ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्वणं वयत जोगुवामपो,
मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्॥ (ऋग्वेद 10.53.6)
शब्दार्थ = रजसः = जीवनरूपी आकाश के तन्तुम् = ताने-बाने के रूप में फैलने वाले जीवन व्यवहार के धागे को तन्वन् = फैलाते हुए, जीवन व्यवहार को करते हुए भानुम् = प्रकाश वाले सूर्य का अन्विहि = अनुकरण कर, प्रकाश भरे कर्म कर धिया = पूर्वजों, जानकारों की तरह बुद्धि द्वारा कृतान् = बनाए, सजाए गए ज्योष्मितः = प्रकाश, युक्त पथः = जीवन मार्ग का रक्ष = पालन कर, सम्भाल, सदा प्रवाहित रखने का यत्न कर जोगुवाम् = प्रशंसनीयों के जैसे अनुल्वणम् = उलझन, धोखे, षड्यन्त्ररहित अपः = कर्म वयत = बुनो करो। इस तरह मनुः = मननशील, समझदार भव = बन, हो, इस प्रकार का होकर दैव्यम् = दिव्य, अनोखे, प्रकाश-सम्पन्न जनम् = जन, समाज को जनय = प्रकट कर, निर्माण कर।
व्याख्या- यह मन्त्र पर्याप्त प्रसिद्ध है। अनेक व्याख्याकारों ने इसकी बहुत अच्छी व्याख्या की है। इसके प्रथम चरण में सन्देश है कि हमें जीवन के ताने-बाने को बनाए रखना चाहिए। अर्थात जिजीविषा को ढीला नहीं पड़ने देना चाहिए। जीने की चाहना जहाँ जितनी प्रबल होती है, वहाँ क्रियाशीलता उतनी अधिक होती है। जीते जी ही सारी सफलताएँ सिद्ध होती हैं। जीवन का सबसे अच्छा उदाहरण सूर्य है, जो कि अपने कार्य में सर्वदा-सर्वथा नियमित लम्बे समय (सृष्टिकल्प) तक अटल रहता है।
जीवन की सफलता और जीवन्तता के लिए ’ज्योतिष्मतः पथः’ कहते हुए सन्देश है कि समझदारों द्वारा सजाए गए प्रकाश भरे पथों को जो अपनाते हैं, वे ही सफल सिद्ध होते हैं और वही जीवन का सही पथ है। इस संसार में अपने-अपने ढंग से अनेक जीते हैं, पर उनकी किसी में गिनती नहीं होती है।
जीवन का सही पथ वही है, जो अनुल्वणम्= उलझनरहित, सरल हो। इसीलिए कहा जाता है- न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेत (महाभारत उद्योग पर्व 35.59)। वही सत्य है जो छल, दोषरहित है। अर्थात सत्य वही है जिसमें छल, प्रपंच न भरा हो। अतः धोखेरहित का नाम ही सचाई है। जो जीवन दिखावे भरा होता है, उसको ज्यादा दिन निभाया नहीं जा सकता । इसलिए स्वाभाविक, सरल जीवन ही अच्छा और दीर्घकाल तक चल सकता है। सरलता की ही स्थायी रूप में प्रशंसा होती है।
मन्त्र के अन्तिम चरण में सन्देश है- मनुर्भव। मनुष्य में मनुष्यपन समझदार होने में है। अतः हमें मननशील होना चाहिए। जनया दैव्यं जनम्। केवल अपने आप ही ऐसा न बने, अपितु अपने परिवार, समाज तथा अपनों को भी वैसा बनाने का प्रयास करे। क्योंकि मनुष्य विचारशील सामाजिक प्राणी है। अकेला पड़ने पर वह ऊब जाता है। तब वह उदास, हताश, निराश हो जाता है। सामाजिकता में व्यक्ति उत्साहित, प्रसन्न और प्रगतिशील बना रहता है। तभी वह सफलता के लिए सदा सजग तथा प्रयत्नशील रहता है।
यहाँ जन शब्द मनुष्य वर्ग कीओर संकेत करता है। यतोहि जन शब्द मनुष्य के नामों में गिना गया है। इस दृष्टि से निर्दिष्ट मन्त्र विशेष विचेच्य है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। (यजुर्वेद 26.2) अर्थात् मैं ज्ञान लेने में सभी समर्थ मनुष्यों के लिए इस कल्याणी वेदवाणी को प्रदान करता हूँ।
अतः वेद का जन शब्द सभी मनुष्यों के लिए संकेतित हुआ है। इसलिए चर्चित मन्त्र में सारे मनुष्य समुदाय को दिव्य= विद्यायुक्त, सभ्य, सच्चचरित्र, दक्ष बनाने का सन्देश दिया गया है।
निघण्टु के प्रथम भाग में पर्यायवाची शब्दों का संग्रह है, जो कि वेद के भिन्न-भिन्न मन्त्रों में किसी एक पदार्थ के लिए आए हैं। जैसे कि यहाँ कहा है कि ये-ये पच्चीस शब्द मनुष्यों की ओर संकेत करने के लिए वेदमन्त्रों में आए हैं। इनमें एक जन शब्द भी है। इस विचार्य मन्त्र में मूल बात है- मननशील होकर दिव्य परिवार व दिव्य समाज का निर्माण। तभी किसी का जीवन सुखद एवं सफल होता है। इससे स्पष्ट होता है कि यहाँ पथ शब्द से जीवन व्यवहार की ही बात हो रही है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 97 | Explanation of Vedas | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या