ओ3म् स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व।
स्वयं जुषस्व महिमा तेऽन्येन न सन्नशे॥ (यजुर्वेद 23.15)
शब्दार्थ- वाजिन् = हे शक्तियुक्त स्वयं = अपने आप तन्वम् = शारीरिक स्वास्थ्य, विकास को कल्पयस्व = समर्थ बना। ऐसे ही स्वयं वजस्व = पूज्यों की पूजा, संगतिकरण और दान स्वयं कर। यतो हि ते = तेरी महिमा = महत्ता अन्येन = तुझसे भिन्न द्वारा न सन्नशे = नष्ट नहीं की जा सकती अर्थात अनुभव नहीं की जा सकती।
व्याख्या - मन्त्र में आया वाजिन सम्बोधन बहुत ही महत्वपूर्ण है। वाज वाले ! इसका शाब्दिक अर्थ है = वाज = अन्न। अन्न, बल को कहते हैं। इन दोनों में कारण-कार्य भाव है। वैसे वाजिन्-वाजी शब्द घोड़े के लिए प्रयुक्त होता है। आज भी हॉर्स पॉवन माप की कसौटी है। अतः इस शब्द से शक्तिशाली, शक्ति की योग्यता का संकेत है अर्थात् तू शक्ति की योग्यता रखने वाला है। इस बात को मन में बिठा ले। तब तेरे लिए स्वसामर्थ्य को साकार करना सरल हो जाएगा। अतः अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, अत्मिक शक्ति की विकास की प्रक्रिया को अपना। अतः आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से भरकर प्रत्येक कार्य को कर।
वाजिन् स्वयं तन्वं कल्पयस्व। स्वयं शब्द मन्त्र की तीनों क्रियाओं के साथ प्रयुक्त हुआ है। जबकि वाजिन् को अन्य क्रियाओं के साथ आहत करना वाक्यार्थ के लिए उपयुक्त है। स्वयं शब्द उस-उस सिद्धि के लिए स्वयं प्रयास करने का संकेत करता है, प्रेरणा देता है। अतः जितना-जितना जिस किसी क्षेत्र में जो कोई पुरुषार्थ करेगा, उतना-उतना ही उसमें स्वालम्बीपन और आत्मविश्वास उभरेगा। वैसे तीनों क्रियाएँ ही यहाँ आत्मनेपद में हैं। अतः स्वयं परिश्रम करने की भावना और पुष्ट होती है।
वाजिन्! स्वयं तन्वं कल्पयस्व। कोई क्रिया करने की अपेक्षित सामर्थ्य रखने वाले तू स्वयं ही अपने शाीररिक स्वास्थ्य को समर्थ बना। मन्त्र में आई अन्य दो क्रियाओं की तुलना में यह (तन्वं कल्पयस्व) अधिक प्रत्यक्ष है। अतः प्रत्यक्ष से परोक्ष को स्पष्ट किया गया है। वैसे भी अन्य प्रगतियाँ स्वास्थ्य पर निर्भर हैं। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि जैसे स्वस्थ बनाने वाली सारी क्रियाएँ स्वयं करनी आवश्यक हैं, ऐसे ही मन्त्र में निर्दिष्ट अन्य क्रियाएं भी स्वयं करनी चाहिएं। इनको दूसरों पर नहीं छोड़ना चाहिए।
आजकल यज्ञ-जप दूसरों से ही अधिकतर कराए जाते हैं। यज्ञ, जाप, पूजा-पाठ को पुण्य के साथ संयुक्त करने वाले इनको पुरोहित आदि से कराते हैं। मन्त्र में निर्देश है कि यह सब स्वयं करना चाहिए। जैसे कि स्वास्थ्य की प्राप्ति, शक्ति-अर्जन, भूख निवृत्ति के लिए स्वयं भोजन करते हैं।
’कल्पयस्व’ का ’कल्प’ शब्द कायाकल्प के रूप में अधिक प्रसिद्ध है। दुग्धकल्प, दहीकल्प, फल (विशेष) कल्प से जैसे शरीर के विकारों को दूर करके देह को तरोताजा, सामर्थ्यवान् बनाया जाता है। ऐसे ही प्रतिदिन की जाने वाली सन्तुलित आहार, व्यायाम, विश्राम (= निद्रा ) और ब्रह्मचर्य = संयम जैसी दिनचर्या, जीवनचर्या से शरीर सशक्त बनाना चाहिए।
वाजिन् स्वयं यजस्व। यज् धातु देवपूजा, संगतिकरण और दान अर्थ में है। अर्थात् अपने पूज्यों की पूजा, जीवन व्यवहार चलाने के लिए अपेक्षित पदार्थों का संगतिकरण या सामाजिक जीवन जीने के लिए उस-उस व्यक्ति से मेल-मिलाप अपने आप कर, दूसरों पर न छोड़। ऐसे ही जीवन व्यवहार में अनेकों को अनेक वस्तुओं का दान अपेक्षित होता है। वह भी स्वयं कर। सामाजिक भलाई का जो भी शुभ कर्म है, वह यज्ञ है। उसमें ये तीन या इनमें से दो या एक क्रिया होने से वह यज्ञ कहलाता है। वैसे यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, देवयज्ञ के लिए अधिक प्रसिद्ध है। पुनरपि यज्ञ वाच्य के कार्य स्वयं ही करना चाहिए। हाँ, देवपूजा के देव शब्द को तीनों क्रियाओं के साथ समान रूप से जोड़कर भी अर्थ को स्पष्ट किया जाता है।
वाजिन् स्वयं जुषस्व। ’जुष’ धातु प्रीति अर्थ में है। समाज का प्रथम रूप परिवार है। परिवार पारस्परिक सम्बन्धों पर निर्भर है। अतः इन विविध प्रकार के पारिवारिक और मैत्री जैसे सम्बन्ध स्वयं निभा। उदाहरण के लिए पति-पत्नी सम्बन्ध स्वयं निभाने पर सफल होता है। ऐसे ही अन्य निकटतम सम्बन्ध स्वयं ही निभाने चाहिएं। इसी आधार पर परमात्मा के प्रति की जाने वाली प्रीति व भक्ति भी स्वयं करनी चाहिए। इसमें किसी दूसरों को बीच में नहीं लाना चाहिए । हाँ, उपासना या योग को पहले विशेषज्ञ से सीखना चाहिए। तत्पश्चात उसका अभ्यास तो स्वयं करना चाहिए।
यह सब स्वयं क्यों करना चाहिए? इसमें हेतु देते हुए अन्तिम चरण में कहा है- ते महिमा = तेरी महिमा अन्येन = दूसरे द्वारा न सन्नशे = नष्ट नहीं की जा सकती। जब भी इसके नाश की बात उभरेगी, तब वह तेरे मन में उभरेगी। क्योंकि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। अर्थात् जब अपना मन कमजोर होता है तभी दूसरों की बातों, व्यवहारों का उस पर प्रभाव होता है। दूसरे अपने स्वार्थ की दृष्टि से दूसरों को नापते हैं, जाँचते हैं। अतः हो सकता है उनके द्वारा तेरी शक्ति, स्थिति पूरी तरह से अनुभव न की जाए। दूसरों में अपनापन कम या न होने से उनकी कसौटी, सहानुभूति भिन्न हो सकती है। क्योंकि तेरे मन में कितनी तड़प,तन्मयता, उत्कण्ठा है, उत्सुकता है, वह दूसरे नहीं जान सकते। अतः अपने ऊपर भरोसा रखते हुए इन-इन कार्यों को तो कम से कम स्वयं कर। ’ते महिमा’ शब्दों द्वारा यह भावना दी गई है कि आत्मगौरव को उभार। सर्वदा-सर्वथा आत्मविश्वास से भरपूर रह। कभी भी अपने अन्दर आत्महीनता न आने दे।
मन्त्र के अन्य शब्द पर निरुक्त से विशेष विचार प्राप्त होता है। अन्यो नानेयः, न आनेयः = अन्य = जो अपनों में, अपनेपन में न लाने योग्य है अर्थात् जो अभी विश्वासपात्र नहीं बना। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | Ved Katha Pravachan - 94 | Explanation of Vedas | इच्छा आत्मा की होती है, शरीर की नहीं