प्रत्येक व्यक्ति सदा-सर्वथा-सर्वत्र अपना और अपनों का भला चाहता है। वेद ने इसके लिए भद्र शब्द का प्रयोग किया है, जो कि भदि कल्याणे धातु से बनता है। अतः भला, अच्छा, कल्याण शब्द एक ही भाव को दर्शाते हैं।
भद्र-भ्रदता प्राप्ति की प्रक्रिया को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है-
भ्रदमिच्छन्तु ऋषयः स्वर्विदस्तपोदीक्षामुपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् तदस्मै दवा उप संनमन्तु॥ अथर्ववेद 14.41.1)
शब्दार्थ- स्वर्विदः= सुख, विकास को जानने वाले ऋषयः= दूरदर्शी, विचारशील भद्रम्= सबका कल्याण = भलाई, अच्छाई को इच्छन्तः = चाहले हुए अग्रे = सर्वप्रथम इसकी प्राप्ति के लिए तपः= तप को और दीक्षाम्= दीक्षा को उपनिषेदुः= अपनाया, अपनाते हैं। ततः= ऐसा करने से, तब राष्ट्रम्= संगठन, अनुशासन के पालन की भावना आती है और तब इसके परिणामस्वरूप बलम्= शारीरिक बल, शक्ति ओजः = आत्मिक तेज, मानसिक बल जातम् = प्रकट होता है। देवाः= समझदार ततस्मै= ऐसी स्थिति के लिए, ऐसी सफलता प्राप्तों के लिए उप संनमन्तु= शुभ भावना देते हैं, प्रशंसा करते हैं।
व्याख्या- तप शब्द मुख्य रूप से (द्वन्द्व सहनं तपः) भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी जैसे जोड़े से होने वाले कष्ट सहन के अर्थ में प्रचलित है। तपना शब्द भी यही पुष्ट करता है। जिसका मूल भाव यही है कि अपने कर्तव्य को करते हुए सचाई, ईमानदारी को निभाते हुए जो भी कष्ट, दुःख, क्लेश आए उसको सहर्ष सहन करना। इसी दृष्टि से यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में कहा गया है-
तपः स्वधर्मवर्तित्वम्, (महाभारत आरण्य 32.5)। अपने-अपने प्रकरण में स्वाध्याय, प्राणायाम, ब्रह्मचर्य=संयम को भी तप कहा गया है। तप के इसी विशेष भाव को ध्यान में रखते हुए समस्त भारतीय साहित्य और जनभावना में तप को बहुत अधिक महत्व दिया गया है।
दीक्षा- धर्मदीक्षा शब्द से सीखने, तैयार होने की भावना सामने आती है। दीक्षित शब्द से किसी विशेष बात को आचरण में लाने की भावना प्रकट होती है। दीक्षा शब्द योग्यता अर्थ में है। दीक्षा लेना भी यही प्रमाणित करता है। हमारे यहाँ विद्या समाप्ति पर दीक्षान्त (संस्कार) होता है, जिसका भाव होता है कि पढ़ाई पूर्ण करने से व्यक्ति में यह योग्यता आ गई है । अब आत्मविश्वास उभर आया है। वह जीवन में स्वावलम्बी रूप में जी सकता है।
मन्त्र आगे इसके परिणाम को दर्शाते हुए कहता है कि तप = साधना करने और दीक्षा = शिक्षा पूर्ण करके योग्य होने पर व्यक्ति-व्यक्तिमें तब समूह में जीने की सांझी भावना आ जाती है। राष्ट्र एक संगठन है। संगठन सदा सामूहिक भावना से सफल होता है। अतः प्रत्येक राष्ट्र = प्रशासनिक व्यवस्था, संगठन का एक संविधान होता है। सामूहिक समझ, अनुशासन ही संविधान का सर्वस्व होता है। इस समझ से व्यक्ति-व्यक्ति में शारीरिक-भौतिक बल और मानसिक-आत्मिक ओज उभरता है। कोई संगठन जब स्वेच्छा से अनुशासन का पालन करता है, तभी वह सफल होता है। इस सफलता तथा उसकी मूल भावना से तब उसको प्रशंसा भी प्राप्त होती है। स्वेच्छा से अनुशासन का पालन ही स्वतन्त्र शब्द का मूल भाव है। पराधीन ही डण्डे से हाँके जाते हैं, जीते हैं। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 96 | Explanation of Vedas | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Motivational Pravachan