संघर्षमय संसार की कटु स्मृतियों को क्षण भर को भुला देने के लिए मानव इतस्ततः मृग मरीचिका में भटकता है। सुख और शान्ति की पिपासा को शान्त करने के लिए उसने नए-नए आयोजन किए हैं। जीवन के उत्पीड़न, शोक, चिन्ता और दुःख को भुलाकर मानव मुस्करा सके और एक साथ बैठकर हंस सके, इन्हीं सबकी शृंखला में हमारे त्यौहार भी प्रादुभूत हुए हैं। ये त्यौहार प्रतिवर्ष हमारे ऋषियों, पूर्वजों का सन्देश लेकर आते हैं तथा हमें त्याग-तपस्या का, स्वाभिमान का और जीवन के मूलभूत सिद्धान्त का सन्देश देकर आते हैं।
व्रत, पर्व और त्यौहार का प्रवर्तन हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, परम विद्वान, दूरदर्शी, महामना पूर्वजों द्वारा हुआ था। वे गूढ़ गुण गुम्फित लाभप्रद तत्वों को जानते थे तथा अनभिज्ञ व्यक्तियों को परिचित कराते थे। उन्होंने कुछ ऐसी लोकोक्तियँ भी प्रसिद्ध की थीं, जिनसे सर्वसाधारण को इनका महत्व विदित होता था। वास्तव में व्रतों और त्यौहारों से प्राणिमात्र का तथा विशेषकर मनुष्यों का बड़ा भारी उपकार होता है। तत्वदर्शी महर्षियों ने इनमें विज्ञान के सैंकड़ों अंश संयुक्त कर दिए हैं। ग्रामीण या देहाती मनुष्य तक इस बात को जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य की सुख और शान्ति तथा दैहिक, भौतिक, समृद्धि के वर्धक हैं।
इन्हीं पावन पुनीत त्यौहारों में दीपावली भी अपना विशिष्ट स्थान रखता है। दीपावली का आलोक जगत् में स्फूर्ति, प्रेरणा, क्रियाशक्ति का सृजन करता है। दीपावली कार्तिक कृष्णा अमावस्या को मनाई जाती है।
भारतवर्ष की छहो ऋतुओं में सर्वोत्तम ऋतु दो ही हैं। शरद और बसन्त। इनमें बसन्त की शोभा भारतवर्ष के जलप्राय और वृक्षावलियों से शोभित प्रदेशों में उल्लसित होती है। किन्तु शरद भारत के कोने-कोने में चाहे वह मरुभूमि हो अथवा जल प्लावित भू भाग, सर्वत्र शोभादायक होती है। इस समय इस ऋतु में सबको अन्न और जल की प्राप्ति होती है।
कृषिप्रधान भारतवर्ष के लिए सबसे श्रेष्ठ कौन सी ऋतु लक्ष्मीविलास की आधारभूमि हो सकती है! इसी ऋतु में राजा और रंक सभी मिलकर लक्ष्मीपूजन करें, यह आध्यात्मिकता के आदर्श भारतवर्ष के लिए सर्वथा समुचित ही है।
इस ऋतु में आश्विन और कार्तिक दो मास होते हैं। इनमें से कार्तिक मास लक्ष्मीपूजन के लिए इसलिए उपयुक्त माना गया, क्योंकि कृषि द्वारा अन्न की प्राप्ति कार्तिक में ही होती है। आश्विन में यत्र-तत्र भले ही धान का परिपाक हो जाए, सर्वत्र नहीं होता है और जब तक सर्वत्र धान्य रूपी लक्ष्मी जो कृषिप्रधान भारत का एकमात्र आधार है, न पहुँच जाए तब तक लक्ष्मी का पूजन कैसा? अतएव लक्ष्मी पूजा के लिए कार्तिक मास ही उचित है।
अमावस्या के विषय में तो किसी विशेष कथन की वैसे भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि दीपावली के लिए चांदनी वाली रात उतनी उपयोगी नहीं हो सकती है। इसके अतिरिक्त एक कारण और भी है कि शरद् ऋतु में मलेरिया आदि रोगों की उत्पत्ति की सम्भावना अधिक रहती है और रोगों के कीटाणु सूर्य या चन्द्र के प्रकाश में या तो पनपते नहीं हैं और यदि पनप भी गए तो उनकी प्राचूर्य उतनी नहीं होती जितनी अन्धकार में हो सकती है।
सायंकाल का समय इसलिए भी उपयोगी होता है, क्योंकि उस समय शीत और उष्ण दोनों तरह के कीटाणु एकत्रित होते हैं, अन्यथा दिन में उष्णता प्रधान कीटाणु और रात में शीतप्रधान कीटाणुओं का संग्रह प्रकृति विरुद्ध होने के कारण सहसा एकत्र प्राप्त नहीं हो सकता है। त्रयोदशी के दिन चौराहे या घर के द्वार पर दीपक जलाया जाता है। रास्ते के चौराहे पर प्रायः मलिनता, कूड़ा आदि का संसर्ग होने से मार्ग की धूल में अनेक कीटाणु विद्यमान रहते हैं। तेल के जलने से जो तीव्र गन्ध उत्पन्न होती है, उससे अधिकार धूलिगत कीटाणुओं का नाश सम्भव है।
इसी कारण ‘निर्णय सिन्धु’ में यम दीप दान का निर्णय करते हुए स्कन्द पुराण का श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा गया कि है कि-
“कार्तिक की त्रयोदशी को सायंकाल के समय घर से बाहर दीपदान करना चाहिए, इससे अपमृत्यु नष्ट होती है।“
लक्ष्मी के तीन रूप- भारत का यह पुनीत त्योहार सचमुच लक्ष्मी के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीनों स्वरूपों का उल्लासमय प्राकट्य करने वाला है। लक्ष्मी का आधिभौतिक स्वरूप धन, सम्पत्ति, सोना, चांदी, मणि, रत्न आदि हैं। आध्यात्मिक स्वरूप शोभा है। और आधिदैविक स्वरूप शुभ गुणों का जीवन में धारण तथा दिव्यविज्ञान की प्राप्ति है दिव्य ज्ञान से युक्त होकर जो समाज के अज्ञान अन्धकार को दूर करता वही विष्णुरूपी परमात्मा का प्रिय होता है।
भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक उपासना, आराधना व अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का सम्मिलित रूप से व्यवहार किया जाता है। तदनुसार इस उत्सव में भी सोना-चांदी के सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से सम्बन्ध मानकर पूजन किया जाता है। घरों का सम्मार्जन, उपलेपन और सुधा सेचन (सफेदी करना) प्रभृति परिष्कार (सजावट) और दीप-माला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के लिए जाते हैं। इस तरह इस उत्सव में लक्ष्मी के उपरोक्त स्वरूपों की अर्चना की जाती है।
महिमा तथा वैज्ञानिक तथ्य- भारत वर्ष में सभी उत्सवों में दीपावली का उत्सव घर-घर, गांव-गांव और नगर-नगर में बालक से लेकर वृद्ध तक, मूर्ख से लेकर पण्डित तक, रंक से लेकर राजा तक सर्वत्र ही आमोद-प्रमोद और आनन्द को उल्लासित करने वाला प्रमुख त्यौहार है।
इस उत्सव का वैज्ञानिक महत्व भी है। चातुर्मास में सभी भूमिभाग के भीगे रहने से अनेक प्रकार के जीव-जन्तु और रोगों के कीटाणु फैल जाते हैं, उनमें से मोटे-मोटे कीट-पतंगादि तो शरद् ऋतु के आने पर भगवान सूर्य के प्रचण्ड आतप से सन्तप्त होकर अथवा शरद्काल के अनन्तर तत्काल आने वाले हेमन्त के अतिशीत द्वारा नष्ट अथवा लुप्त हो जाते हैं। किन्तु साधारण दृष्टि से तिरोहित रहने वाले अति सूक्ष्म कीटाणु न तो सूर्य ताप से और न शीत से निवृत्त हो सकते हैं। अतः उनको समाप्त करने के लिए कच्चे मकानों को शुद्ध गोबर, खड़ी मिट्टी आदि से तथा पक्के मकानों को चूना, कलई आदि से वर्ष भर में एक बार साफ कर देना आवश्यक है। गोबर, चूना आदि की कीटाणु नाशकता सर्वविदित हैं। इतने पर भी जो कीटाणु बचे रहते हैं, उन्हें समाप्त करने के लिए सारे घर में तेल के दीपकों की तीव्र गन्ध अत्यन्त उपयोगी है। इससे रहे-सहे चातुर्मास के सभी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और निवास स्थान कीटाणुओं से रहित तथा स्वास्थ्य रक्षा में सहायक सिद्ध होता है।
इस दृष्टि से विचार करने पर आजकल बिजली की रोशनी शोभाजनक भले ही ही हो सकती है, किन्तु कीटाणु विनाशक के रूप में उतनी उत्तम नहीं मानी जा सकती, जितनी कि तेल दीपकों की रोशनी होती है।
दीपावली का यह ज्योतिपर्व श्रीराम जी की स्मृति में मनाया जाता है। श्रीरामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् अत्याचारी एवं दुराचारी रावण का वध करके भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीता जी के साथ जब अयोध्या लौटे, तो नगरवासियों की प्रसन्नता की सीमा न रही।
गदगद हृदय से उन सभी ने अपने-अपने भवनों पर दीपों की कतारें लगा दी और भाव-विभोर होकर श्रीराम का स्वागत किया। तदुपरान्त प्रसन्नता में सभी ने विविध प्रकार के मिष्ठान्न भी बनाए। तभी से राम जी के अयोध्या लौटने एवं रामराज्य के प्रारम्भ होने की तथा पाप के ऊपर पुण्य की विजय की पुनीत खुशी एवं स्मृति में यह उत्सव भारत में प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
दीपावली के इस धार्मिक महत्व के अतिरिक्त कुछ ऐतिहासिक महापुरुषों की जन्म-मरण की तिथियां भी इस पर्व से सम्बन्धित हैं। जैन मतावलम्बी को दीपावली की 24 वें तीर्थंमर श्री महावीर स्वामी का निर्वांण दिवस मनाते हैं। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती का भी निर्वाण का भी निर्वाण आज के ही दिन हुआ था।
अतएव दीपावली सर्वमान्य पुनीत पर्व है। आइए ! हम भी दीपावली के दिन इस उत्सव में मन की पवित्रता के साथ श्रीराम जी के महान गुणों का चिन्तन करके उन्हें अपने जीवन में धारण करके अपने जीवन को दिव्य तथा धन्य करें। - डॉ. कमल किशोर
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