कि शिक्षित हो जाने के अनन्तर अच्छी आजीविका मिल जाए, जिससे अपना तथा अपनों का सांसारिक जीवन अच्छी प्रकार से सुखी हो सके। उसके सामने निर्वाह की समस्या न रहे। शिक्षित में पालन-पोषण सम्बन्धी द्रव्यों की प्राप्ति की योग्यता या उत्तम आजीविका सम्पादन की योग्यता का होना सर्वथा आवश्यक है। अन्यथा आज के युग में शिक्षा की ओर से प्रवृत्ति भी असम्भव हो जाएगी।
इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षण पद्धति में शिल्प, उद्योग, कृषि आदि को यथोचित स्थान दिया जाए, जिससे शिक्षित व्यक्ति उपार्जनसाधनों के संचय सम्बन्धी ज्ञान और कर्म में पटु हो। वह चाहे शरीर से साध्य हो या बुद्धि से, वह दोनों का बिना संकोच, ईमानदारी, उत्साह और रुचि के साथ प्रयोग करने में कुशल हो, शारीरिक कार्यों से घृणा न करे। अर्थात् आजीविका की दृष्टि से जिस समय शारीरिक या बौद्धिक जो भी कार्य करने का अवसर आए, उसको सहर्ष सम्पादन करे। आज ग्राम्य जीवन, शिल्प-कला एवं कृषि आदि शारीरिक कार्यों के प्रति अरुचि, अप्रवृत्ति और घृणा आदि भावनाएँ आधुनिक भारतीय शिक्षण पद्धति की अपूर्णता की द्योतक है। अतएव विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों पर हमें भाषण नहीं नौकरी चाहिए की आवाज उठती हुई सुनाई दे रही है।
शिक्षा का तीसरा उद्देश्य वीर्य शब्द में निहित है। आयुर्वेदीय शरीर विज्ञान के अनुसार खाए हुए भोजन का रस, रक्त, मांस आदि सप्त धातुओं के रुप में क्रमशः परिपाक होने पर जो अन्तिम परिपाक होता है, वह वीर्य कहलाता है। इसको शरीर का राजा, तेल, अनमोल सम्पत्ति कहा जाता है, जिसके कारण शरीर में तेज, शक्ति, पराक्रम, उत्साह, आकर्षकता, सौन्दर्य, स्वास्थ्य, स्मृति और दीर्घायु आदि गुणों का विकास होता है। इसलिए वेद में कई स्थलों पर वीर्य को हिरण्य और दाक्षायण के नाम से भी स्मरण किया गया है। वीर्य और सदाचार का घनिष्ठ सम्बन्ध है। क्योंकि नियम, संविधान, सदाचार और अनुशासन का पालन ही वीर्य, शक्ति, बल, तेज, यश, सफलता का मूल है। अतः वीर्य शब्द यहाँ सदाचार, नैतिकता और अनुशासन का ही परिचायक है।
महात्मा गाँधी ने लिखा है कि शिक्षा का मुख्य प्रयोजन सदाचार है और यही मानव तथा पशु में एक भेद रेखा है। सदाचार का अर्थ है सत्-आचार= अच्छा व्यवहार। अतः शिक्षित व्यक्ति का प्रत्येक कार्य अच्छा होना चाहिए। वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में अनुचित आचरण न करे। अर्थात् शिक्षा का एक प्रयोजन है नैतिकता, सदाचार, अनुशासन का प्रसार। अतः शिक्षा की यह माँग है कि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति समाज या राष्ट्र के संविधान के प्रति सदा सच्चा रहे, कभी भी उसका उल्लंघन न करे। इसीलिए ही समाज और राष्ट्र शिक्षा के प्रसार में कटिबद्ध होते हैं।
आज शिक्षा पद्धति में नैतिकता का यथोचित स्थान न होने से शिक्षित व्यक्ति ही संविधान का उल्लंघन करने में विशेष तत्पर देखे जाते हैं। सामान्य और अनुचित माँगों की आड़ में हिंसायुक्त हड़तालें, प्रदर्शन, तोड़-फोड़ और आग लगाने के दृश्य ही आए दिन सामने आ रहे हैं। कुछ की दृष्टि में चार अक्षरों का ज्ञान और नौकरी प्राप्ति का प्रमाण-पत्र देना ही शिक्षा का एकमात्र प्रयोजन रह गया है। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में अनैतिकता के साम्राज्य को देखकर एक आवाज उठ रही है कि शिक्षितों से तो अशिक्षित ही अच्छे हैं। इसलिए सामन्यजन शिक्षित का भाव चालाक व्यक्ति लेने लगे हैं।
शिक्षा के आचार्य और शिष्य दो मुख्य अंग हैं। आचार्य शब्द के भाव को स्पष्ट करते हुए यास्काचार्य ने निरूक्त 1.4 में लिखा है- आचार्यः कस्मात्, आचार्य आचारं ग्राह्यति आचिनोति अर्थान् आचिनोति बुद्धिमिति वा। अर्थात् वह आचार्य= गुरु, शिक्षक, अध्यापक, प्राध्यापक कहलाता है, जो अपने शिष्यों में सदाचार, नैतिकता, अनुशासन की भावना का सन्निवेश करता है। शास्त्र के अर्थों का या जीवनोपयोगी विविध विषयों या पदार्थों के ज्ञान से उनकी बुद्धि का विकास करता है। इससे जहाँ आचार्य की परिभाषा तथा उसके कर्त्तव्यों का बोध होता है, वहाँ शिक्षा के उद्देश्य और प्रयोजन का भी बोध होता है।
शिक्षा की चौथी विशेषता है- पढा हुआ तेजस्वी= चिरस्थायी हो या जीवन के विविध क्षेत्रों में शिक्षित के तेज= यश, सफलता व विकास का कारण हो। इसमें यह भावना निहित है कि पढने-पढाने का प्रकार ऐसा हो, जिससे वह चिरस्थायी बन सके। अर्थात् अध्ययन-अध्यापन का ऐसा प्रशस्त प्रकार हो कि विद्यार्थी को हर बात अच्छी प्रकार से समझ में आ जाए और वह कुछ क्षण के लिए ही नहीं अपितु दीर्घकाल के लिए। दूसरी बात यह है कि पढाने का माध्यम वह भाषा हो, जिसमें विद्यार्थी हर बात को अच्छी प्रकार से समझ सके तथा अपने भाव व्यक्त कर सके। क्योंकि विद्या का प्रयोजन है विद्या के ग्रहण करने वाले का विकास। जब विद्या उसके लिए है तो उसकी योग्यता और सुविधा के अनुसार ही शिक्षण का माध्यम होना चाहिए। तीसरी बात हय है कि पाठ्यक्रम में उन ग्रन्थों और विषयों को स्थान देना चाहिए, जिससे शिक्षार्थी का सर्वाङ्गीण विकास हो।
पाठ्यक्रम केवल लेखक की दृष्टि से अथवा श्रेणी की शोभा बढाने के लिए ही न हो। आप अनेक पाठ्यक्रम में ऐसी-ऐसी उच्च पुस्तकें हैं कि परीक्षा के समय विद्यार्थी उनको येन-केन-प्रकारेण रटकर तैयारी कर लेते हैं। परन्तु उससे उनका ज्ञान विकसित नहीं होता। वे पुस्तकें विद्यार्थी के ज्ञान का स्थायी विकास न कर सकने से उसके ज्ञान का स्थायी अंग नहीं बनती हैं। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी का पढा हुआ तेजस्वी कैसे बने? प्रायः पाठ्यक्रम के समय यह बात भुला दी जाती है कि यह विद्यार्थी के विकास के लिए है, न कि विद्यार्थी इसके लिए है। शिक्षित की शिक्षा तेजस्वी होने पर ही शिक्षा उसके जीवन में यश, सफलता और विकास का साधन बन सकती है।
मन्त्र में शिक्षा का एक और उद्देश्य है- मा विद्विषाव है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो शिक्षित के अन्दर उन भावनाओं के अंकुर न पनपने दे, जिससे वह अन्यों से मनसा-वाचा और कर्मणा किसी भी जन्म, जाति, कार्य, वर्ग, विचार आदि के आधार पर भेदभाव, घृणा, द्वेष, संघर्ष करे। अर्थात् वही शिक्षा, शिक्षा कहलाने के योग्य है, जिसको प्राप्त कर शिक्षित किसी से भी किसी कारणवश किसी प्रकार का भेदभाव, घृणा, द्वेष नहीं करता। शिक्षा का तो प्रयोजन है प्रेम, सहानुभूति, आत्म-सद्भावना के शिष्ट व्यवहार को व्यावहारिक रूप देना। इन्हीं भावनाओं के अभाव में ही भेदभाव, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, संघर्ष और युद्ध होते हैं।
इस मन्त्र पर बारम्बार विचार और विश्लेषण के पश्चात हम कह सकते हैं कि शिक्षा उस साधन का नाम है, जिसको प्राप्त करके शिक्षित शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से समर्थ, अपना तथा अपनों का पालन करने के योग्य, नैतिकता-सदाचार-अनुशासन से युक्त अर्थात् श्रेष्ठ नागरिक हो। इसकी पूर्ति के लिए उसका उपरोक्त ज्ञान-चिरस्थायी हो तथा वह सबसे प्रेमयुक्त आत्मीय व्यवहार करे। इस प्रकार इस मन्त्र में शिक्षा प्राप्त करने का कराने वाले की एतद्-विषयक समस्त भावनाओं का सर्वात्मना समावेश है। क्योंकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, शिक्षार्थी का पूर्ण विकास। यही भाव माता-पिता अपने आत्मज को आचार्य के श्रीचरणों में सौंपते हुए प्रकट करते हैं।
ओ3म् आधत्त पितरों गर्भ कुमारं पुष्करस्त्रजम्।
यथेह पुरुषो सत्॥ (यजुर्वेद 2.33)
हे शिक्षादि द्वारा पालन-पोषण करने वाले पितरो! पुष्पवत् या पुष्पादि से अलंकृत इस गर्भ रूप कुमार को अनुशासित करो, जिससे यह पुरुष=पूर्ण हो सके। मनुष्य जीवन की सामान्य या विशेष पूर्णता के लिए शरीर, भाषा, ज्ञान, समाज, आजीविका और धर्म व सदाचार इत्यादि क्षेत्रों में विकास अभीष्ट है। अतः शिक्षित व्यक्ति की अभीष्ट सारी भावनाओं का प्रतिमूर्त यह मन्त्र प्रतीत होता है तथा शिक्षा के स्वरूप और उद्देश्य का सर्वाङ्गीण परिचय देता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान | राष्ट्र निर्माण वार्ता