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बदल रहे हैं रिश्ते भाई बहन के

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हमारे देश में प्रत्येक पर्व या त्यौहार अपने आपमें अत्यधिक महत्वपूर्ण तथा गरिमायुक्त है। किन्तु ‘राखी’ या रक्षाबन्धन त्यौहार के साथ-साथ भाई और बहन के अटूट रक्त के सम्बन्ध को सुदृढ़ता प्रदान करने वाला भावनात्मक सम्बन्ध का पोषक पर्व है। सदियों से इस पर्व का महत्व रहा है। अथाह स्नेह के सागर में डूबी बहन इस पर्व को भाई के हाथ में रेशम का धागा बान्धकर भाई को स्वरक्षा का प्रतिवर्ष स्मरण कराती है। ‘श्रावण’ मास की पूर्णिमा तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। भाई भी बहनों से राखी बन्धवाने को आतुर व उत्सुक रहते हैं।

रक्षाबन्धन का शाब्दिक अर्थ यही है कि रक्षा के लिए बन्धन अर्थात् बहन अपनी सुरक्षा के लिये भाई के हाथ में रेशम बान्धती है और भाई को अपनी सुरक्षा व सहायता का उत्तरदायित्व जताती है। प्राचीन समय से ब्राह्मणों द्वारा राखी बान्धने का प्रचलन है। क्योंकि ब्राह्मण शुरु से अध्यापन अध्ययन के कार्य में लिप्त माने जाते हैं। अतः उनमें क्षत्रियों जैसी शूरता या वीरता नहीं, इसलिये वे भी क्षत्रियों को राखी बान्धकर अपनी सुरक्षा का भार उनको सौंपते हैं। किन्तु वर्तमान में यह पर्व भार्ई-बहन के रिश्ते को लेकर ही मनाया जाता है। इस दिन प्रातः से ही बहन निराहार रहकर भाई को राखी बान्धने की प्रतीक्षा करती है। नहा-धोकर वह भाई को टीका करती है, मिठाई खिलाती है तथा रक्षासूत्र ’रेशम का धागा’ बान्धती है।

धीरे-धीरे यह पर्व अपना वास्तविक अर्थ या महत्व खोता जा रहा है। इस पर्व की पवित्रता समाप्त होती जा रही है। अत्यधिक भावनात्मक सम्बन्धों वाला यह पर्व औपचारिकता मात्र हो गया है या फिर अपना मूल अर्थ खो बैठा है।

राखी का पर्व अब कुछ बहनों के लिए आर्थिक लाभ मात्र बनकर रह गयाहै । कहीं-कहीं बहनें मात्र इसीलिए भाई को राखी बान्धती हैं कि इसके बदले में उन्हें भाई द्वारा अच्छी भेंट या रुपये मिलेंगे। कितनी ही बहनें तो ऐसी भी हैं, जिनके भाई ने यदि किसी कारणवश रुपये देने बन्द कर दिये, तो वे यह सोचकर राखी नहीं बान्धती कि क्या फायदा, भाई तो फूटी कौड़ी भी नहीं देता, फिर मैं ही क्यों राखी बान्धूं? वे इस बात को नहीं समझतीं कि रिश्तों का क्या मूल्य होता है? इस मानसिकता के कारण रक्षाबन्धन जैसे पर्व की गरिमा का क्षय निश्‍चित है। इसके अतिरिक्त आधुनिक जीवन शैली ने भावनात्मक सम्बन्धों को क्षीण करने में बड़ी भूमिका निभाई है। भौतिकवादी युग में लोग किसी पर्व को मनाने के वास्तविक अर्थ तथा प्रयोजन एवं महत्व को एक ओर रखकर मात्र यह सोचकर कोई त्यौहार मनाते हैं कि सामाजिक औपचारिकता की पूर्ति हेतु त्यौहार मनाना आवश्यक है, जबकि किसी त्यौहार के साथ ऐसी कोई औपचारिकता नहीं है।

जब पर्वों को मनाना औपचारिक अनिवार्यता होगी, तो फिर आपस में सम्बन्ध या रिश्तों में कितनी स्वाभाविकता रह जायेगी? सच तो यही है कि आज के भौतिकवादी युग में बहन और भाई का सम्बन्ध भी धीरे-धीरे औपचारिक होता जा रहा है। यही कारण है कि यदि परिस्थितिवश कभी बहन को भाई के आश्रय में रहना पड़ा, तो स्वावलम्बिनी होकर जीवनयापन का मार्ग ढूंढने का प्रयास करती है या किसी अन्य का सहारा ढूंढती है।

उक्त सामाजिक वातावरण में ‘राखी’ की गरिमा या महत्व को कायम रख पाना कठिन है। फिर भी भाई-बहन परस्पर स्नेहिल सम्बन्ध को तन-मन से निभा रहे हैं। एक-दूसरे के सुख-दुःख में पूर्ण त्याग व सहानुभूति के साथ भागीदार बनते हैं। इसी समाज में ऐसे भी भाई-बहन हैं जो वर्ष में एक बार आने वाले रक्षाबन्धन या ‘राखी’ जैसे पवित्र पर्व पर अवश्य मिलते हैं, चाहे वे कितने ही दूर हों, मिलने पर पूर्ण आह्लाद के साथ राखी बन्धवाते हैं तथा भाई-बहन के अटूट रिश्ते को कायम रखते हैं।

इसलिए आधुनिकता व भौतिकता के मायाजाल में फंसे होने पर भी भाई-बहन के भावनात्मक सम्बन्धों के प्रति आस्था अभी है लोगों में। चन्द प्रमादी लोग किसी पर्व की गरिमा को थोड़ी सी आंच भले ही दे दें, पूर्णतः कदापि समाप्त नहीं कर सकते। अतः भले ही ‘राखी’ के अर्थ को समझने में लोग भूल कर रहे हों, इसका अपना महत्व स्वयं में कभी कम नहीं हो सकता। - डॉ. अनामिका प्रकाश

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