विशेष :

आत्म-स्वरूप एवं कर्मफल ज्ञान

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

ATMSWARUP KARMFAL GYAN0

ओ3म् अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्‍चरन्तम्।
स सघ्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥ (ऋग्वेद 1.164.31, 10.117.3)

लम्बे समय से आत्मसाधना में निरत एवं साधक अपना अनुभव वेदमन्त्र में अभिव्यक्त कर रहा है।

शब्दार्थ- गोपाम्=गो=इन्द्रिगण, ज्ञान को पा= सम्भालने वाले, इनके स्वामी अनिपद्यमानम्=अविनाशी, परिवर्तनरहित आत्मा को आ च= इधर के (मर्यादा वाले, अच्छे) परा च= परले, पहले से भिन्न पथिभिः= मार्गों में चरन्तम्= विचरते हुए, कर्म करते हुए को अपश्यम्=मैंने देखा है। सांसारिक जीवन में अपने चारों ओर ऐसा अनुभव किया है। सः= वह पूर्व प्रतिपादित आत्मा पथ पर विचरण करने के कारण कभी सध्रीचीः = सीधी स्थिति, प्रगति साधक सधे, सुन्दर सधने की नैमित्तिक योग्यता रखने वाले शरीर को सः= और वही कभी विषूचीः= टेढी स्थिति, विकारयुक्त, प्रगतिविहीन परिणाम, फल भरे देहों को वसानः= धारण करता हुआ भुवनेषु = उत्पन्न होने वालों के अन्तः= बीच में, दशाओं में वरीवर्ति= बार-बार आता-जाता रहता है।

कुछ भाष्यकारों ने इस मन्त्र का सम्बन्ध सूर्य से दर्शाया है, जबकि इससे पूर्व 30वें मन्त्र की दूसरी पंक्ति में स्पष्ट कहा है-
जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिमरमर्त्यो मर्त्येन सयोनिः॥ ऋग्वेद 1.167.30॥

शब्दार्थ- मृतस्य = प्राण लेने वाले पूर्व देह को छोड़ने वाले का अमर्त्यः= मरण रहित, अमर, नित्य जीवः= जीवात्मा (अपने जन्म पर) सयोनीः= अन्तःकरण, इन्द्रिगण सहित मर्त्येन= मरणशील शरीर के साथ स्वधाभिः= अपने द्वारा किए गए, जो कि क्रियमाण से संचित और फिर प्रारब्ध स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं, ऐसे कर्मों के अनुरुप चरति= जन्म-जन्मान्तर में जाता है। अतः ये दोनोें मन्त्र कर्मफल के बोधक भी हैं।

अपश्यं गोपाम्। मन्त्र का यह अनुभव पूरी तरह से ऐसा ही है, जैसा कि कृषि की व्यवस्था को देखकर होता है। अर्थात हम कृषि पर जितनी गहराई से विचार करते हैं, तो स्पष्ट होता जाता है कि यह-यह फसल या बागवानी किसान के किस-किस कर्म या बीज से कौन-कौन सी है। ऐसे ही संसार में प्राणियों की वर्तमान कर्म स्थिति की गहराई में जाने पर स्पष्ट होता है कि इनमें प्राप्त होने वाली विषमता, आदत पूर्व या वर्तमान के किन कर्मों के कारण है। इस प्रकार तुलनात्मक विचार कर्मफल व्यवस्था पर विश्‍वास को दृढ़ करता है। यह विश्‍वास ही व्यक्ति को अच्छा बनाता है और सचाई पर दृढ़ करता है। अन्यथा अविश्‍वासी एकदम अराजकता पर उतर आता है।

ओ3म् ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्‍वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥ अथर्ववेद 1.1.1॥

शब्दार्थ - ये = जो त्रिषप्ताः = तीन और सात विश्‍वा = सभी तरह के रूपाणि = आकारों को बिभ्रतः = धारण करने हुए, धारण करने की शक्ति रखते हुए परियन्ति = सभी ओर आते-जाते हैं। वाचस्पतिः = वाणी का स्वामी, पालक, तेषाम् = उन (तीन- सात) के तन्वः = शरीर, आकार के बला= बलों, शक्तियों, महत्वों को मे = मुझ जीवन व्यवहार, विकास चाहने वाले के लिए, मे अर्थात मेरे लिए अद्य = आज ही, अभी दधातु = धारण कराए, स्थापित करे, सिखाए।

व्याख्या- मन्त्र की दूसरी पंक्ति में वाचस्पति है, जो दधातु क्रिया का कर्ता है। वह ही विद्या, वाणी का स्वामी, व्यवस्थापक है। सूक्त का देवता बृहस्पति है, जिसका शब्दार्थ तो बड़ों का स्वामी है, पर वह विद्वान, विशेषज्ञ के लिए भी प्रसिद्ध है अर्थात विद्या से सम्बद्ध है। सूक्त में आगे भी मयि एव अस्तु मयि श्रुतम्, सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि जैसे वाक्य भी विद्या का प्रसंग सिद्ध करते हैं। वाणी (बोलने) तथा सुनने का विद्या से सीधा सम्बन्ध है। त्रिषप्ताः की यहाँ सारे मन्त्र में चर्चा है। इसके साथ ही परियन्ति क्रिया का सम्बन्ध है। अतः इस क्रिया का कर्ता त्रिषप्ताः ही है। ये और तेषाम् इसी के सर्वनाम हैं। तीन और सात यह इस शब्द का सीधा अर्थ है। अतः यहाँ उसकी चर्चा है, जो तीन और सात रूप में है। या ऐसी तीन संख्या वाली चीजें, जो सात जगह मिलें। या ऐसी सात-सात चीजें जो तीन हैं। जैसे कि आयुर्वेद में तीन दोष वात-पित्त-कफ और सात धातुएं रस-रक्त-मांस-मज्जा-मेद-अस्थि-वीर्य हैं। चिकित्सा विज्ञान विद्या की एक शाखा है। पर यहाँ दोष और धातु के साथ शरीर में इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा प्राण भी हैं।

त्रिसप्ताः शब्द से स्वाभाविक रूप से तीन-सात सामने आते हैं। जैसे कि संगीत में सात स्वर हैं- सा-रे-गा-मा-पा-धा-नी। ऐसे ही वहाँ सात षड्ज-ऋषभ आदि भी हैं। ऐसे ही आलाप-संलाप जिनमें आरोह-अवरोह, संकोच-विकास के रूप होते हैं। इसी प्रकार एक क्षेत्र से सम्बद्ध सत्-रज-तमकी त्रिक। ऐसी कोई तत्सम्बद्ध सात त्रिकें।

त्रिषप्ताः में तीन + सात का योग (=जोड़) मानें तो गणित के 1 से 9 तक अंक तथा शून्य (जीरो) मिलाकर दश बन जाते हैं। दशमलव पद्धति प्रसिद्ध ही है। गणित के प्रत्येक प्रश्‍न, स्थिति में इन्हीं (दश) का फैलाव है। इन्हीं अंकों का आना-जाना है। अतः गणित में तीन+सात के योग (10) का अच्छा तालमेल है। अंकगणित विद्या की ही शाखा है। संस्कृत भाषा में शब्दों के रूप तीन वचनों और सात विभक्त्तियों में प्रसिद्ध है।

भाषा-व्याकरण का एक नाम शब्दानुशासन है। आजकल भाषाशास्त्र चलता है। वर्ण ही हर भाषा में मूल बिन्दु है। इनसे विविध रूप वाले शब्द बनते हैं। शब्दों से वाक्य बनते हैं। वाक्य ही भाषा की भावपूर्ण इकाई है। वाक्य द्वारा ही पूरी बात सामने आती है। सार्थक शब्दों भरी भाषा ही विद्या का माध्यम बनकर परिचय कराती है।

मन्त्र कह रहा है कि ये तीन-सात सारे रूपों को धारण करते हुए सर्वत्र आते-जाते हैं। जैसे कि हर भाषा में वर्णों से शब्द बनते हैं अर्थात अलग-अलग शब्दों में ये वर्ण ही समाए होते हैं। यथा - अमर, आहार, अचरज, जीवन आदि।

संस्कृत, हिन्दी आदि भाषा में स्वर-व्यञ्जन के भेद से दो प्रकार के वर्ण हैं। स्वरों में मुख्य ’अ- इ- उ’ तीन हैं। आगे इनके ही दीर्घ और अ+इ= ए, अ+उ का ओ गुण रूप जहाँ है, वहाँ ऐ- औ वृद्धि रूप हैं। हाँ, एक ऋ रह जाता है। व्यञ्जन की दृष्टि से अलग-अलग व्यंजन को न गिनकर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तःस्थ और उष्म यह सात संख्या साधी जा सकती है।

तीन गुणा सात इक्कीस (3ु7 = 21) मानने पर बहुत कम भारतीय भाषाओं में इतने सीमित वर्ण हैं। हाँ, बाल्टिक में -17; लेटिन-हिब्रू-20; फ्रेंच-25; अंग्रेजी-26; स्पेनिश-27; ऐसी स्थिति में सभी ध्वनियाँ उनमें परिगणित नहीं होती। भारतीय भाषाओं में स्वर-व्यंजन अधिक ही हैं। पुनरपि इस मन्त्र की संगति वर्णों के साथ अच्छे रूप में सामने आती है। हाँ, बला शब्दों की सार्थकता और साक्षर (स+ अक्षर) तदनुरूप आचरण का स्मरण कराता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 95 | Explanation of Vedas | श्रेष्ठ कर्मों से शरीर और मन की स्वस्थता