विशेष :

आर्य संस्कृति के प्रतीक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

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maryada purushottam shriram

राम के उदात्त चरित्र को लिखने की प्रेरणा वाल्मीकि को क्यों हुई, इस का विवरण वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में भावपूर्ण शब्दों में अंकित है। क्रोंच पक्षी के वियोगजन्य करुणक्रन्दन से द्रवीभूत हुए महर्षि के मुख से निकली ‘मा निषाद’ ये छन्दोबद्ध पंक्तियाँ ही रामायण की रचना का प्रेरक कारण बनी।

अपनी रामायण में महर्षि ने महापुरुष विषयक सब प्रश्‍नों का विस्तार से उत्तर दिया है जो उन्होंने नारद मुनि से किये थे। राम के पावन चरित्र का जितना अच्छा और संक्षिप्त विवरण उन प्रश्‍नों में है, उतना अन्यत्र मिलना कठिन है। सारी रामायण को उन्हीं प्रश्‍नों की विशद व्याख्या कह सकते हैं। उन प्रश्‍नों को एक-एक करके लेते जाइये और राम कथा से उनका उत्तर लेते जाइये।

पहला प्रश्‍न यह है कि ऐसा व्यक्ति कौन सा है जो गुणवान् भी हो और पराक्रमी भी।

यह बड़ा व्यापक प्रश्‍न है। बहुत से व्यक्ति गुणवान् होते हैं परन्तु पराक्रमी नहीं होेते। बहुत से पराक्रमी होेते हैं परन्तु गुणवान नहीं होते। राम इन दोनों गुणों का समुच्चय थे। उनमें भगवान् के दया और मन्यु इन दोनों गुणों का मिश्रण था। इसी कारण कुछ लोग उन्हें अवतार शब्द से याद करते हैं। हम उन्हें पुरुषोत्तम के नाम से पुकारते हैं, जैसा कि अन्य प्रश्‍नों की व्याख्या से स्पष्ट है।

महर्षि पूछते हैं कि ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो धर्म को जानने वाला हो, किए को मानने वाला, सदा सत्य बोलने वाला और व्रत पर दृढ़ रहने वाला हो? इन शब्दों से धर्मज्ञ एवं गुणवान् की बात की विशद व्याख्या हो जाती है। वाल्मीकि के राम के जिस रूप का पाठक मन पर चित्र अंकित होता है, वह धर्म को जानने वाला है। प्रत्येक संकट के समय वह इस प्रश्‍न पर विचार करता है कि धर्म वा कर्त्तव्य क्या हैं? आँखें बन्द करके परिस्थितियों के पीछे वह नहीं भागता।

कर्त्तव्य निष्ठा- जब कैकयी ने महाराज दशरथ के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए वन-गमन की सूचना दी, तब राम ने कर्त्तव्य को ही सर्वोपरि स्थान दिया। जब भरत उन्हें वन लौटाने के लिये गये और मन्त्रियों तक ने उन्हें अयोध्या लौटने की प्रेरणा की तब भी उन्होंने कर्त्तव्य को सर्वोपरि रखा। जब जाबाल ने उनके समक्ष पार्थिव प्रलोभन रखकर तर्क-वितर्क के द्वारा उनका घर लौटना समुचित सिद्ध करने की चेष्टा की, तब उन्होंने जो उत्तर दिए वे धर्म के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे। उन्होंने कहा-
‘‘अपने को वीर कहलाने वाला व्यक्ति कुलीन है या अकुलीन है, पवित्र है या अपवित्र, यह उसके चरित्र से ही विदित हो सकता है।
यदि मैं धर्म का ढोंग करूं परन्तु आचरण करूं धर्म के विरुद्ध, तो कैसे समझदार पुरुष मेरा मान करेगा। उस दशा मैं कुल का कलंक ही माना जाऊँगा।’’

कृतज्ञता का आदर्श- इस प्रश्‍न का दूसरा भाग यह है कि किए को मानने वाला कौन है? यदि कृतज्ञता का आदर्श देखना हो तो राम को देखो।

सुग्रीव और विभीषण ने राम की संकट के समय सहायता की। राम ने उन दोनों का संकट निवारण करके उन दोनों को ही राज्य दिलाकर उस सहायता का जो भव्य बदला दिया था, वह राम की कृतज्ञता की भावना का ज्वलन्त प्रतीक है।

रामोद्विर्नाभिभाषते- इस प्रश्‍न का तीसरा भाग सत्य से सम्बद्ध है। राम की सत्यवादिता ने सत्य को गौरवान्वित किया था, यदि यह कहा जाये तो इसमें अत्युक्ति न होगी।राम सत्य के जीते-जागते स्वरूप थे। यदि राम कुछ हैं तो वह सत्य ही हैं। सत्य कहना और सत्य करना ये दो राम के मुख्य गुण थे। राम के दो वाक्य ही उनके अपने चरित्र का संगोपांग चित्रण कर देते हैं। महाराज दशरथ के समक्ष कैकेयी ने जब राम को बनवास जाने का कठोर आदेश देने में कुछ आगा-पीछा किया तो राम ने कहा था-
‘‘हे देवि! राजा क्या चाहते हैं, यह मुझे बताइये। मैं उसे पूरा करूंगा यह मेरी प्रतिज्ञा है। राम किसी बात को दूसरी बार नहीं कहता।’’
‘‘न आज तक मैंने कभी झूठ बोला है और न आगे कभी बोलूंगा।’’

वस्तुतः सत्य और उसके पालने में दृढ़ता राम के भव्य जीवन के दो प्रधान तत्व हैं।

अगला प्रश्‍न है कि जो तपस्वी तो हो परन्तु क्रोधी न हो, तपस्वी तो हो परन्तु ईर्ष्यालु न हो।

तपस्वियों को क्रोधावेश में शाप देते हुए तो बहुत सुना जाता है, वरदान देते हुए कम। इसलिए कि उनके तप का गृहस्थीजन के समक्ष वैसा महत्व नहीं रहता जैसा रहना चाहिए और तप के साथ अक्रोध का सम्मिश्रण रहने से वही महत्व रहता है। ये दोनों परस्पर विरोधी गुण एक दूसरे की आभा को बिगाड़ने वाले नहीं, अपितु मिलकर चित्र को सुन्दर एवं पूरा बनाने में सहायक होेते हैं।

राम में सत्य है, शक्ति है, क्षमा है, कृतज्ञता है, क्रोध नहीं है और न ईर्ष्या-द्वेष है। तब तो उन्हें शान्त और शीतल होना चाहिए। फिर किसी दुष्ट को उनसे डरने की आवश्यकता है? परन्तु जिस व्यक्ति की शान्ति में अग्नि अन्तर्निहित नहीं, वह संसार में किसी काम का शासक नहीं हो सकता। उसे शायद पुरुष तो कह सकें, पुरुषोत्तम नहीं कह सकते।

दुष्ट दमनकर्ता- वाल्मीकि मुनि ने सारी रामायण में अपने अन्तिम प्रश्‍न का उत्तर बड़ी सुन्दरता से दिया है। यह प्रश्‍न है-
‘‘वह कौन है कि इन सब गुणों के होते हुए भी जब रोष आ जाए तब देवता भी उसके सामने कांपने लगें।’’

क्रोध निकृष्ट भावना है। जिस मनुष्य को क्रोध नहीं आता वह मूर्ख होता है और जो क्रोध पर काबू रखता है वह बुद्धिमान होता है। परन्तु मन्यु क्रोध से भी अधिक उदात्त भावना होती है जो मानव के तेज की सूचक होती है। जो मनुष्य अन्याय, असत्य या अत्याचार को सहन कर लेता है, वह अपने व्यक्तित्व पर अत्याचार करता है और उसके क्षमा, दया आदि गुण दोष रूप में दीखने लगते हैं, क्योंकि ये कायरता के रूपान्तर होते हैं। धर्मज्ञ राम की शक्ति का वर्णन करते हुए रावण की सभा में विभीषण ने कहा था-
’‘इक्ष्वाकुवंश का अवधेश राम धर्मात्मा है, यह समझकर निःशंक नहीं होना। यह दुष्टों को दण्ड देने की शक्ति रखता है। इस कारण उसके सामने तो देवगण भी हतबुद्धि हो जाते हैं, मनुष्यों या राक्षसों की तो कथा ही क्या है?’’

रावण के वध के पश्‍चात् जब भगवती सीता विभीषण के साथ राम के निकट पहुँची, तब राम ने जो शब्द कहे थे, उनमें धर्मज्ञ राम का रौद्ररूप प्रतिबिम्बत हो रहा था। उन्होंने कहा था-
‘‘हमने अपने शत्रु के साथ ही अपमान को भी मारकर गिरा दिया, आज हमारा पराक्रम प्रकाशित हुआ। आज हमारी प्रतिज्ञा पूरी हुई। जो मनुष्य अपने अपमान को तेज द्वारा दूर नहीं करता, उस अल्प तेजस्वी मानव का पुरुषार्थ व्यर्थ है।’’

इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि ने नारद मुनि से जो प्रश्‍न किए थे, सम्पूर्ण रामायण में उनके उत्तर देकर संसार के सामने मनुष्यत्व का एक अमर आदर्श स्थापित कर दिया है। वस्तुतः राम के ऊँचे आदर्श को देखकर अनायास ही यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान् ग्रिफिथ ने लिखा था-
‘‘वाल्मीकि रामायण प्रत्येक युग और प्रत्येक देश के साहित्य को यह चुनौती दे सकती है कि लाओ राम के सुदृश पूर्ण आदर्श चरित्र का नमूना पेश करो।’’

राम कथा की अमरता- चरित्र की उस पूर्णता के कारण राम को हम पुरुषोत्तम या मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर पूजते हैं और राम एवं सीता के पावन चरित्र के कारण ही वाल्मीकि रामायण के विषय में ब्रह्मा का यह आशीर्वाद सफल हो रहा है कि-
यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्‍च महीतले।
तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति॥

जब तक संसार में सभी पर्वत नदियाँ विद्यमान रहेंगी, तब तक रामकथा का प्रचार होगा।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने लंकापति रावण का वध कर असंख्य प्राणियों को उसके अत्याचारों से मुक्त किया था। राम की यह विजय धर्म की अधर्म पर अपूर्व विजय थी। राम ने रावण का राज्य छीनने के लिए लंका पर चढ़ाई नहीं की थी और न लंका की प्रजा को दास बनाकर उसका दोहन-शोषण करने के लिए ही, अपितु आर्य परम्परा के अनुसार अत्याचार के उन्मूलन और धर्म प्रतिष्ठा के लिए। उन्होंने अपनी विजय से सच्चे वीर का आदर्श उपस्थित करके आर्य प्रथानुमोदित क्षत्रिय धर्म की महिमा का भव्य दिग्दर्शन कराया था। यूरोप और अमेरिका के वर्तमान युद्ध देवता इस आदर्श को जितना शीघ्र अपनाकर क्रिया में लाएं। उतना ही विश्‍व शान्ति के लिए श्रेयस्कर है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए अयोध्या या मिथिला से सैनिक सहायता प्राप्त न की थी। उन्होंने स्वयं अपने बल पर युद्ध किया था। विजयादशमी का दिन उस दिन का स्मरण कराता है, जब आर्य जाति का जाति-सुलभ तेज मौजूद था। जब वह अत्याचार के उन्मूलन और पीड़ितों के रक्षण के लिए शक्तिशाली अत्याचारी के मुकाबले में संगठनात्मक प्रतिभा के बल पर जंगली जातियों को ला खड़ा करना जानती थी। भगवान् राम का हम सत्कार करते हैं, क्योंकि उन्होंने आर्य जाति की मर्यादा के अनुरूप नेतृत्व और शौर्य प्रदर्शित किया और विश्‍वास की भावना को गौरवान्वित किया था।

आदर्श पुरुष- राम हमारे पूज्य हैं, इसलिए नहीं कि वह भगवान् के अवतार थे। वह दुनिया को मनचाहा नाच नचा सकते थे। उनके नाम का जाप करने मात्र से मनुष्य भवसागर से तर जाता है। वह सूर्य को पश्‍चिम में उदय कर सकते थे। मुर्दे को जिला करते थे। समुद्र को सुखा और सूर्य-चन्द्र को पृथ्वी पर उतार सकते थे इत्यादि इत्यादि। बल्कि हम उनकी पूजा इसलिए करते हैं, क्योंकि वह आदर्श पुरुष थे और आर्य संस्कृति के मूर्तिमान प्रतीक थे।

इटली के पन्द्रहवीं शताब्दी के कूटनीतिज्ञ मैकावली ने अपने देश के सीजर बोर्जिया को आदर्श पुरुष बताया और अपनी संसार प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजा’ में तत्कालीन यूरोपीय शासकों को उसका अनुकरण करने का परामर्श दिया। इसके कई शताब्दियों बाद एक जर्मन दार्शनिक का जन्म हुआ जिसका नाम निट्शे था। इसने भी सीजर बोर्जिया को आदर्श पुरुष माना और आशा प्रकट की कि जर्मन युवक उसके अनुरूप होगा। निट्शे ने नेपोलियन को भी संसार का आदर्श पुरुष बताया और कहा कि संसार में वही जाति अन्य जातियों के ऊपर शासन कर सकेगी जिसके युवकों में इन दोनों पुरुषों के गुण विद्यमान होंगे।

सीजर बोर्जिया और नेपोलियन में आकाश-पाताल का अन्तर है। नेपोलियन के प्रतिभावान् योद्धा होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता, पर सीजर बोर्जिया अपने समय का सबसे घृणित और पतित व्यक्ति था। उसने अपने भाई को मरवा दिया था। एक महिला के सतीत्व को नष्ट किया था और अपनी माता के अपमान का बदला लेने के लिए निर्दोष स्विस जनता को तलवार के घाट उतार दिया था। वह विष की उपयोगिता में विश्‍वास रखता था और अपने शत्रुओं पर विजय पाने की चिन्ता में उचित और अनुचित का ध्यान रखना आवश्यक न समझता था। उसकी तुलना अरबिस्तान के हसन बिन सब्बाह से की जा सकती है, जिसने शत्रु से छुटकारा पाने के मामले में छुरे के उपयोग को धर्मादेश की पवित्रता प्रदान की थी।

मैकावली और निट्शे किसी व्यक्ति के आदर्श व देवोपम होने के लिए उसमें जिन गुणों की उपस्थिति आवश्यक समझते थे, उनमें भौतिक बल, कूटनीति, साम्राज्य लोलुपता और नृशंसता को विशेष रूप से महत्व दिया गया था। मैकावली स्वयं कूटनीतिज्ञ था, इसलिए उसे सीजर बोर्जिया का चरित्र विशेष रूप से रुचा। निट्शे का प्रादुर्भाव तब हुआ जब फ्रेडरिक महान और उसके कृपण पिता के द्वारा प्रूशिया में सैनिकवाद का प्रतिपादन हो चुका था। निट्शे को प्रशियन सैनिक के कायदे कानून की पाबन्दी और निर्दयता विशेष रूप से रुचिकर लगी और आशा प्रकट की कि संसार का भविष्य प्रूशियन सैनिक के हाथ में है। परन्तु चूंकि वह उसे पूर्णरूपेण देवोपम पुरुष के रूप में देखना चाहता था, इसलिए उसने सीजर की मित्रघात करने की मनोवृत्ति और नैतिक चरित्रहीनता को भी अपमाने की सलाद दी।

यह कहना आवश्यक है कि दूसरे महासमर के जर्मन नेताओं के कार्यकलाप और विचारबिन्दु पर निट्शे की शिक्षा की गहरी छाप लगी हुई थी।

परन्तु मैकावली ने यूरोप के शासकवर्ग को सीजर बोर्जिया के जिन गुणों को अपनाने की सलाह दी थी और निट्शे ने प्रूशियन सैनिक को उसके जिन गुणों के कारण संसार का भावी शासक पूर्ण देवोपम पुुरुष समझा था, वे गुण कहीं अधिक विकसित मात्रा में एशियायी विजेताओं में या मंगोल और तुर्क सैनिकों में विद्यमान थे।

देवपुरुष की विभावना- आर्य संस्कृति के दवोपम पुरुष की विभावना इन मध्यएशियायी इटेलियन या प्रूशियन विभावनाओं से बिल्कुल भिन्न प्रकार की रही है। सीजर बोर्जिया ने अपने पिता का अनुराग स्वयं अपनाये रहने की इच्छा से अपने भाई की हत्या करवा दी। भरत ने राज्य मिलने पर भी उसे तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया और भाई का अनुगामी रहकर ही सन्तोष किया। नैपोलियन ने रूस के तत्कालीन जार एलेक्जेण्डर से चिरकालीन मित्रता की सन्धि की (जिस प्रकार हिटलर ने स्टेलिन से अमर सन्धि की थी) और अवसर पाते ही मित्र के साथ विश्‍वासघात किया। राम ने एक बहुत कमजोर आदमी का पक्ष ग्रहण किया और अन्त तक उसका साथ निभाया। औरंगजेब ने अपने पिता को कैद में डाला और भाइयों को मरवा दिया, ठीक उसी तरह जिस तरह उसके पिता ने राज्यप्राप्ति लिए अपने भाइयों को मरवाया था। राम ने अपने दुर्बल शक्तिहीन और स्त्रैण पिता की आज्ञा का सहर्ष पालन किया और अपने भाई भरत के विरुद्ध षड्यन्त्र करने के गन्दे विचार को भी मन में न आने दिया।

संसार का देवोपम पुरुष होने के लिए किसी व्यक्ति के भीतर किस प्रकार के गुणों की उपस्थिति आवश्यक है? उन गुणों की जो उसकी बर्बर प्रवृत्ति को क्रीड़ा करने का अवसर देते हैं या उन गुणों की जो व्यक्ति की सद्वृत्ति को विकसित करके समाज के नित और निर्धारित नियमों-उपनियमों का पालन करने और उनका विकास करने की प्रेरणा देते हैं? सीजर ईसाई था, नेपोलियन भी ईसाई था।

मूसा के दस आदेश वाक्य थे। मैकावेली और निट्शे के आदर्श पुरुषों ने इन सभी आदेश वाक्यों के विरुद्ध आचरण किया। भारतीय समाज में भी नियम-उपनियम समाज के सृजन के आरम्भकाल से चले आ रहे हैं। हम राम को परम श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि उन्होंने उन नियमों का साधारण व्यक्ति की भाँति पालन किया। उसी प्रकार हम बालि और रावण को घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि उनमें से एक ने अपने भाई की स्त्री पर अधिकार करके और दूसरे ने समाज की रक्षा करने के स्थान पर उसमें आतंक फैलाकर सामाजिक नियमों और आर्य मर्यादाओं का उल्लंघन किया। इस प्रकार मैकावली और निट्शे के दृष्टिकोण से बालि और रावण ही देवोपम पुरुष सिद्ध होंगे। परन्तु हमारी संस्कृति हमें ऐसे व्यक्तियों को समाज का शत्रु और ऐसे व्यक्तियों से समाज को मुक्त करने वाले व्यक्तियों को उसका रक्षक या पिता कहना सिखाती है।

आर्य संस्कृति की जीवन्तता- राम को आर्य संस्कृति की विशिष्ट देन कहने में जरा भी अत्युक्ति नहीं है। जहाँ आर्य संस्कृति में मानवी विकास को प्राधान्य दिया गया है वहाँ अर्द्धविकसित ऐशियायी और यूरोपीय समाज में भौतिक विकास और पशुबल को ही अपना आदर्श समझा गया है। यही कारण है कि अनेक तूफानों और बवण्डरों की भयंकर चपेटों में से गुजरने के बाद भी आर्य संस्कृति आज जीवित है। कोई जगत् तभी जीवित रह सकती है जब तक वह मानवी विकास के प्राकृतिक कार्यकलाप में योग देती रहे। इतिहास बताता है कि जिन जातियों ने हत्या, व्यभिचार और मक्कारी को त्यागकर आगे बढ़ने से इंकार किया और इन्हीं को अपनी उन्नति और तुष्टि का साधन समझा वे नष्ट हो गई।

आर्य संस्कृति के प्रतीक राम को हम नमस्कार करते हैं। हम पूज्य सीता के अज्ञात चरणों में भी अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि वह अपने आचरण की आर्य ललनाओं के चरित्र पर अमिट छाप छोड़ गई है। उनका पातिव्रत्य और त्याग आर्य ललना को अपना सारा जीवन ही त्यागमय बनाने को प्रोत्साहित करता आ रहा है। लक्ष्मण का संयम और भरत का भातृप्रेम अब भी हममें चरित्रबल उत्पन्न करते और स्फूर्ति प्रदान करते हैं।

हमारा आदर्श पुरुष मैकावली या निट्शे या हसन बिन सब्बाह के देशवासियों के आदर्श पुरुष से सर्वथा भिन्न है। हमारा आदर्श पुरुष मानव-समाज के लिए मंगल, निस्पृहता और शान्ति का सन्देश लेकर आता है। हमें भगवान राम का वह चित्र प्रिय लगता है जिसमें वह अपने भाई और पत्नी के साथ नंगे शरीर वन की खाक छान रहे होते हैं। उन्हें वह चित्र अच्छा लगता है जिसमें सीजर ने विष द्वारा किसी शत्रु को समाप्त किया हो या नैपोलियन किसी नगर पर तोप के गोलों की वर्षा कर रहा हो या प्रूशियन सैनिक आकाश की ओर टांगें फेंकता हुआ आगे बढ़ रहा हो।

यही अन्तर है और इसी अन्तर में हमारी जाति के अमरत्व का रहस्य छिपा हुआ है। - रघुनाथप्रसाद पाठक (दिव्ययुग- नवंबर 2012)

Anger is a bad feeling. A person who does not get angry is a fool and he who controls anger is intelligent. But there is a more sublime feeling than manu raj which is indicative of human fast. A man who tolerates injustice, untruth or atrocity, he persecutes his personality and his forgiveness, mercy, etc. are seen as faults, because they are variations of cowardice.