भारत ने वन्यवृक्षों में नीम अपनी शीतल छाया और देशी औषधियों में बहु प्रयोग के कारण एक अत्यन्त महर्वपूर्ण वृक्ष है। अपने विविध प्रयोगों के कारण ही नीम का अत्यधिक प्रचार है। देश का कोई शहरी या देहाती भाग नहीं है, जहां नीम वृक्ष न हो। भारत में धार्मिक दृष्टि में नीम भी पीपल, बरगद आदि की भांति एक पवित्र वृक्ष माणा जाता है। रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन ग्रंथो में नीम का विस्तृत उल्लेख मिलता है। रासायनिक संघटन के अनुसार नीम की छाल कडुआ रालमय तत्व मार्गोसीन, उड़नशीन तेल, गोंद, श्वेतसार, शर्करा तथा टेनिन होते हैं। पत्तो में कड़वा पदार्थ कम होता है। बीज में मार्गोसा आइल ४० प्रतिशत गंधक के अंश से युक्त रहता है। नीम के सब अंगो से तेल अधिक कार्यकारी होता है।
आयुर्वेद विज्ञान के अनुसार नीम स्वाद में कडुआ, कसैला, पचने पर कटु तथा हल्का होता है। इसका मुख्यतः त्वचा ज्ञानेन्द्रिय पर कण्डुघ्र (त्वचा रोग) प्रभाव पड़ता है। यह कीटाणु-नाशक, शोथहर, उदार कृमिहर, व्रणारोपण (घाव भरने वाला), पीड़ाशामक, रुचिकर, रक्तशोधक, कफहर, मूत्रविकार नाशक, गर्भाश-उत्तेजक, दाहप्रशामक, ज्वरघ्न, नेत्र के लिए हितकारक तथा बलदायक होता है।
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वेद कथा - 59 | Explanation of Vedas | भव सागर से पार होने का रास्ता
नीम के पत्तों और छाल का अनुपात भेद के साथ विषम ज्वर, वमन, दाह, मसूरिका, कामला, शोधन, वातरक्त, कृमिरोग, दन्तरोग, खालित्य, पालित्य, विषप्रतिकारक, अर्श, बालज्वर, कुष्ट, योनि पिच्छलता, योनिशूल आदि में प्रयोग किया जाता है। चरकसहिंता और सुश्रुतसंहिता में नीम के उपयोग का उल्लेख किया गया है।
संभवतः नीम एक ऐसा वृक्ष है जिसका हर भाग काम में आता है। इसकी पत्तियों आदि का कीड़ों से बचाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसेक छिलके में से जो गोंद निकलता है उसका चिकित्सा सम्बन्धी कामों में भी उपयोग होता है जो कीटाणुनाशक साबुन तथा रसायनों में काम आता है। तेल निकालने के बाद जो खली बचती है उसका खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। नीम की टहनियों से दतोन बनाया जाता है। इसकी लकड़ी मकान और फर्नीचर बनाने में काम आती है। यह लकड़ी सख्त, टिकाऊ और भारी होती है। नीम एक साधारण आकर का सदाबहार वृक्ष है। इसका छत्र काफी फैला हुआ और गोल होता है। इसका छिलका गहरे भूरे रंग का होता है। इसमें फूल मार्च-अप्रैल में आते है और फल (निम्बोली) जुलाई में पकते हैं। सफेद रंग के छोटे-छोटे फूलों के बौरो में से शहद कैसी भीनी-भीनी सुगंध आती है जो मन को मोह लेती है। नीम का पेड़ बहुत सी किस्मों की मिट्टी में उग सकता है। इसे नर्सरी में उगाकर इसे दूसरे स्थान पर भी लगाया जा सकता है। इसका उगाना कोई विशेष कठिन कार्य नहीं है। इसकी देखभाल भी कठिन नहीं है क्योंकि इसकी पत्तियाँ कड़वी होती हैं। पके हुए फल (निम्बोली) का छिलका व् गूदा निकालकर चारपांच बीजों को मटके या गमले में जिसमे खाद मिट्टी भरी हो, लगाना चाहिए, एक या दो बीजों को करीब आधा इंच गहरा बो कर धूप में रखना चाहिए और सात दिन बाद थोड़ा-थोड़ा पानी देना शुरू करना चाहिए। १०-१५ दिनों के बाद बीज उग आयेंगे। जब पौधे चार इंच बड़े हो जायें, तो उनको अलग गमलों में साल भर पानी देने तथा मिट्टी को हल्का करते रहने से पौधा तीन चार फुट बाद बड़ा हो जायेगा।
दूसरे वर्ष वर्षा शुरू होते ही, जहां वृष लगाने हो, वह उसे २x२x१-१/२ फुट गहरे गड्ढों में जो सर्दी में ही खुदे हुए हो, गमले में दरार लगाकर गमले सहित लगा दे। पौधा लगाने से पहले गड्ढे में विलायती खाद (कैल्शियम सुपर फास्फट) का एक चम्मच डाल देना चाहिए। पौधा लगाकर उसे एक पिया पानी, जिसमें विलायती खाद (अमोनियम सल्फेट) एक चम्मच मिला है। देनाय आवश्यक है। जब पहली क्यारी का पौधा नौ इंच हो जाए तो उसका फासला कतारों में १३ इंच तक कर देना चाहिए।
क्यारी में समय समय पर मिट्टी को हल्का करते रहने से बढ़ान अच्छी होती है। साल भर बाद पौधा तीन चार फुट तक हो जाता है और उसका जमीन की सतह का तना अंगूठे के बराबर मोटा हो जाता है। उसे अप्रैल या मई में क्यारी से सावधानी से निकाल लेना चाइये चाहिए। यदि पिंड में दरार आ जाए तो भी पेड़ के मरने की आशंका बहुत रहती है। इन निकाले हुए पौधों को लू से बचाकर छाया में रखा चाहिए और इन्हें मानसून के शुरू होते ही जहां लगाना हो, वहां ऊपर बतायी गयी विधि के अनुसार गड्ढे खोद कर लगा देना चाहिए। वर्षा में पौधा जम जाएगा। अलगे बर्षों में उसकी भी छाटन करके, उसे सीधा बढ़ाते रहना चाहिए। बोने का बीज हर साल नया होना चाहिए क्योंकि पुराने बीज में उगने की शक्ति बहुत कम होती है। - कुसुम मेहता