भारतीय नवजागरण का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के द्वितीय चरण से आरम्भ हुआ। इस युग में भारत में नवजागरण का जो सूत्रपात एवं उन्नयन हुआ, उसके पीछे पश्चिम की संस्कृति का विशेष संघात एवं प्रभाव रहा, ऐसा अनेक विचारकों का मानना है। कुछ का ऐसा भी विचार है कि भारतीय समाज के उत्थान एवं राष्ट्रीय नवनिर्माण में आंगल महाप्रभुओं का सर्वाधिक योगदान है। लेकिन जब हम उस काल के इतिहास एवं साहित्य का दिग्दर्शन करते हैं तो वस्तुस्थिति कुछ और सामने आती है और हम पाते हैं कि वस्तुतः राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाले एवं भारतीय नवजागरण के सूत्रधार व पुरोधा इसी धरती के महान मनीषी एवं युगद्रष्टा महापुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती थे, जिनके अतुलनीय तप, त्याग एवं बलिदान से भारतीय समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इस राष्ट्रीय जागरण का प्रेरणा स्रोत प्राचीन वैदिक साहित्य तो था ही, साथ ही इस आलोक के संवाहक थे वैदिक संस्कृति के महान उद्गाता एवं सुधारक महर्षि दयानन्द जो अद्वितीय वेदमर्मज्ञ, महान समाज सुधारक, आर्ष ज्ञान तथा संस्कृत साहित्य के मन्त्रदृष्टा ऋषि थे।
डॉक्टर भगवानदास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द भारतीय नवजागरण के मुख्य निर्माता थे। श्रीमती एनीबेसेण्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘भारत भारतीयों के लिए’ की घोषणा की। वस्तुतः वेदमर्मज्ञ महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के भाष्य में अर्चन्नु स्वराज्यम् की व्याख्या में लिखते हैं कि हम सब स्वराज्य की अर्चना करें। स्वराज्य की यही अवधारणा हमें उनके द्वारा प्रणीत हिन्दी के महान् ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में मिलती है, जहाँ वे लिखते हैं कि “चाहे कोई कितना ही क्यों न करे स्वदेशी राज्य सर्वोपरि होता है।’’ उन्होंने यहाँ तक लिख दिया कि विदेशी चाहे माता-पिता के समान भी क्यों न पालन-पोषण करें तदपि स्वदेशी राज्य सर्वोपरि होता है। वस्तुतः स्वराज्य शब्द को सबसे पहले महर्षि दयानन्द ने उद्घोषित किया था। “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ नारे के उद्गाता लोकमान्य बालगंगाधर तिलक राष्ट्र जागरण के इस महान् नायक के प्रति अपनी भावांजलि प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं- “ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे जो भारतीय आकाश में अपनी अलौकिक आभा से चमके और गहरी नीन्द सोये हुए भारत को जागृत किया। स्वराज्य के वे सर्वप्रथम सन्देशवाहक थे।’’ फ्रेंच लेखक रोमां रोल्यां के अनुसार “स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जनजागृति को क्रियान्वित रूप देने में प्रयत्नशील थे। उनका आदर्श था- “आर्यावर्त उठ जाग, आगे बढ़! समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।’’
वस्तुतः पुनरुत्थान युग के नेताओं में उनका स्थान अप्रतिम है। उन्हें विवेकानन्द, महात्मा गान्धी, तिलक, मदनमोहन मालवीय, योगी अरविन्द का पूर्ववर्ती व अग्रणी माना जाता है। अतः जैसे भुवनभाष्कर की अरुणिम आभा गहन रात्रि के अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर देती है और लोक को अपने प्रकाश से भर देती है वैसे ही भारत दिवाकर दयानन्द वेदों के अथाह सागर का सम्यक् अवगाहन कर अपने अप्रतिम ब्रह्मचर्य के बल से तपः पूत मन्त्रद्रष्टा ऋषि के रूप में पराधीन एवं हतभाग्य भारत की मध्यकालीन समस्त जड़ता, गतिशून्यता, पराधीनता रूप तमस को भारतीय जनमानस से हटाते हैं। उनका जागरण, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं राष्ट्रीय संचेतना के समग्र आयामों का दिग्दर्शन कराता है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती भारतीय नव जागरण के अग्रणी माने जाने चाहिएं। अंग्रेजों ने मरचेन्ट, मिशनरी, मिलिटरी, मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स और मैक्डानल के रूप में भारतीय संस्कृति को विकृत करने और भारतीयों को पराधीन रखने की दिशा में भ्रामक और दुरभिसन्धियों का प्रयोग किया। यहाँ 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिए गए लार्ड मैकाले के भाषण का अंश उनकी मंशा अवगत कराने के लिए उदधृत करना समीचीन होगा।
MACAULAYS ADDRESS TO THE BRITISH PARLIAMENT ON 2, FEBRUARY, 1835-
''Have travelled the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such Wealth I have seen in this county, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural irrigate and therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native culture and they will become what we want a truly dominated nation.''
2 फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में लार्ड मैकाले का सम्बोधन- “मैंने एक ओर से दूसरी ओर तक सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी और चोर हो। मैंने इस देश में ऐसी सम्पदा, ऐसे उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी प्रतिभा के लोग देखे हैं कि मैं नहीं सोचता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएंगे जब तक कि इस देश की उस रीढ़ की हड्डी को ही न तोड़ दें जो कि इसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम इस देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति व संस्कृति बदल दें क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि अंग्रेजी एवं जो कुछ विदेशी है, अच्छा है, हमारे अपने से बहुत बड़ा है तो वे अपने आत्मगौरव को, अपनी भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वह हो जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं। अर्थात् सच्चे अर्थों में एक पराभूत व शासित देश’’।
यह है अंग्रेजों की मंशा और योजना जो उन्होंने भारत के लिए सोच रखी थी। उन्होंने हमारी संस्कृति, शिक्षा, प्राचीन सभ्यता को मिटाने का भरपूर षड्यन्त्र रच रखा था। वे भारत को क्यों जागृत करने लगे? उनका यह सजग प्रयास था कि भारतीय समाज राष्ट्रवाद से सर्वथा विपन्न एवं वंचित रहे और पश्चिम के धर्म, दर्शन, सभ्यता, शिक्षा से अभिभूत हो उसे अंगीकार कर ले। उन्होंने यह भ्रामक प्रचार भी किया कि भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से हीन, गतिशून्य, पिछड़ी हुई तथा आत्मविकास में असफल है। उन्होंने हमारी भाषा, संस्कृति व सभ्यता विकृत करने की योजनाएं बनायी। अतः वे क्यों भारत का हित साधन का कार्य करते? वस्तुतः जागरण का शंखनाद गुंजाने वाले महर्षि दयानन्द थे जिन्होंने अर्चन्नु स्वराज्यम्, माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्या तथा यो जागार तम् ऋचः कामयन्ते का वैदिक मन्त्र फूँका। जिनकी दिव्यदृष्टि ने जागरण की अवधारणा को समग्रता में समझा। वे समग्र क्रान्ति के अग्रदूत, वैदिक ऋचाओं के अमर गायक, आर्ष वैदिक परम्परा के पुनरुद्धारक व महान राष्ट्रवादी विचारक थे। उनकी विचारधारा का आधार वेद था और वे अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के छठवें समुल्लास (अध्याय) में राजधर्म को विस्तार से प्रतिपादित करते हैं। “हम स्वराज्य एवं चक्रवर्ती राज्य की अभ्यर्चना करें’’ जैसे कथन इसकी पुष्टि करते हैं। महर्षि दयानन्द वेदोऽखिलो धर्ममूलम् की अवधारणा को पुनःजागरित करना चाहते थे। चूंकि वेदों में सर्व विद्याएं (सर्वज्ञानमयो हि सः) हैं। अतः वे समग्र विकास एवं समग्र उत्थान का बिगुल बजाना चाहते थे। उनकी यह वाग्धारा भारतीय जनमानस के जीवन की विविध दिशाओं को अभिसिंचित करती है। कविकुलगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर महर्षि के प्रति अपनी श्रद्धापूर्ण भावांजलि इस प्रकार व्यक्त करते हैं- “प्रणाम हो उस ऋषि दयानन्द को जिसकी दिव्य दृष्टि ने भारत के आध्यात्मिक क्षेत्र में सत्य और एकता के दर्शन किए, जिसकी दिव्य-दृष्टि ने भारतीय समाज के सभी अंगों को ज्योतित कर दिया।’’
महर्षि की अमर कृतियों एवं उपदेशों में भारतीय नवजागरण के विविध पहलुओं का बोध होता है। देश की सनातन संस्कृति, भाषा तथा ज्ञान विज्ञान से वे भारत के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करना चाहते थे। समाज में व्याप्त अन्ध-विश्वास, पाखण्ड, अविद्या एवं कुरीतियों का उन्मूलन एक स्वस्थ एवं समृद्ध समाज व नैतिक मूल्यों का संस्थापन सामाजिक जागरण की परिधि में आता है। राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम, संस्कृति का सम्मान, हिन्दी का उत्प्रेरण ही राष्ट्रीय जागरण है। स्वामी जी आधुनिक युग के नवजागरण के पुरोधा ही नहीं महान समाज सुधारक एवं युगद्रष्टा थे। महाकवि सूर्यकान्त निराला के शब्दों मे- “हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है। इसके लिए हम गर्व करते हैं तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया। उन्होंने हमें ज्ञानराशि के अक्षय कोश वेदों से हमारा परिचय करा दिया।’’
एमर्सन ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है- “यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत के सांस्कृतिक व राष्ट्र के नवजागरण में स्वामी दयानन्द का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनकी मान्यताओं ने एक बार हीनभाव ग्रस्त भारत जाति को अपूर्व उत्साह से भर दिया।’’ इस प्रकार स्वभाषा, स्वसंस्कृति एवं स्वराज्य के महामन्त्र के अमर गायक तथा राष्ट्र जागरण काल के अग्रणी मेधापुरुष महर्षि दयानन्द भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा, स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक तथा नवजागरण के अग्रदूत थे। द्विवेदी युग के महाकवि रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-
लोकहित चिन्तन में, गृह सुख त्यागी, वेद ब्रह्म का अनन्य अनुरागी ऊर्ध्वरेता था।
अद्वितीय ज्ञानी, अभिमानी आर्य सभ्यता का, जीवन का दानी धर्म ग्रन्थ का प्रणेता था॥
ऋषि के समान कोटि-कोटि विद्वतमण्डली में, विकट विरोधियों के वृन्द का विजेता था।
भारत के भाग्य का भविष्य रूप दयानन्द, शंकर के बाद हिन्दुओं का श्रेष्ठ नेता था॥
स्वतन्त्रता की अवधारणा को समग्रता में अभिव्यंजित करने वाले इस महापुरुष को शत-शत नमन। - शिवकरण दुबे ‘वेद राही’
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