विशेष :

राष्ट्रनेता सुभाषचन्द्र बोस

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netaji 440

जैसे समुद्र से वर्षा मेघ उठता है तथा विपुल जलराशि वाष्प के रूप में समेटकर वह सारे आकाश को आच्छादित कर लेता है, पूर्वी पवन के तूफानी रथ पर सवार होकर वह ग्रीष्म के उत्ताप से झुलसती वनभूमियों और मरुस्थलों की ओर दौड़ता पड़ता है। वह भीषण गड़गड़ाहट से गरजता है। उसमें बिजली कौंधती है। उसके आते ही सूर्य अदृश्य हो जाता है, चन्द्रमा और तारे भी छिपे रहते हैं, कभी वह झंझावात के साथ मूसलाधार बरसता है और कभी स्तब्ध भाव से मन्द-मन्द रिमझिम में रातों रात बरसता रहता है। प्यासी धरती तृप्त हो जाती है। सूखी डालों में नये पत्ते पूट आते हैं। मिट्टी में दबे कोटि-कोटि बीज अंकुरित हो उठते हैं। खेत और वन लहलहाने लगते हैं। इस जीवनदान में ही मेघ का अस्तित्व विलीन हो जाता है। ऐसा ही जीवन था राष्ट्रनेता सुभाष का।

राष्ट्रनायक अग्नि- ऋग्वेद अग्नि की स्तुति से शुरू होता है। अग्नि का अर्थ है अग्रणी, आगे ले जाने वाला राष्ट्रनायक। अग्नि के समान तेजपुञ्ज राष्ट्रनायक ही वन्दनीय होता है। वह हर विपत्ति के मोर्चे पर सबसे आगे खड़ा दिखाई देता है और ऋत्विक् बनकर अपनी और अपने सैनिकों की आहुतियाँ देता है। विजय प्राप्त करने पर वह राष्ट्र को धन-धान्य, सुख समृद्धि से भरपूर कर देता है। (अग्निं ईडे पुरोहितं, यज्ञस्य देवं ऋत्विजं, होतारं रत्नधातम्)। राष्ट्रनेता सुभाष एक विशाल अग्निपुञ्ज थे, जिसकी चमक दिगन्तों तक पहुंचती थी और जिसकी भभक शत्रु-मित्र सभी को अनुभव होती थी।

पराधीनता की चुभन- पराधीनता हर मनस्वी पुरुष को अखरती है। बन्दी बन जाना घोरतम यातना है। यह स्वामी दयानन्द को अखरी थी, लोकमान्य तिलक को अखरी थी, स्वामी श्रद्धानन्द और वीर सावरकर को अखरी थी, लाला लाजपतराय और महात्मा गान्धी को अखरी थी, रामप्रसाद बिस्मिल और भगतसिंह को अखरी थी। ऐसे ही राष्ट्रनेता सुभाष को भी अखरी थी।

जब जंगली हाथियों के किसी टोल को घेर घार कर बन्दी बना लिया जाता है, तब वे कितना छटपटाते हैं! छोटी आयु के निरीह गज शिशु तो जल्दी ही पराधीनता के अभ्यस्त हो जाते हैं, परन्तु वयस्क और प्रौढ़ हाथी बन्दी बनाये जाने का जी जान से विरोध करते हैं। पैरों और गर्दन में बन्धे रस्सों को तोड डालने के लिए वे इतना जोर लगाते हैं कि रस्से की रगड़ से दो-दो इंच गहरे घाव हो जाते हैं। कोई तो भूखे रहकर प्राण ही दे देते हैं। राष्ट्र नेता सुभाष की पराधीनता की अनुभूति नये पकड़े गये यूथपति गजराज की सी थी, जिसे पराधीनता के कारण न दिन में चैन था, न रात में नीन्द। एक ही धुन थी कि जैसे भी हो, भारत भूमि दस्युओं के चंगुल से मुक्त हो।

चिड़ियाघर में पिंजड़े में बन्द बाघ तो सभी ने देखा होगा, वह कितना बेचैन रहता है? एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर काटता रहता है। पर हमने शिकंजा लगाकर पकड़े गये एक तेंदुए को देखा है। छुटकारा पाने के प्रयत्न में उसने अपने पांव का मांस और खाल काट डाला था, पर हड्डी बची रही थी, इसलिए वह छूट नहीं पाया। सुभाष की स्वाधीनता के लिए व्यग्रता कुछ ऐसी ही थी। यह देह लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही है, उसमें नष्ट होना हो, तो कल नहीं, आज नष्ट हो जाये।

नम्बर एक राजद्रोही- अन्य अनेक स्वाधीनता संग्रामी जेलों में गये थे। वे वन्दनीय हैं। उन्होंने घर का वैभव-विलास त्यागकर जेल का असुखद जीवन वरण किया था। परन्तु उनकी तुलना सुभाष से करना उचित नहीं होगा, जिसे जेल से तभी छोड़ा गया, जब यह निश्‍चय हो गया कि उसे राजयक्ष्मा हो गया है, जिसका उन दिनों कोई इलाज नहीं था। सरकार के रजिस्टरों में उनका नाम नम्बर एक राजद्रोही के रूप में दर्ज था।

देश में स्वाधीनता पाने की उमंग जोरों पर थी। उसका सूत्रपात आर्यसमाज ने किया था। आर्यसमाज की स्थापना कांग्रेस से 10 वर्ष पहले हुई थी। परन्तु बाद में स्वाधीनता आन्दोलन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में चली गई। आर्यसमाज के साधारण कार्यकर्ता स्वाधीनता संग्रामी थे, परन्तु बड़े नेता सरकारी कर्मचारी या रायबहादुर, राय साहिब थे। नेताओं ने घोषित कर दिया कि आर्यसमाज एक विशुद्ध धार्मिक संस्था है, जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है। लाला लाजपतराय को आर्यसमाज से इसलिए निकाला गया कि कहीं उनके कारण आर्यसमाज को राजनीतिक संस्था न मान लिया जाये। इसका फल यह हुआ कि स्वाधीनता आन्दोलन की बागडोर गान्धी-नेहरू जैसे मुस्लिम तोषी गुट के हाथ में आ गई और राजनीति की गाड़ी साम्प्रदायिकता के गन्दे दलदल में फंस गई। धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव के नाम पर कांग्रेस हर प्रश्‍न को हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई-सिख के दृष्टिकोण से देखती रही। पाकिस्तान, खालिस्तान, नागालैण्ड उसी मानसिकता की उपज है।

साम्प्रदायिकता से दूर- सुभाष ने मन में साम्प्रदायिकता को कभी स्थान नहीं दिया। आजाद हिन्द फौज में हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई सभी थे। सभी देश को स्वाधीन करने के लिए प्राणोत्सर्ग करने को उद्यत थे। ठीक ऐसे ही लोग गान्धी-नेहरू गुट को भी उपलब्ध थे। परन्तु गान्धी-नेहरू गुट के पास करने को कुछ नहीं था, स्वाधीनता संग्राम का कोई कार्यक्रम नहीं था। अतः साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों में पदों और सीटों के बंटवारे के सिवाय करने को कुछ बचता ही नहीं था। सत्याग्रह सफल होकर भी गान्धी जी की अदूरदर्शिता के कारण विफल हो गये थे। सारे देश में निराशा हताशा का वातावरण था।

तभी सन् 1939 से पहले द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बानक बनने लगे। जर्मनी प्रथम विश्‍वयुद्ध में हुई पराजय का बदला लेने के लिए अपनी शक्ति बढ़ा रहा था और एक के बाद एक प्रदेश हथियाता जा रहा था। जब चैकोस्लोवाकिया पर उसने कब्जा किया, तब इंग्लैण्ड और फ्रांस के सब्र का प्याला लबालब भर गया। स्पष्ट था कि यदि अब जर्मनी ने किसी नये प्रदेश पर कब्जा किया तो युद्ध होगा।

गान्धी जी से मतभेद- सुभाष इस संभावित युद्ध के सुअवसर का लाभ भारत की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए उठाना चाहते थे। यहाँ गान्धी जी से उनका सैद्धान्तिक टकराव हुआ। सुभाष आजादी के लिए सब कुछ कर गुजरने को तैयार थे, परन्तु गान्धी जी वणिक् बुद्धि से हिसाब लगाकर चलने वाले नेता थे। उन्होंने अहिंसा का कवच धारण किया हुआ था, जो अंग्रेजों के कोप से उनकी रक्षा करता था। यही कवच उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाही भी नहीं करने देता था।

सुभाष चाहते थे कि यदि युरोप में युद्ध छिड़े, तो भारत में कांग्रेस ‘करो या मरो’ का शंख बजा दे। गान्धी जी इसके विरुद्ध थे। उनका कहना था कि हमें अंग्रेजों की विपत्ति का लाभ नहीं उठाना है। सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष थे। दूसरी बार गान्धी जी के न चाहते हुए वह डॉ. पट्टाभिसीतारामैया को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये। कांग्रेस गान्धी-नेहरू गुट की निजी जागीर थी, यह सुभाष को तब पता चला जब कांग्रेस कार्यसमिति के लगभग सभी सदस्यों ने उनसे सहयोग करने से इन्कार कर दिया।

सुभाष नई कार्यसमिति बना सकते थे, पर उससे कांग्रेस संगठन में फूट पड़ती और राष्ट्रीय आन्दोलन दुर्बल पड़ता। सुभाष ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। अंग्रेजों की आँख का कांटा सुभाष कांग्रेस का भी कोपभाजक बन गया।

महा प्रव्रजन- अब इस देश में रहकर करने को कुछ नहीं बचा था। 1 सितम्बर 1939 को युरोप में दूसरा विश्‍वयुद्ध छिड़ गया। तब सुभाष ने भारत से बाहर जाकर जर्मनी की सहायता से भारत को स्वाधीन कराने का संकल्प ठाना। कलकत्ता में वह जेल में बन्द थे। आमरण अनशन शुरू करने के कारण वह जेल के बजाय उनके अपने घर में नजरबन्द किये गये। वहाँ उन्होंने एक लम्बे धार्मिक अनुष्ठान का नाटक रचकर वेशभूषा बदलकर घर से निकल भागने में सफलता प्राप्त कर ली। एक मौलवी के वेश में वह पेशावर पहुंच गये। शिवाजी जैसे औरंगजेब की जेल से निकल भागे थे, बहुत कुछ वैसी ही कहानी यहाँ दुहराई गई। पेशावर से जर्मनी जाने की कहानी बड़ी रोमांचकारी है। पग-पग पर संकट सहते और प्रतिक्षण पकड़े जाने का जोखिम उठाते वह आखिर बर्लिन पहुंच गये।

आजाद हिन्द फौज- उन दिनों जर्मनी में हजारों भारतीय सैनिक युद्धबन्दी थे। ये उत्तरी अफ्रीका में फील्ड मार्शल रोमेल के हमलों में पकड़े गये थे। उन्हें अपने पक्ष में करके आजाद हिन्द फौज बनाने का काम शुरू किया गया था, परन्तु भारतीय युद्धबन्दी अंग्रेजों के प्रति निष्ठा की शपथ को तोड़ने को तैयार नहीं थे। सुभाष के उद्बोधन ने उनमें देशप्रेम की भावना जगा दी।

उन्हीं दिनों जापान लड़ाई में कूद पड़ा और तेजी से एक के बाद एक विजय प्राप्त करता गया। सिंगापुर में 45000 भारतीय सैनिक युद्धबन्दी हुए थे। सुभाष, जर्मनी और जापान सभी की राय यह बनी कि राष्ट्रनेता सुभाष को जापान पहुंचकर वहाँ आजाद हिन्द फौज का संगठन करना चाहिए। सुभाष एक पनडुब्बी में बैठकर जापान पहुंचे। सिंगापुर में भारतीय युद्धबन्दी अफसरों का मन बदलना बहुत कठिन काम था। परन्तु सुभाष इसमें सफल हुए और आजाद हिन्द फौज बनी। इस फौज के गठन में सुभाष का संगठन कौशल प्रकट हुआ। सैनिक उनके लिये जान निछावर करने को उद्यत रहते थे।

भारत की सीमा में प्रवेश- बर्मा, थाईलैण्ड, मलाया (मलेशिया) में लाखों भारतीय रहते थे। सुभाष ने उनमें भारत की स्वतन्त्रता के लिए सर्वस्व त्याग का उन्माद जगा दिया। सेठों ने अपनी थैलियां खोल दीं, महिलाओं ने अपने आभूषण उतारकर अपने प्यारे देश के लिये दे दिये। प्रशिक्षण आजाद हिन्द फौज कूच करती हुई भारत की सीमा में आ घुसी। उसने कोहिमा पर कब्जा कर लिया।

इंग्लैण्ड और अमेरिका ने अपनी सारी शक्ति आजाद हिन्द फौज को रोकने में लगा दी। बंगाल से अनाज गायब कर दिया गया, जिससे यदि आजाद हिन्द फौज जीतती हुई आगे बढ़ आये तो उसे खाने को कहीं कुछ न मिले। दुर्योग ऐसा हुआ कि आजाद हिन्द फौज तो इम्फाल में ही रुक गई, पर बंगाल में 30 लाख नर-नारी मानव निर्मित अकाल के ग्रास बन गये।

आगे की कथा दुःखान्त है। जर्मनी हार गया, दो अमानुषिक परमाणु बमों की चोट खाकर जापान भी हार गया। आजाद हिन्द फौज को रसद और गोला बारूद मिलना बन्द हो गया। इसलिए उसे हारना पड़ा।

एक विमान दुर्घटना में राष्ट्रनेता सुभाष की मृत्यु घोषित की गई, जो अभी तक रहस्य बनी हुई है तथा सन्देह के घेरे में है।

पराजय में भी यश- हार जीत पर ही सब कुछ निर्भर करता है। जो जीत जाते हैं, उन्हें धन, यश, राज्य सब मिल जाता है। पराजित इनसे वंचित हो जाते हैं। परन्तु सुभाष एक ऐसे दिव्य व्यक्तित्व हैं, जिनकी उपलब्धियों को पराजय भी धूमिल नहीं कर सकी। उनकी कीर्ति अक्षय है।

धन्य थे वह पिता जानकीदास बोस और वह माता प्रभावती, जिन्होंने सुभाष जैसे नररत्न को जन्म दिया।

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