पण्डित चन्द्रशेखर आजाद भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त सम्मानित और लोकप्रिय क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे पं. रामप्रसाद बिस्मिल व भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। असहयोग आन्दोलन के अचानक बन्द हो जाने के बाद उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी-काण्ड किया और फरार हो गये। बिस्मिल के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ साण्डर्स-वध तथा असेम्बली बम-काण्ड को अंजाम दिया।
पण्डित चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के झाबुआ क्षेत्र के भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर रियासत में रहे और फिर भावरा में बस गए। यहीं चन्द्रशेखर का जन्म हुआ। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था।
संस्कारों की धरोहर- चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं. सीताराम तिवारी से प्राप्त किए। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म करते थे और न स्वयं जुल्म सहन कर सकते थे। भावरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला। भूखे भले ही बैठे रहें, पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो वे स्वयं खाते थे और न ही किसी को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वा लिए तो तिवारी जी बिना पैसे दिए फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गए। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी (चन्द्रशेखर आजाद की माँ) पडोसी के यहाँ से नमक माँग लाईं। इस पर तिवारी जी ने उन्हें खूब डाँटा और चार दिन तक सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।
आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा पुरुषोत्तमदास टंडन भी थे। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने फासीवादी मनोवृत्ति के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। यद्यपि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को रूस में समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु भेजने के लिए एक हजार रूपये दिये थे, जिनमें से कुछ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर इस बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए, तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गई। सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी उन्होंने की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे, क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को भगवतीचरण वोहरा की बम परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधी जी के पास भेजा, जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे, जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते वक्त शहीद कर दिया था।
बलिदान- आज़ाद इलाहाबाद में थे और यशपाल को समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए रूस भेजे जाने सम्बन्धी योजनाओं को अन्तिम रूप दे रहे थे। 27 फरवरी का दिन भारतीय क्रांतिकारी इतिहास का प्रलयकांरी दिन था। पण्डित चन्द्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क कर दिया गया है) में सुखदेव, सुरेन्द्र नाथ पांडे एवं श्री यशपाल के साथ चर्चा में व्यस्त थे। तभी किसी मुखविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। सुरेन्द्र नाथ पांडे एवं यशपाल ने आजाद से कहा कि हम पुलिस को रोकते हैं। आप जाएं, आपकी देश को जरूरत हैं। लेकिन आजाद ने मना कर दिया तथा क्रान्तिकारियों को भगा दिया और स्वयं पुलिस से भिड़ गए। आजाद ने तीन पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया और सोलह को घायल कर दिया। आजाद ने प्रतिज्ञा ले ऱखी थी कि वे कभी जिन्दा पुलिस के हाथ नही आएंगे। इस प्रतिज्ञा को पूरी करते हुए जब मुठभेड़ के दौरान आजाद के पास अन्तिम गोली बची तो उस गोली को उन्होंने स्वयं को मारकर अपना बलिदान कर दिया। पुलिस आजाद से इतनी भयभीत थी कि उनके शरीर के पास काफी देर तक नहीं गयी। भयभीत पुलिस ने श्री आजाद के वीरगति को प्राप्त होने के बाद भी उनके मृत शरीर पर कई गोलियाँ दागी थी। पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिए श्री आजाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी, सारा इलाहाबाद अल्फ्रेड बाग में उमड पड़ा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के झण्डियाँ बांध दी गई। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में व शीशियों में भरकर ले जाने लगे। पूरे इलाहाबाद में आजाद की शहादत की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सड़कों पर आ गए ।
आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली, तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजुम श्मशान घाट पर कमला नेहरु के साथ पहुंचा और आजाद की अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला। इस जुलुस में इतनी भीड़ थी कि इलाहाबाद की मुख्य सड़क पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था कि जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा भारत देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड़ पडा हो। जुलुस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया, वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया। इससे पूर्व मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे। क्योंकि उनके देहान्त से क्रांतिकारियों ने अपना एक सच्चा हमदर्द खो दिया था।
चन्द्रशेखर आजाद हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे। एक दिन जंगल में पुलिस आ गयी। दैवयोग से पुलिस आजाद के पास पहुँच गयी। पुलिस ने साधु वेशधारी आजाद से पूछा कि बाबा! आपने आजाद को देखा क्या? साधु भेषधारी आजाद बोले, बच्चा! आजाद को देखना क्या हम तो हमेशा आजाद रहते हैं। हम ही आजाद हैं। चन्द्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वतन्त्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ । - प्रशान्तसिंह ठाकुर
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